TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

Book Review: काव्य संग्रह "देह और प्रज्ञा के बीच" समीक्षा....हो सकने का होने की तरह इंतजार जीवन की उम्मीद है

Book Review: प्राचीन भारत की कथाओं के जरिए स्त्री-पराधीनता का चित्र प्रस्तुत करते हुए समकालीन विमर्श भी प्रस्तुत किया गया है। मनोविज्ञान के हिसाब से सामूहिक अवचेतन को समझने की बात कही गई है और अंत में संघर्ष का आह्वान भी है और अपनी निष्क्रियता को लेकर कुढ़न भी।

Network
Published on: 8 May 2023 8:15 PM IST
Book Review: काव्य संग्रह देह और प्रज्ञा के बीच समीक्षा....हो सकने का होने की तरह इंतजार जीवन की उम्मीद है
X
Alka Prakash

इंतजार जीवन की उम्मीद है
उम्मीद में है दुनिया
और जब तक इंतजार है
हम नाउम्मीद होने से बचे रह सकते हैं
उपर्युक्त पंक्तियाँ अलका प्रकाश के काव्य संग्रह देह और प्रज्ञा के बीच में शामिल इंतजार नहीं होता महज़ एक शब्द नामक कविता से ली गई हैं। कवयित्री के मनोजगत में बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष का आह्वान तो है ही, साथ ही वह सुबह कभी तो आएगी, इसका इंतजार भी है। बसंत में फूल खिलेंगे ही, दुनिया सुंदर बनेगी ही, मज़दूर वर्ग लड़ेगा और जीतेगा ही, यह तो हमारी चाहत है अनिवार्य भविष्य तो नहीं। लेकिन इस कविता में कहा गया है कि हो सकने का होने की तरह इंतजार जीवन की उम्मीद है।
औरत का मर्सिया इस संकलन की पहली कविता है। प्राचीन भारत की कथाओं के जरिए स्त्री-पराधीनता का चित्र प्रस्तुत करते हुए समकालीन विमर्श भी प्रस्तुत किया गया है। मनोविज्ञान के हिसाब से सामूहिक अवचेतन को समझने की बात कही गई है और अंत में संघर्ष का आह्वान भी है और अपनी निष्क्रियता को लेकर कुढ़न भी।
सिर्फ सवाल नहीं में कवियत्री का कहना है कि नहीं रहीं स्थितियाँ हमारे अनुकूल, होना होगा हमें खुद प्रतिकूल। सिर्फ सवाल नहीं, चाहिए कुछ जवाब भी। यह कविता स्त्रियों को बागी बनने के लिए कहती है और जाहिर है कि वैचारिकी के बिना बगावत अंधी खाई तक ले जाती है तो यहाँ पर परोक्ष रूप से सुंसगत होने का आह्वान भी है।
अविवाहिता अपने देश-काल में घर-गृहस्थी के सुख, मातृत्व की अहमियत की पृष्ठभूमि में स्त्री के अकेलेपन को स्वर देने की कोशिश की गई है। समाजवाद में क्या होगा, इसके इंतजार में पूरा जीवन तो नहीं गुजारा सकता और अगर गुजारा जाएगा तो वह तो दयनीय होगा ही।
कस्बाई लड़की में कहा गया हैः दूसरों के दिमाग के घुन निकालते-निकालते, फँसती गई खुद मकड़जाल में, बाजार और समाज के। स्त्री को स्त्री की नजर से देखने की कोशिश की है। मर्दवादी सामाजिक संरचना और मानसिक बनावट-बुनावट को लेकर आक्रोश भी है और निरुपायता भी।
देह और प्रज्ञा के बीच जैसे माओत्से तुंग ने चीन के प्राचीन वांग्मय का गहन अध्ययन कर रखा था, वैसे ही इस कविता में प्राचीन भारतीय मिथकों का खूब प्रयोग हुआ है। यहाँ द्वंद्वात्मकता का अभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। सोच में इकहरापन-यांत्रिकता हावी है। आत्मिक-सांस्कृतिक रिक्तता पर बिसूरते हुए भौतिकता को महत्वहीन बताने तक जाने की प्रवृत्ति नजर आती है। हालांकि इसी कविता के नाम पर संग्रह का नाम रखा गया है, लेकिन यह कवि की सबसे कमजोर रचना है।
उखड़ना तय है हालांकि पुरुष के पजेस्सिवनेस से जुड़ी कुरूपता पर अलग से जोर देकर रोशनी डाली गई है, लेकिन एसिड-अटैक अपवाद है नियम नहीं। वर्ग-समाज में प्रेम भी दुर्लभ चीज है और जहाँ दुर्लभता होती है, उस पर कब्जा बनाए रखने का आग्रह भी होता है। पजेस्सिवनेस से जुड़ी तमाम कुरूपताएं स्त्रियों में भी उतनी ही पाई जाती हैं और निश्चित रूप से उसके भौतिक आधार भी होंगे ही। मुख्य बात यह है कि पूँजीवादी समाज में चरम व्यक्तिवाद उन लोगों में भी पाया जाता है, जिन्हें सोचने-समझने वाला मनुष्य माना जाता है। इस कविता में पुरुष-द्वेष साफ तौर पर नजर आता है।
पितृसत्ता की संवाहिकाएं स्थितियों के दार्शनिकीकरण की निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति है। कवियत्री का अपना सच तो इससे कहीं नत्थी है नहीं। स्त्रियाँ भी अपने सामाजिक परिवेश की उपज हैं, उनके अंदर भी पितृसत्ता है और इससे उन्हें मुक्त कराने के लिए सामाजिक आंदोलन को वेगवाही बनाना होगा। एकांगी तौर पर उन्हें कुसूरवार ठहराना सपाटबयानी के सिवाय कुछ भी नहीं। इस कविता को पढ़कर बिल्कुल भी मौज नहीं आई, संश्लिष्टता सिरे से गायब है, काव्य-तत्व कहीं नजर ही नहीं आया।
चुना मैंने प्रेम शब्दों की, भाषा की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है, लेकिन यह कविता एकदम से आत्मगत है और इसे वही समझ सकता है, जिसके पास अपने भी कुछ अनुभव हों। तो पाठक स्वयं इस कविता को पढ़ें और अर्थ निकालें, रिव्यूअर कोई मदद नहीं कर सकता। प्रेम होते हुए इसे भी पाठकों को खुद से समझना है। रिव्यूअर के पास इनपुट नहीं कि राह दिखाए।
जीवन-समय यह भी प्रेम कविता है। अमर-प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती। समय के साथ सब कुछ अपने से विपरीत में बदल जाता है। यही प्रकृति का नियम है। हाँ, स्मृतियाँ सुमधुर हो सकती हैं और संभवतः उन्हीं स्मृतियों को कविता में लिपिबद्ध किया गया है।
प्रेम है वह दान अच्छी प्रेम कविता है। अतीत डरावना कुआँ है, वर्तमान उचाट दिनों की फेहरिश्त भर, यदि नहीं याद में कोई। यादों में अपने खुद के डीएनए के विस्तार नाती-पोते भी हो सकते हैं। लेकिन अगर यौवन है-उमंग है तो यौन-प्रेम को भी सहज-स्वाभाविक मानकर चला जाना चाहिए। मित्रता में विस्तार है, कॉमरेडशिप में साझेपने का आनंद है लेकिन गहनता तो ऐंद्रिकता में ही है और कोई भी एक दूसरे का विकल्प नहीं, सभी पूरक हैं और उन्हें इसी रूप में लिया जाना चाहिए। लेकिन, ऐंद्रिकता का बखान सामाजिक सरोकारों के साथ किया गया होता तो उसकी अर्थवत्ता कहीं अधिक होती। प्रेम-कविताएं इन अर्थों में वर्गीय-विमर्श से रहित हैं और कवियत्री को अपनी रचनाओं में इतिहास-निर्माता शक्तियों को लेकर अधिक सरोकारी होना चाहिए था।
जन्म लेते फिर एक बार प्रेम मारता अहं को, मुक्त होते हम अपनी क्षुद्रताओं से। यहाँ भी एक को दो में बाँटकर देखने की जरूरत थी और सामान्यीकरण से बचा जाना चाहिए था। ऐसा मालूम पड़ता है कि कवि-कर्म करते समय अपने विशिष्ट अनुभव ही काम आते हैं और उन्हीं की जमीन पर खड़े होकर सामान्यीकरण किया जाता है और पाठक अपने जीवनानुभवों की जमीन पर खड़ा होकर अपना अर्थ निकालने के लिए स्वतंत्र होता है। फिर जरूरी नहीं कि उसके अर्थ में और कवि के मूल अर्थ में कोई साम्यता हो ही।
हमख्याल इस काव्य-संग्रह की खूबसूरती यह है कि निज की अनुभूति वाली कविताएं जहाँ संख्या में अधिक है, वहीं राजनीतिक ताप-तेवर वाली कविता को भी जगह प्रदान की गई है और हमख्याल कविता इसकी बानगी प्रस्तुत करती है। सामाजिक संगठन ही लिंग विभेद पैदा करते हैं, ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक’ कह बहनों ने घरेलू श्रम और पुनरुत्पादन पर विमर्श किया। व्यापक पढ़ाई-लिखाई और गहरी समझ इस कविता में प्रतिबिंबित हुई है। पाठक जब कविता को पूरा पढ़ेंगे तो उन्हें मेरी बात समझ में आएगी।
औरत हूँ न जो बात हो सकता है कि मैं कहता खुद अलका प्रकाश कह गई हैं। अब व्यंजना का नहीं प्रश्न, बात सीधे-सीधे कहती हूँ, सपाटबयानी मेरी आदत, कला तो उलझाती है, उसका अंत करती हूँ।
एक लड़की की उधेड़बुन बाजार की चकाचौंध के विरुद्ध संघर्ष करती लड़की कहती हैः मेरी देह में एक आत्मा भी है, इसका मैं क्या करूं?
यहाँ संदर्भ देह के दम पर तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते जाने का है।
एक बहाना जरा जीने का ढूँढ़ो उदास रहने के तो अनगिनत कारण बताए जा सकते हैं, लेकिन जीवन को उसके सभी रंगों में जीने के बहाने भी तो मनुष्य को ही तलाशने होते हैं और इस कविता में उसी की वकालत की गई है। और यह हिमायत-वकालत जेंडर निरपेक्ष है माने स्त्री-पुरुष सभी के लिए है।
संकलन की आखिरी कविता है कोरोना वार्ड उस दौर में सबसे बड़ा आश्चर्य था कि अरे हम तो जिंदा बच गए।
अलका प्रकाश की कविताओं को पढ़ने के लिए किसी खास ट्रेनिंग की जरूरत नहीं। सामान्य भाषाई समझ हो और बुनियादी मानवीय सरोकार और संवेदनशीलता तो आप बड़े आराम से उन्हें पढ़ सकते हैं। जिन कविताओं में सब्जेक्टिविटी है, वे सभी को भाएंगी ही बशर्ते कि आपके अंदर मानवीय सारतत्व हो।
पूरे कविता संग्रह की बुनियाद स्वयं कवयित्री के ही शब्दों मेंः जीवन एक सा नहीं रहता, स्थितियाँ बदलती हैं तो जीवन भी उसके अनुसार ढलने लगता है। परिवर्तन न हो और उम्मीदें करवट न लें तो मनुष्य के लिए जीना दूभर हो जाता है।



\
Network

Network

Next Story