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बॉलीवुड ने प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास को जमकर बेचा, लेकिन नहीं हुआ न्याय
गांव-देहात से लेकर आम आदमी की जिन्दगी के कुशल चितेरे महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्मों के निर्माण के बावजूद हिन्दी सिनेमा उनकी प्रतिभा का सही दीदार दर्शकों को नहीं करा सका है।
लखनऊ: गांव-देहात से लेकर आम आदमी की जिन्दगी के कुशल चितेरे महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्मों के निर्माण के बावजूद हिन्दी सिनेमा उनकी प्रतिभा का सही दीदार दर्शकों को नहीं करा सका है।
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प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्में बनी लेकिन उन्हें सफलता नहीं नसीब हो सकी। उनकी कहानियों और उपन्यास को सुन अशिक्षित भी मुग्ध हो जाता है लेकिन फिल्मों ने कभी उसके साथ न्याय नहीं किया। दरअसल, प्रेमचंद को सिनेमा कभी रास ही नहीं आया। वह खुद अपनी किस्मत आजमाने तब के बम्बई और आज के मुम्बई 1934 में गए। अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की, लेकिन एक साल का अनुबंध पूरा करने के पहले ही वाराणसी वापस आ गए।
‘मिल मजदूर’ फिल्म की लिखी थी पटकथा
उन्होंने ‘मिल मजदूर’ फिल्म की पटकथा भी लिखी। मोहन भगनानी के निर्देशन में बनी इस फिल्म को सफलता नसीब नहीं हो सकी। निर्देशक ने मूल कहानी में बदलाव किए थे। बम्बई और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा पानी उन्हें रास नहीं आया।
उपन्यास पर बनी कई फ़िल्में
प्रेमचंद की कहानी पर 1934 में फिल्म ‘नवजीवन’ बनी। एआर कारदार ने 1941 में त्रिया चरित्र पर फिल्म ‘स्वामी’ बनाई जो नहीं चली। सन 1946 में ‘रंगभूमि’ पर इसी नाम से फिल्म बनी। मृणाल सेन ने 1977 में कहानी कफन पर बांग्ला में ‘ओका ऊरी कथा‘ बनाई। साल 1963 में ‘गोदान’ तथा 1966 में ‘गबन’ का निर्माण हुआ। दूरदर्शन ने उनके उपन्यास निर्मला पर इसी नाम से धारावाहिक का निर्माण किया जो सालों चलता रहा।
दुनियाभर में चर्चित हुए
हिन्दी कथा साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले प्रेमचंद देश ही नहीं दुनिया में भी मशहूर हुए। उन्होंने साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नींव रखी।
के सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर इसी नाम से फिल्म बनायी जिसमें सुब्बा लक्ष्मी ने मुख्य भूमिका अदा की थी।
‘शतरंज के खिलाड़ी’ को मिली पहली सफलता
प्रेमचंद के उपन्यास या कहानी पर बनी किसी फिल्म ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के रूप में सफलता का मुंह देखा। निर्देशक सत्यजित रे ने 1977 में इसका निर्माण किया था। शतरंज के खिलाड़ी को तीन ‘फिल्मफेयर’ के अलावा 1978 में बर्लिन महोत्सव में ‘गोल्डन बीयर’ अवार्ड मिला। उपन्यास में कहानी 1856 के अवध नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के ईद-गिर्द घूमती है। दोनों अमीर शतरंज खेलने में इतने मशगूल हैं कि उन्हें अपने राज और परिवार की भी फिक्र नहीं है। अंग्रेजों की सेना अवध पर चढाई करती है। फिल्म का अंत अंग्रेजों के अवध पर आधिपत्य से होता है जिसमें दोनों शतरंज पुराने देशी अंदाज की बजाय अंग्रेजी शैली में खेलने लगते हैं जिसमें राजा एक-दूसरे के सामने नहीं होता।
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सिनेमा के रूप में रास नहीं आया साहित्य!
सत्यजित रे ने 1981 में ‘सदगति’ का भी निर्माण किया। यह सवाल बार-बार उठाया जाता है कि जिस प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों ने पाठकों को झकझोरा उस पर बनी फिल्में दर्शकों को पसंद क्यों नहीं आई?
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सिनेमा और साहित्य अलग-अलग विधा है लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध काफी गहरा है। जब कहानी पर आधारित फिल्मों की शुरुआत हुई तो इसका आधार साहित्य ही बना। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नाटक हरिश्चन्द्र पर दादा साहब फाल्के ने इसी नाम से फिल्म बना दी लेकिन उसका हश्र कुछ ऐसा हुआ कि निर्माता हिन्दी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से गुरेज करने लगे। कहानी या उपन्यास में बाजार की भूमिका नहीं होती लेकिन सिनेमा में बाजार का तत्व हावी होता है।