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कृषि बिल 2020: कैसे तय होते हैं कृषि उत्पादों के दाम, एमएसपी के बारे में जानें ये सच

न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी किसानों से उनका उत्पाद खरीदने के लिए सरकार द्वारा तय की गई कीमत है। इसका उद्देश्य किसानों के लिए उनकी उपज का एक न्यूनतम लाभ सुनिश्चित करना है जिससे उन्हें अपने उत्पाद को लागत से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर ना होना पड़े।

Newstrack
Published on: 3 Oct 2020 4:54 PM IST
कृषि बिल 2020:  कैसे तय होते हैं कृषि उत्पादों के दाम, एमएसपी के बारे में जानें ये सच
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कृषि बिल 2020: कैसे तय होते हैं कृषि उत्पादों के दाम, एमएसपी के बारे में जानें ये सच

नील मणि लाल

नई दिल्ली: केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ हो रहे विरोध के पीछे किसानों को यह डर है कि इनसे एमएसपी की व्यवस्था का अंत हो जाएगा। जबकि सरकार का दावा है कि नए कानूनों से एमएसपी की व्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

दरअसल, न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी किसानों से उनका उत्पाद खरीदने के लिए सरकार द्वारा तय की गई कीमत है। इसका उद्देश्य किसानों के लिए उनकी उपज का एक न्यूनतम लाभ सुनिश्चित करना है जिससे उन्हें अपने उत्पाद को लागत से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर ना होना पड़े।

23 आइटम्स के लिए तय होते हैं न्यूनतम दाम

भारत सरकार 23 कृषि उत्पादों के लिए साल में दो बार एमएसपी तय करती है। इनमें सात अनाज (धान, गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी), पांच दालें (चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर), सात तिलहन और चार व्यावसायिक फसलें (कपास, गन्ना, नारियल और जूट) शामिल हैं। एमएसपी कृषि मंत्रालय की एक समिति सीएसीपी तय करती है जिसका गठन 1965 में हुआ था और इसने पहली बार 1966-67 में हरित क्रांति के दौरान गेहूं का एमएसपी तय किया था।

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एमएसपी का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं

ये बात सही है कि एमएसपी का कोई वैधानिक आधार नहीं है। ना तो सीएसीपी किसी कानून के तहत बनी थी और ना ही एमएसपी किसी कानून के तहत दी जाती है। फिर भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्ता को देखते हुए इसे दशकों से हर सरकार ने एक प्रथा की तरह कायम रखा है। प्रोफेसर एमएस स्वामिनाथन की अध्यक्षता में किसानों के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने प्रस्ताव दिया था कि एमएसपी उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत ज्यादा होना चाहिए।

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कैसे तय होता है सरकारी दाम

दाम तय करते समय सीएसीपी जिन बातों का ध्यान रखती है उनमें 2009 में संशोधन किया गया था। इनमें मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों की प्रवृत्ति, अलग अलग फसलों के बीच दाम की समानता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें, उत्पादन लागत के ऊपर से न्यूनतम 50 प्रतिशत मुनाफा, और एमएसपी का उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर संभावित असर शामिल हैं। दाम तय करने से पहले सीएसीपी केंद्रीय मंत्रालयों, एफसीआई, नाफेड जैसे सरकारी संस्थानों, सभी राज्य सरकारों, अलग अलग राज्यों के किसानों और विक्रेताओं के साथ बैठक करती है और बातचीत करती है।

इन सबके आधार पर समिति कीमतों की अनुशंसा करती है और सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजती है। उसके बाद आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) एमएसपी पर अंतिम निर्णय लेती है। हालांकि अक्सर अपनी फसल के लिए सही दामों को लेकर किसानों की अपेक्षा और सरकार द्वारा तय की गई एमएसपी में फासला रह जाता है। बरसों से इस फासले को कम करने की कोशिशें भी होती रही हैं। पिछले एक दशक से भी ज्यादा से एमएसपी तय करने के लिए एक नई परिभाषा का ही इस्तेमाल किया जा रहा है और उसमें उसके कुल मूल्य का 50 प्रतिशत और जोड़ कर एमएसपी तय की जा रही है।

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क्या होती है उत्पादन की लागत

उत्पादन की सही लागत के मूल्यांकन को लेकर भी मतभेद बना रहता है। किस किस तरह के खर्च को उत्पादन की लागत में शामिल किया जा रहा है एक बड़ा सवाल है। सीएसीपी के अनुसार लागत की तीन परिभाषाएं हैं - एटू, एटू+ एफेल और सीटू। एटू यानी बीज, केमिकल्स, भाड़े पर कराया गया श्रम, सिंचाई, खाद और ईंधन जैसी चीजों पर नकद और किसी वस्तु के रूप में किया गया हर तरह का खर्च।

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एटू+ एफेल यानी ये सारा खर्च और उसके अलावा किसान के परिवार के सदस्यों द्वारा किए गए श्रम का मूल्य। सीटू का मतलब इन दोनों श्रेणियों में हिसाब में लिया गया सारा खर्च और उसके अलावा लीज पर ली गई जमीन का किराया और उस किराए पर ब्याज। इनमें एटू का मूल्य सबसे कम है, एटू+ एफेल का उससे ज्यादा है और सीटू का सबसे ज्यादा है। पिछले एक दशक से भी ज्यादा से एमएसपी तय करने के लिए एटू+ एफेल वाली परिभाषा का ही इस्तेमाल किया जा रहा है और उसमें उसके कुल मूल्य का 50 प्रतिशत और जोड़ कर एमएसपी तय की जा रही है।

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किसान संगठन और कृषि एक्टिविस्ट लंबे समय से एमएसपी को सीटू+ 50 प्रतिशत करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन अब इन नए कृषि कानूनों की वजह से यह सारी बहस ही निराधार हो जाएगी, क्योंकि जब निजी खरीददार किसानों से उत्पादों को सरकारी मंडियों के बाहर भी खरीद सकेंगे तो खरीद एमएसपी से नीचे के दाम पर ना हो सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर पाएगी। इसलिए किसान डरे हुए हैं और मांग कर रहे हैं कि सरकार एमएसपी को कानूनी रूप से अनिवार्य कर दे।



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