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Festival : होली में घुला वीरता और पौरुष का चटख रंग
दुर्गेश पार्थसारथी
अमृतसर। होली यानी मस्ती और रंगों का मौसम। यूपी और बिहार में तो एक दूसरे को पकड़-पकड़ कर, पटक-पकट कर रंग लगाना, कपड़ा फाड़ होली खेली जाती है। लेकिन पंजाब के श्रीआनंदपुर साहिब की होली इन सबसे अलग है। यहां रंगों के साथ शौर्य एवं पराक्रम की होली खेली जाती है। जंग लड़ी जाती है, म्यान से तलवारें निकलती हैं, हवा से बातें करते गुरु की फौज के घोड़े दौड़ते हैं, शमशीरें चमकती हैं, लेकिन रक्त का एक कतरा तक नहीं बहता। यह उत्सव छह दिनों तक चलता है। इसे होली नहीं, होला मोहल्ला कहते हैं।
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गुरु गोबिंद सिंह जी ने शुरू किया था होला मोहल्ला
आनंदपुर सहिब की होली को जांबाजों की होली कहते हैं। इसमें वीरता और पौरुष का चटख रंग मिला होता है। जो रग-रग में उत्साह भर देता है। जांबाजी और श्रद्धा का ऐसा रंग जो तन-मन को सराबोर कर दे। खालसा पंथ की स्-थापना करने के बाद सिखों के दशवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने 1757 र्इंस्वी चैत्र बदी एक्कम यानी होली के अगले दिन होला मोहल्ला त्योहार मनाना शुरू किया। यहां होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए गुरु गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द 'होला मोहल्ला ' का प्रयोग किया। आनंदपुर साहिब में लोहगढ़ नाम का एक स्थान है। बताया जाता है कि इसी स्थान पर उन्होंने होला मोहल्ला का शुभारंभ किया था। भाई काहन सिंह नाभा 'गुरमति प्रभाकर ' में उल्लेख करते हैं कि होला मोहल्ला एक बनावटी युद्ध होता है, जिसमें पैदल और घुड़सवार शस्त्रधार सिंह (निहंग) एक निश्चित स्थान पर हमला करते हैं। 'कलगीघर चमत्कार ' में भाई वीर सिंह लिखते हैं कि मोहल्ला शब्द का अर्थ 'मय हल्ला ' है। मय का भाव 'बनावटी ' और हल्ला का भाव है 'हमला '।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की ओर से होला मोहल्ला शुरू किए जाने से पहले बाकी गुरु साहिबान के समय में एक दूसरे पर फूल और गुलाल फेंक कर होली मनाई जाती थी। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने होली को होला मोहल्ला में बदल दिया। 1757 में दशम पातशाह ने एक दल को सफेद और दूसरे को केसरिया वस्त्र पहनाया। इसके बाद उन्होंने होलगढ़ पर एक गुट को काबिज करके दूसरे गुट को उन पर हमला कर उसे मुक्त करवाने के लिए कहा। लेकिन इस बनावटी युद्ध में तीर, तलवार या बरछा चलाने की मनाही थी। अंत में केसरिया गुट ने होलगढ़ पर कब्जा पा लिया। गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों यह रण कौशल देख बहुत प्रसन्न हुए और हलवा का प्रसाद बना कर सबको खिलाया। तब से यह परंपरा चली आ रही है। अपनी इसी खासियत के चलते श्री आनंदपुर सहिब का यह होला मोहल्ला पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान रखता है।
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होला मोहल्ला के बारे में कवि निहाल सिंह लिखते हैं
बरछा ढाल कटारा तेगा, कड़छा देगा गोला है।
छका प्रसाद सजा दस्तारा, और करदौना टोला है।
सुभट सुचाला और लखबांहा, कलगा सिंह सू चोला है। अपर मुछहिरा दाड़ा जैसे तैसे बोला होता है।
अरदास के बाद शुरू होता है मेला
पांच प्यारे श्री केसगढ़ साहिब में होला मोहल्ला का अरदस कर किला आनंदगढ़ साहिब पहुंचते है। वहां निहंग सिंह शस्त्रों से लैस हो कर हाथियों और घोड़ों पर सवार हो कर एक दूसरे पर अबीर-गुलाल फेंकते हुए तुरही और नगाड़े बजाते हुए किला लोहगढ़, माता जीतो जी का दोहुरा से होते हुए चरण गंगा के मंदान में पहुंचते हैं। यहां निहंग सिंह घोड़ों पर सवार हो कई तरह के हैरतअंगेज करतब और गतके का करतब यानी मॉर्शल आर्ट दिखाते हैं। अंत में श्री आनंदपुर साहिब में स्थित अन्य गुरुद्वारा साहिब की यात्रा करते हुए केशगढ़ साहिब पहुंच कर संपन्न होता है।
छह दिनों तक चलता है मेला
होली के एक दिन बाद शुरू हुआ होला मोहल्ला का मेला छह दिन तक चलता है। इस मेले में निहंग सिंहों और घोड़ों के करतब देखने के लिए देश-दुनिया से लोग पहुंचते हैं। हिमाचल की सीमा पर बसे श्री आनंदपुर सहिब की स्थापना श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने की थी। सिख धर्म का यह महत्वपूर्ण व पवित्र एवं सिख इतिहास का महत्वपूर्ण स्थल है।
कहां है आनन्दपुर साहिब
आनंदपुर साहिब हिमालय पर्वत श्रृंखला के निचले इलाके में बसा है। इसे 'होली सिटी ऑफ ब्लिस' के नाम से भी जाना जाता है। इस शहर की स्थापना 9वें सिक्ख गुरु, गुरु तेग बहादुर ने की थी। श्री आनंदपुर साहिब सबसे नजीदी की अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा अमृतसर और चंड़ीगढ़ है। यहां दिल्ली से यूएचएल जनशताब्दी और अन्य रेलगाडिय़ों से पहुंचा जा सकता है। अमृतसर से भी ट्रेन या बस से पहुंचा जा सकता है। यहां श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए उत्तम व्यवस्था है। ठहने के लिए गुरुद्वारा साहिब की सरायं, धर्मशाला और कई होटल हैं। यहां यात्री अपनी सुविधानुसार ठहर सकते हैं।