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एक ऐसा संन्यासी: जिसने हिला दी दुनिया, क्या आप जानते हैं ओशो के बारे में

ओशो या भगवान रजनीश या आचार्य रजनीश के बारे में नेटफ्लिक्स ने एक वेब सीरेज़ बनाई है - वाइल्ड वाइल्ड कंट्री। इसमें रजनीश के पुणे के कोरेगांव स्थित कम्यून से अमेरिका के ओरेगॉन में बसाए जाने वाले मिनी शहर और फिर अमेरिका से रजनीश को निकाले जाने और अंतत: उनकी मृत्यु तक की कहानी है।

Newstrack
Published on: 11 Dec 2020 9:30 AM GMT
एक ऐसा संन्यासी: जिसने हिला दी दुनिया, क्या आप जानते हैं ओशो के बारे में
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एक ऐसा संन्यासी: जिसने हिला दी दुनिया, क्या आप जानते हैं ओशो के बारे में (PC: Social media)

लखनऊ: भारत में एक से बढ़कर एक संन्यासी और धार्मिक गुरू हुए हैं और इनमें से एक रहे हैं आचार्य रजनीश या ओशो। उनका जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में हुआ था। ओशो एक ऐसे विचारक या संन्यासी रहे, जो हमेशा विवादों में रहे।

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भगवान की वाइल्ड वाइल्ड कंट्री

ओशो या भगवान रजनीश या आचार्य रजनीश के बारे में नेटफ्लिक्स ने एक वेब सीरेज़ बनाई है - वाइल्ड वाइल्ड कंट्री। इसमें रजनीश के पुणे के कोरेगांव स्थित कम्यून से अमेरिका के ओरेगॉन में बसाए जाने वाले मिनी शहर और फिर अमेरिका से रजनीश को निकाले जाने और अंतत: उनकी मृत्यु तक की कहानी है।

यह सीरीज दर्शकों को अमेरिकी इतिहास के उस उथल-पुथल के दौर की यात्रा कराती है जिसे अब सब भुल चुके हैं। सात घंटों और ६ एपिसोड वाली यह डाक्यूमेंट्री एक धमाकदेार हिट साबित हुई है।

रजनीश के जीवन के बारे में लिखा तो बहुत गया है

वाइल्ड वाइल्ड कंट्री बताती है कि किस तरह ८० के शुरुआती दशक में रजनीश अमेरिका आए और रजनीशपुरम नामक एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय बनाने के उद्देश्य से ६५ हजार एकड़ जमीन खरीदी। रजनीश के जीवन के बारे में लिखा तो बहुत गया है, लेकिन 1981 से ८५ तक के रजनीशपुरम की गाथा कभी खुलकर सामने नहीं आयी।

रजनीश मध्य प्रदेश के थे और बहुत बढिय़ा वाचक थे। १९७० में वे मुंबई चले गये जहां उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई और रजनीश का आध्यात्मिक दायरा फैलता ही गया। चार साल बाद वे पुणे चले गये और वहां कोरेगांव में एक आश्रम स्थापित किया। पुणे में उनका भारी विरोध हुआ क्योंकि लोगों को फिरंगियों की घुसपैठ एकदम नहीं भा रही थी।

कोरेगांव पार्क

पुणे के हरेभरे कोरेगांव पार्क इलाके में है ओशो मेडीटेशन रिजार्ट। विशालकाय क्षेत्र में फैले इस रिजार्ट के गेट भी विशालकाय हैं। गेट से भीतर जाने पर सुन्दर, शांत, हरा-भरा नजारा दिखता है। खूबसूरत बगीचे, बांस के झुरमुट से घिरे पाथवे, मखमली घास पर टहलते मोर और मैरून रंग का लबादा पहने संन्यासी यहां-वहां घूमते दिखते हैं। पुणे में रजनीश आश्रम मार्च १९७४ में स्थापित हुआ था। अगले सात साल तक इसपर तरह-तरह के आरोप लगते रहे क्योंकि ‘पेंशनरों’ के शहर पुणे को इस तरह की स्वच्छंदता बर्दाश्त नहीं थी। ये वो दिन थे जब भगवान श्री रजनीश मुक्त प्यार का संदेश प्रचारित कर रहे थे और ये संदेश उनके अनुयायियों के व्यवहार में खुलकर झलकता था।

osho osho (PC: Social media)

कम्यून में अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी

कम्यून में अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। इनमें भी ज्यादातर विदेशी थी। इसी अनुपात में इनका विरोध भी बढऩे लगा। हालांकि इस विरोध का कोई असर नहीं पड़ रहा था, लेकिन २२ मार्च १९८० को एक कट्टïरपंथी संगठन के सदस्य ने रजनीश पर जानलेवा हमला किया। इसके बाद रजनीश ने एक बड़ा फैसला लिया।

उन्होंने अपनी एक बेहद विश्वसनीय सहयोगी मां आनंद शीला को कम्यून के लिये एक नयी जगह ढूंढने की जिम्मेदारी सौंपी। मां आंद शीला ने अमेरिका के ओरेगॉन प्रांत को चुना और १ जून १९८१ को अपने आखिरी सत्संग के बाद रजनीश पांच कारों के काफिले के साथ कम्यून से बाहर निकलकर सीधे पुणे एयरपोर्ट पहुंचे जहां एक जम्बो जेट उनके इंतजार में तैयार खड़ा था। इस जेट के ऊपरी डेक की सभी ४० सीटें रजनीश के लिए रिजर्व थीं।

मां आनंद शीला

रजनीश की सबसे करीबी और भरोसेमंद सहयोगी थी मां आनंद शीला जिनका असली नाम था शीला अम्बालाल पटेल। बड़ौदा में जन्मी शीला १८ साल की उम्र में आगे की पढ़ाई के लिये अमेरिका चली गयी थीं। १९७२ में शीला और उसका पति आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने के लिये भारत आए और रजनीश के अनुयायी हो गए। पति के निधन के बाद शीला ने अपने आप को पूरी तरह कम्यून के काम में रमा लिया। १९८० में शीला रजनीश की सेक्रेटरी बन गयी।

ओरेगॉन, एन्टलोप

भगवान श्री रजनीश का आंदोलन अब अपने अगले और सबसे विवादास्पद चरण में पहुंच गया था। मैरून रंग का लबादा पहने संन्यासियों की भीड़ ओरेगॉन के वास्को काउंटी में ६४ हजार एकड़ के बिग मडी रैंच में पहुंचती है। ये रैंच मां शीला ने ५।७५ मिलियन डॉलर में खरीदा है। कम्यून बसाने का काम शुरू होता है। सभी संन्यासियों को अलग-अलग काम की जिम्मेदारी दी जाती है। मकान बनाने से रसोई संभालने तक का काम।

अब बाली में बस गयीं ७० वर्षीय मां भगवती या इवलीन मॉरिस उन दिनों की याद करके बताती हैं - वहां सब लोग व्यस्त रहते थे। जिसको जो काम दिया जाता था वह किसी भी क्षण बदल भी दिया जा सकता था। हम नए नए हुनर सीख रहे थे। मुझे टैक्सी चलाने का काम दिया गया था। इसके अलावा मैंने विजिटर्स सेंटर के प्रेस रिलेशंस विभाग में भी लंबे समय तक काम किया।मैं रजनीश की शरण में कैसे आयी इसकी भी एक अलग कहानी है।

एक दिन ध्यान लगाते समय मुझे अचानक दिखा कि रजनीश मुझे देख रहे हैं

1976 में मैं जर्मनी में रह रही थी। एक दिन ध्यान लगाते समय मुझे अचानक दिखा कि रजनीश मुझे देख रहे हैं। इसके पहले मैंने सिर्फ एक किताब के कवर पर उनकी फोटो देखी थी। मैं समझ गयी कि मुझे इस शख्स से मिलना होगा। मैंने उन्हें पत्र लिखा। पुणे से मेरे पास जवाब आया। उन्होंने मुझे एक नया नाम दिया था। ६ हफ्ते बाद मैं पुणे चली गयी। वहां से फिर ओरेगॉन।

पुणे के आश्रम के पूर्व प्रवक्ता स्वामी चैतन्य कीर्ति या नारायण दास अब नयी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ओशो वर्ल्ड के संपादक हैं और ओशोधाम में रहते हैं। वे बताते हैं जब मैं रजनीशपुरम पहुंचा तब वहां करीब ५० लोग थे। मैं वहां दो साल रहा और मेरा काम नवांगतुकों के लिये घर बनाना था। १९८३ में मैं यूरोप चला गया फिर दिसंबर १९८४ में ओरेगॉन वापस लौट आया।रजनीशपुरम में जब रजनीश अपनी कार से निकलते थे तो हम उन्हें देख कर गान-नाचने लगते थे।

तेजी से फैला कम्यून

ओरेगॉन का बिग मडी रैंच अब रजनीशपुरम था। ये बहुत तेजी से फैल रहा था। इसके अपने फायरब्रिगेड और पुलिस विभाग थे। स्कूल, शॉपिंग मॉल और हवाईपट्टी थी। दूसरी ओर इतनी तेजी से रजनीशपुरम का विरोध भी बढ़ता जा रहा था। जिस जगह पर रजनीशपुरम बसाया गया था वह एन्टलोप नगर के अधिकारक्षेत्र में आता था। मात्र ४० लोगों की आबादी वाले एन्टलोप नगर के लोगों को ये कम्यून और इसकी गतिविधियां एकदम नहीं सुहा रही थीं।

एन्टलोप की मेयर मार्गरेट हिल को तो कम्यून से नफरत ही थी। हिल ने ओरेगॉन से कम्यून को डटवाने के लिये सरकारी एजेंसियों में कसकर लॉबिंग शुरू कर दी। बात तब बिगड़ी जब रजनीश के अनुयायियों ने स्थानीय सरकार पर कब्जा जमाने की कोशिश करनी शुरू कर दी। एन्टलोप से शुरू हुआ विरोध अंत में जाकर अमेरिकी सरकार से टकराव के रूप में सामने आया।

बमबाजी से बढ़ा गुस्सा

१९८३ में एक ऐसी घटना हुई जिससे स्थानीय लोगों में कम्यून और रजनीश के प्रति गुस्सा और भी बढ़ गया। हुआ ये कि पोर्टलैंड शहर स्थित होटल रजनीश में एक बम धमाका हुआ। जो नुकसान हुआ सो हुआ, लेकिन कम्यून ने अपनी रक्षा के लिये बढ़ चढक़र तैयारी शुरू कर दी। कम्यून के पास सौ से ज्यादा सेमी ऑटोमेटिक रायफलें जमा हो गयीं।

इतनी रायफलें तो पूरे ओरेगॉन प्रांत की पुलिस के पास भी नहीं थीं। ये वो दौर था जब कम्यून का पूरा चार्ज मां आनंद शीला के हाथों में था। सिर्फ शीला ही हर शाम रजनीश से मिलती और बात करती थी और उनके संदेश भक्तों तक पहुंचाती थीं। असल में १९८१ में अमेरिका पहुंचने के बाद से ही रजनीश ने मौन व्रत धारण कर लिया था। ये मौन व्रत अक्टूबर १९८४ में टूटा जब रजनीश ने एक प्रेस कांफ्रेंस की।

विरोध और सुरक्षा

एन्टलोप के निवासियों का विरोध बढ़ता जा रहा था क्योंकि उन्हें अपने आसपास स्वच्छंद प्रेम का ये माहौल एकदम पसंद नहीं था। रजनीश मौन व्रत लिये हुए थे। सो अनुयायियों के सामने थी सिर्फ मां आनंद शीला। स्वामी चैतन्य कीर्ति के शब्दों में ‘मां आनंद शीला बेहद कार्यकुशल होने के अलावा हम सभी को सुरक्षा का कवच देनेवाली थीं।

शीला ने कम्यून की सुरक्षा के लिये हर उपाय किये। संन्यासियों को हथियारबंद किया गया। लेकिन साथ ही कम्यून को गलत दिशा में भी घसीट डाला। रजनीश के कमरों समेत रैंच में जासूसी उपकरण लगाये गये। दूसरे शहरों से बटोर कर लाये गये बेघर लोगों को नशे की दवायें दी गयीं, एन्टलोप में सामूहिक फूड प्वाइजनिंग कराई गयी। यही नहीं, मां आनंद शीला ने रजनीश के फिजीशियन प्रेम अमृतो पर चाकू से हमले की योजना तक बनायी।

प्रेम अमृतो भी महत्वपूर्ण किरदार

प्रेम अमृतो ने १९८१ से ८४ तक चार साल रजनीशपुरम में बिताये। प्रेम अमृतो एक ब्रिटिश डॉक्टर हैं जो पुणे और ओरेगॉन में रजनीश के निजी फिजीशियन रहे। १९ जनवरी १९९० को रजनीश के निधन के वक्त प्रेम अमृतो ही मौजूद थे। पुणे के आश्रम में रह रहे प्रेम अमृतो रजनीशपुरम के काले दिनों की याद करते हुए कहते हैं, फिल्म में दिखाई घटना से एक साल पहले भी उन लोगों ने मेरे खिलाफ एक प्रयास किया था। अमृतो पर भी कम आरोप नहीं लगे। उन्होंने रजनीश की मृत्यु के बाद उनके डेथ सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। इसके अलावा उन्होंने अपना नाम डॉ। जार्ज मेरेडिथ से डॉ। जॉन एन्ड्रूज़ से स्वामी देवराज से अमृतो तक बदले थे।

रजनीशपुरम पीस फोर्स

२०१० में ‘पास्ट दि प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न’ किताब लिखने वाली मां भगवती या इवलीन मॉरिस ने रजनीशपुरम में चार साल बिताये थे। उनके शब्दों में ‘मैं १९८२ में ओरेगॉन आयी थी। हम सब कम्यून बनाने में लगे थे, लेकिन ओरेगॉन के निवासियों और विभिन्न राजनीतिज्ञों के दबावों के कारण हम रजनीशपुरम पीस फोर्स बनाने के लिये मजबूर हो गए। हथियार तो बहुत बाद में आए थे। बर्कले यूनीवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर और ओशो मल्टीवर्सिटी के पूर्व चांसलर स्वामी सत्य वेदांत कहते हैं, ‘एक भी गोली नहीं चलायी गयी और कोई व्यक्ति मारा नहीं गया। अपने आप को हथियार से लैस करना सिर्फ आत्म रक्षा की कार्रवाई थी।

बेघर लोगों की फौज

ओरेगॉन स्थित आश्रम में में न्यूयार्क से बेघर लोगों को बसों में भर-भर कर लाया जाता था। उद्देश्य था इन लोगों को सम्मानजनक जीवन देना, लेकिन ये सब संभावित वोटर भी थे जिनका इस्तेमाल लोकल चुनाव में रजनीशपुरम के फायदे के लिये किया जाना था।

गिरफ्तारी और देश निकाला

रजनीशपुरम में जब स्थितियां हाथ से बाहर जाने लगीं तो सितम्बर १९८५ में मां आनंद शीला और उसके साथी यूरोप भाग गये। इसके बाद रजनीश ने अपना मौन व्रत तोड़ते हुए एक प्रेस कांफ्रेंस की जिसमें उन्होंने शीला और उसके साथियों को ‘फासिस्टों का गिरोह’ करार दिया। रजनीश ने इन लोगों पर आगजनी, जासूसी, सामूहिक जहरखुरानी और हत्या के प्रयास का आरोप लगाया। उन्होंने यह भी दावा किया कि शीला ५५ लाख डॉलर लेकर भाग गयी है।

२३ अक्टृबर १९८५ को एक फेडरल ग्रांड ज्यूरी ने रजनीश और कई अन्य भक्तों पर इमिग्रेशन कानून के उल्लंघन का षडयंत्र रचने का अभियोग लगाया जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार करके १० साल जेल की सजा सुनायी गयी। १७ नवंबर को रजनीश को अमेरिका से भारत भेज दिया गया। जनवरी १९८७ में रजनीश ने फिर पुणे में अपना कम्यून जमाया। अब उन्होंने अपना नाम ‘ओशो’ कर लिया था।

मां शीला की गिरफ्तारी

अक्टूबर १९८६ में शीला जर्मनी में गिरफ्तार की गयीं और अमेरिका भेज दी गयीं। वहां उसे २० साल की जेल की सजा सुनायी गयी। लेकिन २९ महीने बाद शीला को अच्छे व्यवहार के कारण क्षमादान मिल गया। शीला ने १९८४ में ही एक स्विस नागरिक से शादी कर ली थी जो ज्यूरिख में रजनीश कम्यून संचालित करता था। जेल की सजा काटने के दौरान ही शीला के पति का निधन हो गया। जेल से निकलने के बाद शीला जिनीवा चली गयी।

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स्विटजरलैंड में आश्रम

६८ वर्षीय शीला अब स्विट्जरलैंड के मैस्प्रा नामक कस्बे में रहती हैं। यहां शीला अशक्तों के लिये मातृसदन और बापूसदन नामक आश्रम चलाती हैं। शीला कहती हैं, ‘भगवान और उनके लोगों और ओरेगॉन सरकार ने मेरा पूरी तरह चरित्र हनन किया। लेकिन वह ये भी कहती हैं, भगवान जैसे व्यक्ति के साथ निकटता मेरे लिये सम्मान की बात थी। उनका मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव रहा है।

रिपोर्ट- नीलमणि लाल

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