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जयशंकर प्रसादः सुंघनी साहू के खानदान का चिराग, बन गया दो युग
जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को उत्तरप्रदेश वाराणसी के काशी में हुआ था। इनके दादा जी का नाम शिव रतन साहू तथा पिता जी का नाम देवीप्रसाद था और बड़े भाई का नाम शंभू रत्न था।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ: छायावाद के प्रवर्तक व चार प्रमुख स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद की आज जयंती है। बनारस के सुंघनी साहू के परिवार का ये लाल हिन्दी साहित्य जगत का चमकता सितारा बना जिसने अपनी प्रतिभा के कौशल से हिन्दी साहित्य जगत को छायावाद जैसे युग को दिया जिसे प्रसाद युग भी कहा गया।
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जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को उत्तरप्रदेश वाराणसी के काशी में हुआ था
छायावाद युग के अन्य रचनाकारों में सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा अन्य कवियों में डॉ.रामकुमार वर्मा, जानकी वल्लभ शास्त्री, हरिकृष्ण 'प्रेमी', उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम लिये जाते हैं।
जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को उत्तरप्रदेश वाराणसी के काशी में हुआ था। इनके दादा जी का नाम शिव रतन साहू तथा पिता जी का नाम देवीप्रसाद था और बड़े भाई का नाम शंभू रत्न था।
Jai Shankar Prasad (PC: social media)
पिता की मृत्यु के बाद तंबाकू के व्यापार को संभाल रहे थे
इनके परिवार में तंबाकू का व्यापार हुआ करता था, जिस कारण इनका परिवार काशी में सुंघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध था। बचपन में ही जयशंकर प्रसाद के सिर से माता-पिता का साया उठ गया। इनका लालन पालन बड़े भाई शंभू रतन ने किया जो पिता की मृत्यु के बाद तंबाकू के व्यापार को संभाल रहे थे। बड़े भाई की इच्छा थी कि उनका भाई खूब पढ़े लिखे इसलिए इनका दाखिला बनारस के क्वीस कॉलेज में कराया। लेकिन प्रसाद का मन यहां नही लगा। इसके बाद इनके बड़े भाई ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही कर दिया। इस तरह इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई।
घर पर रहकर जयशंकर प्रसाद ने संस्कृत के साथ ही साथ इन्होने अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा फारसी का भी गहन अध्ययन किया। इन्होने वेद, पुराण, इतिहास तथा साहित्य शास्त्र का भी गहन अध्ययन किया। लेकिन इनका मन हिन्दी साहित्य की पुस्तकों में लगता था।
सरस्वती के इस वरद पुत्र की काव्य प्रतिभा बचपन में ही जागृत हो गई थी
सरस्वती के इस वरद पुत्र की काव्य प्रतिभा बचपन में ही जागृत हो गई थी। मात्र 9 वर्ष की अवस्था में प्रसाद ने अपने गुरू 'रसमय सिद्ध' को ब्रज भाषा में 'कलाधर' नाम से एक सवैया लिखकर दिखाया था। प्रसाद के बड़े भाई इनकी काव्य रचना से खुश नहीं थे क्योंकि वह चाहते थे कि उनका भाई पैतृक व्यवसाय का कार्य संभाल ले। परंतु जयशंकर प्रसाद का मन जब कारोबार में नहीं लगा तो उन्होंने अपने भाई को कारोबार से पूरी छूट दे दी।
भाई के फैसले से जयशंकर प्रसाद को पूरी छूट मिल गई और वह काव्य एवं साहित्य रचना के क्षेत्र में आगे बढ़ने लगे। लेकिन इसी बीच इनके बड़े भाई शंभू रतन का भी स्वर्गवास हो गया। यह जयशंकर प्रसाद के लिए बहुत बड़ा झटका था। क्योंकि व्यापार करना इन्हें आता नहीं था। इसलिए इनका व्यापार धीरे धीरे समाप्त हो गया।
भाई ने व्यापार बढ़ाने के लिए कर्जा लिया हुआ था
इनके भाई ने व्यापार बढ़ाने के लिए कर्जा लिया हुआ था, उनके न रहने पर लोगों ने जयशंकर प्रसाद से अपना उधार मांगना शुरू कर दिया। जिस पर स्वाभिमानी जयशंकर प्रसाद ने अपनी पैतृक संपत्ति को बेच कर कर्ज चुकाया। और साहित्य साधना में पूरी तरह समर्पित हो गए।
इसके बाद जयशंकर प्रसाद ने 'आंसू', 'कामायनी', 'चित्राधार', लहर, और झरना जैसी रचनाओं से हिंदी साहित्य के काव्य विधा को समृद्ध किया तथा 'आंधी', 'इंद्रजाल', 'छाया', 'प्रतिध्वनी' आदि कहानियां भी लिखी, और इसके साथ ही साथ 'कंकाल', 'तितली' और इरावती जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों की भी रचना की। जयशंकर प्रसाद ने 'सज्जन', 'जनमेजय का नाग यज्ञ', 'चंद्रगुप्त', 'स्कंद गुप्त', 'अजातशत्रु', 'प्रायश्चित' आदि नाटकों की रचना कर हिंदी साहित्य की नाटक विधा को अलंकृत किया। नाटक के क्षेत्र में इन्होंने अनेक नए-नए प्रयोग किए और इनके इन्हीं नए प्रयोगों के परिणाम स्वरुप ही नाटक विधा में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसे 'प्रसाद युग' कहा गया।
महाकाव्य की रचना कर हिंदी साहित्य को अमरत्व प्रदान कर दिया
जयशंकर प्रसाद छायावाद युग के प्रवर्तक माने गए हैं। इनकी कविताओं में लाक्षणिकता, नूतन प्रतीक विधान, चित्रमयता, मधुरता, व्यंग्यात्मकता, सरसता आदि गुण मिलते हैं। इन्होंने 'कामायनी' जैसे महाकाव्य की रचना कर हिंदी साहित्य को अमरत्व प्रदान कर दिया। इसके अलावा चित्राधार(ब्रज भाषा में रचित कविताएं); कानन-कुसुम; महाराणा का महत्त्व, चंद्रगुप्त, अजातशत्रु, करुणालय; आंसू; लहर; झरना आदि प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
Jai Shankar Prasad (PC: social media)
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लेकिन सरस्वती का यह मानस पुत्र अपने जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों में अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख सका। जिसके चलते उस समय के असाध्य क्षय रोग से ग्रसित हो गए और मात्र 48 वर्ष की अवस्था में 15 नवंबर 1937 को इन्होंने इस दुनिया से विदा ले ली।
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