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नेपाल सीमा पर थारू गांवों में मना दशहरा त्योहार, हुड़दुंगवा की धूम

थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं व हिन्दू धर्म के सभी त्योहारों और रीति-रिवाज, पहनावा, लोक नृत्य, गायन, परम्परागत ढंग से करते हैं। ये अपने सभी त्योहार मिलकर गांव के सभी लोग एकत्रित होकर समवेत नृत्य व गायन के साथ मनाते हैं।

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Published on: 26 Oct 2020 5:42 PM IST
नेपाल सीमा पर थारू गांवों में मना दशहरा त्योहार, हुड़दुंगवा की धूम
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नेपाल सीमा पर थारू गांवों में मना दशहरा त्योहार, हुड़दुंगवा की धूम (Photo by social media)

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: भारत देश और विश्व में अनेक आदिवासी जनजातियां हैं, जिनकी अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता होती है। उनके त्योहार और मनोरंजन के लिए उनके अलग लोक नृत्य और संगीत भी हैं। ऐसे ही देवी पाटन मंडल के बलरामपुर, बहराइच और श्रावस्ती के निकट हिमालय की तलहटी में बसे थारू समाज में दशया (दशहरा) की परम्परा औरों से अलग और अनूठी है। यहां एक माह तक दशहरा का पर्व मनाया जाता है। थारु समाज के लोग घरों में जेवरा (मक्के के कोपलों का समूह) लगाते हैं उसका पूजन करते हैं तथा महिलाओं के हुड़दुंगवा लोक नृत्य का आनंद लेते हैं। मंडल के सैकड़ों गांवों समेत नेपाल के दर्जनों थारू बाहुल्य गांवों में इन दिनों दशया त्यौहार, हुड़दुंगवा नृत्य की धूम देखी जा रही है।

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हिन्दू धर्म को मानती है थारु जनजाति

भारत-नेपाल सीमा से सटे नेपाल, भारत के सैकड़ों गांवों और में तराई क्षेत्र में घने जंगलों के बीच थारू जनजातियों का निवास है। उत्तर प्रदेश के पूर्व में गोरखपुर और उत्तराखण्ड के तराई प्रदेश के पश्चिमी भाग में नैनीताल ज़िला व नेपाल देश की सीमा तक फैला थारु जनजाति का आवास क्षेत्र हिमालय पर्वत एवं शिवालिक क्षेत्र में नैनीताल, लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, महराजगंज, गोरखपुर तथा नेपाल के कई ज़िलों के मध्य विस्तृत है। पड़ोसी देश नेपाल में थारुओं की आबादी तकरीबन 6.6 फीसदी है। थारू जनजाति राणा, कठरिया, चौधरी तीन जनजातियों में बंटी है। नेपाल से सटे देवी पाटन मंडल क्षेत्र में बसे थारू जनजाति के लोग अवध की संस्कृति को अपनाते हुए राजस्थान के राजपूत राजा महाराणा प्रताप सिंह का वंशज मानते हैं।

थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं

थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं व हिन्दू धर्म के सभी त्योहारों और रीति-रिवाज, पहनावा, लोक नृत्य, गायन, परम्परागत ढंग से करते हैं। ये अपने सभी त्योहार मिलकर गांव के सभी लोग एकत्रित होकर समवेत नृत्य व गायन के साथ मनाते हैं। थारू जनजाति लोक कला व हस्तशिल्प में बहुत पारंगत है। यहां के लोग टोकरी, रस्सी, डलिया, चटाई बुनना, कम्बल, बैग, दरी, लहंगा, ओढ़नी आदि परम्परागत ढंग से बनाते हैं। थारू जनजाति के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि, पशुपालन, मछली का शिकार है।

tharu-religion tharu-religion (Photo by social media)

थारु अपने दिन की शुरुआत कुलदेवता की पूजा से करते हैं। अपने कुलदेवता की स्थापना भंडार घर के मुहाने पर करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने पर इनका भंडार भरा-पूरा रहेगा। भंडार घर में ये अनाज स्टोर करते हैं। अपने अनाज के भंडारण के लिए ये मिट्टी और ईंटों से कोठी तैयार करते हैं। इन कोठियों में अनाज लंबे समय तक खराब नहीं होता।

दशमी से पहले लगता है जेवरा

नवरात्र और दशया (दशहरा) पर्व के पहले दिन थारू समाज के प्रत्येक घरों में जेवरा लगाया जाता है। मूंज की ओड़िया में कच्ची मिट्टी भर कर मक्के की सघन बोआई की जाती है। जमने पर इसी को जेवरा कहते हैं। इसी को दशहरा के एक दिन पूर्व देव-दुर्गा स्थान में स्थापित कर पूजन करते हैं। दशहरा की शुरुआत गुरूवा द्वारा पधना और पधनी को टीका लगाकर की जाती है। टीका लगाने के बाद थारु समाज के लोग दशहरा पर्व की बधाई देते हैं और आगामी सीजन में फसल के अच्छे उत्पादन की कामना करते हैं।

इन दिनों नेपाल के सोनपुर, दांग, घोराही, भानपुर, बालापुर, रामपुर समेत दर्जनों गांव, श्रावस्ती जिले के सीमावर्ती क्षेत्र स्थित रनियापुर, भचकाही, मोतीपुर कला, रावलपुर, बनकटी, कटकुइंया, मसहा, बनगाई, बहराइच के भारत-नेपाल सीमा पर स्थित मिहीपुरवा क्षेत्र में थारू जनजाति परिवारों की आबादी वाले गांव बर्दिया, फकीरपुरी, विशुनापुर, रमपुरवा मटेही, आंबा, लोहरा, धर्मापुर, जलिहा, भैंसाही तथा बलरामपुर के पचपेड़वा और गैसड़ी ब्लाक के 54 गांवों में बसे 35 हजार लोगों समेत अन्य थारू बाहुल्य गांवों में दशहरा की धूम देखी जा रही है। स्थानीय भाषा में इसे दशया कहते हैं।

नौमी को होती है देवी देवताओं की पूजा

थारू जनजाति की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, लोक कला अपने आप में लालित्यपूर्ण विधा है। थारु जनजाति में देवी देवताओं की आराधना का विशेष महत्व है। ये अनेक देवी देवताओं की पूजा करते हैं। घर में उनके परिवार के देवताओं की पूजा काफी विस्तृत तरीके से की जाती है। इन पूजाओं के साथ विशेष अनुष्ठान जुड़े हुए हैं। इनके देवताओं में मनुसदेव गन (कुलदेवता), बढ़म, महावीर, रसोगुरो, भोलाधामी तथा देवियों में कालिका, वनदेवी, हठीमाई, कुंअरवर्ती आदि प्रमुख हैं।

tharu-religion tharu-religion (Photo by social media)

कुछ थारु भोलाधामी को ही अपना कुलदेवता मानते हैं। दशहरा के समय भोलाधामी और रसोगुरो देवता की पूजा खस्सी, परेवा (कबूतर), धूप, फूल, लौंग, सिन्दूर आदि से की जाती है। जबकि नौमी को ही कालिका देवी की पूजा में बकरा, पाठी, परेवा, चुनरी, टिकुली, चोटी, सिन्दूर, काजल और दारु मुर्गा से होती है।

इसमें खस्सी, भेंड़ा, भैंसा, कबूतर और मुर्गे की बलि चढ़ाई जाती है इसमें खस्सी, भेंड़ा, भैंसा, कबूतर और मुर्गे की बलि चढ़ाई जाती है। जानवरों की कुर्बानी इन कारणों से होती है ताकि विभिन्न रोगों या प्राकृतिक आपदाओं की रोकथाम जैसे विभिन्न कारणों से देवता को प्रसन्न किया जा सके। एक प्रचलित किंवदंती यह है कि देवताओं को एक भभूत प्रदान की जाती है, जो कि किसी वस्तु का वादा है, जिसके बदले में देवताओं को विभिन्न चीजों से सुरक्षा प्राप्त करने का आश्वासन दिया जाता है।

विभिन्न जानवरों, अर्थात् कबूतर और मुर्गियों का उपयोग बलि के प्रयोजनों के लिए किया जाता है। साथ ही दूध और सुंदर रेशमी वस्त्र प्रसाद के रूप में दिए जाते हैं। मनुष्य के शरीर के अंगों जैसे माथे, हाथ, गले, पैर आदि की बलि भी प्रचलित है। पारिवारिक अनुष्ठान के भाग के रूप में थारू अक्सर पुरुष सदस्यों में से एक के रक्त का उपयोग करते थे।

एक महीने तक चलता है हुड़दुंगवा नृत्य

वनों के झुरमुटों तथा नेपाल की पहाड़ी वादियों के कोख में बसे थारू जनजाति की वेशभूषा व रहन-सहन की अलग पहचान होती है। इनकी सांस्कृतिक धरोहर विवाह उत्सव व तीज-त्योहारों पर गीत व नृत्यों के रूप में झलकती है। थारु समाज में त्यौहारों, पर्वों और देवी देवताओं की पूजा, मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर नृत्य का विशेष आयोजन होता है। इसी प्रकार दशहरा त्यौहार पर थारु पुरुष और महिलाएं नए कपड़े पहनते हैं। महिलाएं सोने का मंगलसूत्र, झुमकी, बंेदी, नथ और अंगूठी तथा चांदी का हंसली, हवेल, कड़ा, छड़ा, बिजायठ, कनफूल, अगेला, पछेला और करधनी जैसे आभूषण भी पहनती हैं।

tharu-religion tharu-religion (Photo by social media)

थारु महिलाएं लहंगा चोली पहन कर हुड़दुंगवा नृत्य करती हैं

थारु महिलाएं लहंगा चोली पहन कर हुड़दुंगवा नृत्य करती हैं। हुड़दुंगवा नृत्य में पुरुष भी महिलाओं का साथ देते हैं। हुड़दुंगवा नृत्य में गाए जाने वाले गीत के बोल होते हैं-हां, हां रे आई तो गइलो दश्या देवारी, देवारी हुंकरत गवा रे दुहानी रे नाई। इसके अलावा पुत्र की प्राप्ति, शादी समारोह, भाई-बहन के त्योहार, दीपावली के दिन कर्मा नृत्य, नई फ़सल आने की खुशी में भी नृत्य का आयोजन किया जाता है। थारु लोक नृत्य में मांदर (ढोलक) और झांझ-मंजीरा, घुंघरू प्रमुख वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। नेपाल के सोनपुर गांव की सुनीता थारु बताती हैं कि दशहरा पर्व का यह नृत्योत्सव विजय दशमी के बाद भी कई दिनों तक चलता रहता है।

होती है मिट्टी के मूर्तियों की पूजा

थारुओं के प्रसिद्ध त्यौहार जितिया के दस दिन बाद दशमी पर्व शुरू होता है। 10 वें दिन तक मिट्टी की मूर्तियों की पूजा की जाती है। दशमी के दौरान थारु अपने गृह देवता और ग्राम देवता, राजाजी, डिहिबार बाबा की पूजा करते हैं। लोग गांव में बने थान के स्थान पर गांव के देवता को मिट्टी के दीये और अगरबत्ती चढ़ाते हैं।

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घरों पर बुरी नजर न लगे इसके लिए 5वें दिन वे प्रत्येक घर के प्रवेश द्वार डाग जोगिन बनाते हैं। छठे दिन बुरी आंखों को मिटा दिया जाता है और 7वें दिन उन्हें सिंदूर और चावल के आटे के पेस्ट के लाल और सफेद पैच से बदल दिया जाता है। ग्रामीण नौवें और दसवें दिन देवी-देवताओं की मिट्टी की मूर्तियों (दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिक) की पूजा करते हैं। दशमी और जादू टोना के व्यापार और गुर सीखने के लिए दशमी के 10 दिन शुभ माने जाते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दौरान सभी 10 दिशाओं के सभी दरवाजे और खिड़कियां खुल जाती हैं।

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