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हिरासत में पांच मौतें हर दिनः नहीं हुआ यूएन समझौते का अनुमोदन, जानें वजह

भारत में पिछले एक दशक के दरमियान न्यायिक और पुलिस हिरासतों में रोजाना पांच लोग मारे गए। मानवाधिकार आयोग के मुताबिक इसी साल जनवरी से जुलाई की अवधि में 914 मौतें दर्ज की गयीं जिनमें पुलिस हिरासत की 53 मौते भी हैं।

Newstrack
Published on: 22 Aug 2020 8:21 AM GMT
हिरासत में पांच मौतें हर दिनः नहीं हुआ यूएन समझौते का अनुमोदन, जानें वजह
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हिरासत में पांच मौतें हर दिनः नहीं हुआ यूएन समझौते का अनुमोदन, जानें वजह

नई दिल्ली: भारत में पिछले एक दशक के दरमियान न्यायिक और पुलिस हिरासतों में रोजाना पांच लोग मारे गए। मानवाधिकार आयोग के मुताबिक इसी साल जनवरी से जुलाई की अवधि में 914 मौतें दर्ज की गयीं जिनमें पुलिस हिरासत की 53 मौते भी हैं। इस हाल पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग लंबे समय से इस पर अपनी चिंता और क्षोभ जाहिर करता रहा है। उसके सुझाव, सिफारिशें और नाराजगियां जस की तस हैं और हिरासत में मौतों का ग्राफ गिरता चढ़ता रहता है। सबसे बड़ी बात है कि हिरासत में मौतों के बावजूद 2005 से अब तक किसी पुलिसवाले को अपराधी सिद्ध नहीं किया जा सका है। जबकि इस दौरान पुलिस कस्टडी में 500 लोग मारे गए या लापता हो गए।

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हिरासत में पांच मौतें हर दिनः नहीं हुआ यूएन समझौते का अनुमोदन, जानें वजह

रोजाना पांच मौतें

आंकड़ों के मुताबिक अगर एक दशक का हिसाब लगाएं तो मार्च 2020 तक कम से कम 17146 लोग न्यायिक और पुलिस हिरासतों में मारे गए। ये औसत हर रोज पांच मौतों का आता है। इनमें से 92 प्रतिशत मौतें 60 से 90 दिनों की अवधि वाली न्यायिक हिरासतों में हुई थीं। बाकी मौतें पुलिस हिरासत में हुईं जो 24 घंटे की अवधि की होती है या मजिस्ट्रेट के आदेश पर 15 दिन तक बढ़ायी जा सकती है।

ये भी पाया गया है कि न्यायिक हिरासत में होने वाली सभी मौतें टॉर्चर, पिटाई और जेलकर्मियों की ज्यादतियों की वजह से नहीं हुईं बल्कि इनके पीछे कैदियों की बीमारी, इलाज में देरी, उपचार में उपेक्षा, खराब रहनसहन, मनोवैज्ञानिक समस्या या वृद्धावस्था जैसे अन्य कारण भी हो सकते हैं। इंडिया स्पेंड में मानवाधिकार आयोग के आंकड़ो की मदद से प्रकाशित एक विस्तृत विश्लेषण में दर्ज 17146 मौतें, पुलिस और जेल व्यवस्था की कहानी बयान करती है।

तमिलनाडु काण्ड

हाल ही में तमिलनाडु में पुलिस बर्बरता का शिकार बने दलित पिता पुत्र की मौत ने सहसा सबका ध्यान इस ओर खींच लिया और देश विदेश में इस मामले की गूंज सुनाई दी। इससे पुलिस जवाबदेही की मांग ने जोर पकड़ा। मद्रास हाईकोर्ट ने जांच का आदेश दिया और राज्य सरकार ने मामला सीबीआई को सौंप दिया।

कैदियों के मानवाधिकार

मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के मुताबिक ऐसी मौतों की सूचना 24 घंटे में मुहैया करानी होती है लेकिन ऐसा होता नहीं है। दोहरी मार ये है कि रिपोर्ट पेश न कर पाने की सूरत में दंड का भी कोई प्रावधान नहीं है। इस बारे में जानकारों का कहना है कि पुलिस के पास अपने बचाव की बहुत सी दलीलें रहती हैं। आयोग के निर्देश ये भी कहते हैं कि हिरासत में हुई मौत की मजिस्ट्रेटी जांच दो महीने में पूरी करा ली जानी चाहिए और इसमें मृत्यु के हालात, तरीके और घटनाक्रम का सिलसिलेवार ब्यौरा और मौत की वजह दर्ज होना चाहिए।

कैदियों के भी मानवाधिकार हैं, ये बात जेल प्रशासन और सरकारें न जाने कैसे भुला बैठती हैं। वीआईपी कैदियों को तमाम सुविधाएं मिलती हैं लेकिन आम कैदी दुर्दशा में रहते हैं। उनके भोजन, कपड़े, बिस्तर, पीने के पानी, नहाने-धोने, साफ-सफाई, उपचार आदि पर पर्याप्त खर्च न किए जाने की शिकायतें अक्सर सामने आती रही हैं।

जेलों की हालत

हिरासत में मौत का मामला जेलों के शोचनीय हालात से भी जुड़ा है। अगर कैदियों की मृत्यु दर जेलों में अधिक है तो देखा जाना चाहिए कि उन जगहों पर रहनसहन और स्वास्थ्य की सुविधाएं कैसी हैं। एक सच्चाई ये भी है कि कोविड महामारी की वजह से देश की कई जेलों की दुर्दशा पर नये सिरे से ध्यान गया है। भीमा कोरेगांव मामले में जेल में बंद 80 वर्षीय जानेमाने तेलुगु कवि वरवर राव कोरोना की चपेट में आ गए थे और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

आंकड़े बताते हैं कि भारत की जेलों में जगह की तुलना में औसतन 117 फीसदी कैदी हैं। सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश का है जहाँ की जेलों में 176.5 फीसदी कैदी हैं।

यूएन समझौते का अनुमोदन नहीं

टॉर्चर और अन्य क्रूर, अमानवीय या नीचतापूर्ण व्यवहार या सजा के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में हुए समझौते पर भारत अक्टूबर 1997 में दस्तखत तो कर चुका है लेकिन विधि आयोग की सिफारिश के बावजूद इसकी अभिपुष्टि उसने नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में कोई निर्देश देने से इनका कर दिया है।

हिरासत में मौतों को लेकर एक मजूबत कानून का न बन पाना भी इस मामले की एक बड़ी पेचीदगी है. राजनीतिक और पुलिस व्यवस्था और ब्यूरोक्रेसी के दबाव अपना काम करते रहते हैं। अक्सर इस मामले में ये दलील भी दी जाती है कि पुलिस पर अनावश्यक दबाव आएगा और अपराधियों को बल मिलेगा। लेकिन एक सुचिंतित और पारदर्शी व्यवस्था के दावे में ये तर्क नहीं खपता। ज्यादा सख्ती और ज्यादा क्रूर तरीकों को अपनाने का अर्थ ज्यादा नैतिक सुधार और अपराधों में ज्यादा कटौती नहीं हो सकता। विशेषज्ञों के मुताबिक पुलिस जांच और पूछताछ की प्रक्रिया इतनी दोषपूर्ण न होती अगर जांच के वैज्ञानिक तरीके उपलब्ध होते और पुलिस को विशेष रूप से इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जाता। एक कारगर फोरेन्सिक तकनीक का अभाव भी समस्या है।

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सुधार की जरूरत

हिरासत में मौत की घटनाओं के बीच पुलिस के अंदरूनी तंत्र में भी सुधार की जरूरत है। जिसका संबंध भर्तियों से लेकर वेतन विसंगतियों, पदोन्नति, और अन्य सुविधाओं से जुड़ा है। पुलिसबल में कमी का असर पुलिसकर्मियों के कामकाज पर भी पड़ता है, इन सबका अर्थ ये नहीं है कि वे अपनी खीझ या हताशा गरीब, कमजोर और बेसहारा कैदियों पर निकालें। जेल सुधारों के लिए नियम कायदे बनाने के अलावा उच्च अधिकारियों और उनके मातहतों में मानवाधिकारों के प्रति संवेदना और सजगता भी जरूरी है।

मानवाधिकार आयोगों को भी और अधिकार संपन्न और प्रभावी बनाया जाना चाहिए। औपनिवेशिक दौर के पुलिस एक्ट को बदल कर पुलिस अफसरशाही के ढांचे में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। इस ढांचे को पुलिस की अंदरूनी जरूरतों के हिसाब से ढालना होगा न कि सरकारों और राजनीतिक दलों के हितों के हिसाब से। आखिरकार पुलिसकर्मी नागरिकों के रखवाले हैं, उन पर जुल्म ढाने वाले एजेंट नहीं।

पुलिसवालों पर मुकदमे की मंजूरी ही नहीं

कस्टडी में मौतों के आमतौर पर पुलिसवाले ही गवाह होते हैं सो ज्यादातर पुलिसवाले अपने सहकर्मियों के खिलाफ गवाही नहीं देते। इसके अलावा संदिग्ध पुलिवालों को सीनियर अधिकारियों का संरक्षण भी एक मसला होता है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या दोषियों के खिलाफ मुकदमे की नौमती की होती है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की दफा 197 के तहत किसी सरकारी अधिकारी या सशस्त्र सेना के किसी सदस्य ने यदि अपनी ड्यूटी के निर्वहन के दौरान कोई अपराधिक कृत्य किया है तो बिना केंद्र या राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

नेशनल कैम्पेन अगेंस्ट टार्चर के संयोजक सुहास चकमा के अनुसार पुलिस के कृत्यों और बर्ताव को चुनौती देने वाले किसी भी कानून का भारी विरोध है. मिसाल के तौर पर 2009 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया कि अधिकारिक ड्यूटी के दौरान यदि किसी अधिकारी के कारण किसी व्यक्ति की मौत होते एही तो एफआईआर लिखी जानी चाहिए. आंध्र पुलिस एसोसिएशन ने इस आदेश को चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले लिया। ये मसला भी तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक, अप्रैल, 2010 से दिसंबर, 2010 के बीच हिरासत में मौत के 1,321 मामले गृह मंत्रालय में दर्ज हैं। रिपोर्ट के अनुसार एनएचआरसी की जांच शाखा पुलिस हिरासत में हुई 88 मौत की जांच कर चुकी है। गृह मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्‌स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को देश में अपराधों का सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड माना जाता है। एनसीआरबी के मुताबिक, पुलिस हिरासत में सिर्फ 72 मौत के मामले दर्ज किए गए हैं। ऐसा इसलिए कि हिरासत में मौत के सारे मामलों की सूचना पुलिस एनएचआरसी को देती है, इसी कारण गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में संख्या ज्‍यादा है। इनमें से कुछ ही मामलों को एनसीआरबी को भेजा जाता है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट पुलिसिया यातना को छिपाने की कोशिश नजर आती है

एनसीआरबी की रिपोर्ट पुलिसिया यातना को छिपाने की कोशिश नजर आती है। हिरासत में मौत के कारणों के बारे में एनसीआरबी की तालिका में हवालात में दी गई यातना का कोई जिक्र ही नहीं है। इसकी बजाए उसमें ऐसी एंट्री की गई हैं, जैसे-अस्पताल में भर्ती कराए जाने के दौरान मौत, दूसरे अपराधियों की ओर से किया गया हमला, भीड़ के हमले/दंगे के दौरान मौत, आत्महत्या या फरार होने की कोशिश के दौरान मौत। पुलिस की ओर से किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन पर एनसीआरबी की एक और तालिका बताती है कि 2010 के दौरान पूरे देश में पुलिसिया यातना का मात्र एक मामला हुआ है। यह वही वर्ष है, जब एनएचआरसी ने हिरासत में 1,321 मौत के मामले दर्ज किए हैं। कई मामलों में पुलिस दावा करती है कि पीड़ित ने आत्महत्या कर ली है।

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सुप्रीम कोर्ट का नवंबर, 2011 का फैसला आंखें खोल देने वाला है

सुप्रीम कोर्ट का नवंबर, 2011 का फैसला आंखें खोल देने वाला है, जिसमें अदालत ने पंजाब पुलिस के चार पूर्व अधिकारियों-डीएसपी जसपाल सिंह, हेड कांस्टेबल पृथपाल सिंह और दो सब इंस्पेक्टर सतनाम सिंह और जसबीर सिंह - को सुनाई गई उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा था। इन चारों पुलिसवालों को 1995 में मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालड़ा का अपहरण और हत्या करने के मामले में दोषी पाया गया था। मानवाधिकारों के मामलों में बढ़ती हुई जागरूकता ने हिरासत में मौतों के मामलों को बहस के केंद्र में ला दिया है लेकिन इससे प्रणाली में कोई सुधार नहीं हुआ है।

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