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सूर्योदय से पहले! चारों दरिंदों को ऐसे होगी फांसी, मौजूद रहेंगे ये-ये लोग

जैसे ही फांसी का फंदा कसता है पहले गर्दन लंबी होती है और फिर गर्दन की मांसपेशियां टूटने लगती हैं। इससे मस्तिष्क का संपर्क शरीर से टूट जाता है, चेतना खत्म हो जाती है। जिसे फांसी दी जा रही है, वो अचेत हो जाता है। साथ ही हृदय की ओर खून का बहाव रुक जाता है और सांस लेने की प्रक्रिया भी गला घुटने से बंद हो जाती है।

SK Gautam
Published on: 8 Jan 2020 8:14 AM GMT
सूर्योदय से पहले! चारों दरिंदों को ऐसे होगी फांसी, मौजूद रहेंगे ये-ये लोग
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लखनऊ: साल 2012 के 16 दिसंबर की वो काली रात जिस घटना से आज भी पूरा देश शर्मसार है। वैसे तो बहुत पहले ही निर्भया मामले में दोषियों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने डेथ वारंट जारी कर दिया है। कोर्ट की लम्बी प्रक्रिया को पूरा करते-करते सात साल हो गए और आब जाकर ले निर्भया सामूहिक दुष्कर्म मामले के दोषियों को फांसी पर लटकाने का दिन और वक्त तय हो पाया है। बता दें कि पटियाला हाउस कोर्ट ने मंगलवार शाम करीब 4:48 बजे इस मामले के चारों दोषियों का डेथ वारंट जारी किया। जिसके मुताबिक 22 जनवरी सुबह 7 बजे निर्भया के गुनहगारों को तिहाड़ जेल में फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा।

लेकिन आज हम आपको बता रहे हैं कि जब किसी को फांसी दी जाती है तो उसके साथ वहां कौन-कौन लोग मौजूद होते हैं या रह सकते हैं । क्योंकि इसके लिए भी नियम बनाए गए हैं।

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कौन-कौन लोग मौजूद होते हैं या रह सकते हैं

तिहाड़ में जो फांसी घर है उसके तख्त की लंबाई करीब दस फीट है, जिसके ऊपर दो दोषियों को आसानी से खड़ा किया जा सकता है। इस तख्त के ऊपर लोहे की रॉड पर दो दोषियों के लिए फंदे लगाने होंगे। तख्त के नीचे भी लोहे की रॉड होती है, जिससे तख्त खुलता और बंद होता है। इस रॉड का कनेक्शन तख्त के साइड में लगे लिवर से होता है। लिवर खींचते ही नीचे की रॉड हट जाती है और तख्त के दोनों सिरे नीचे की तरफ खुल जाते हैं, जिससे तख्त पर खड़ा दोषी के पैर नीचे झूल जाते हैं।

भारी वजन वाले के लिए रस्सी की लंबाई कम रखी जाती है

हालांकि जेल प्रशासन का कहना है कि वह दोषियों को एक-एक कर फांसी देंगे। जेल अधिकारियों के मुताबिक, दोषियों के वजन के हिसाब से फंदे की रस्सी की लंबाई तय होती है। तख्त के नीचे की गहराई करीब 15 फीट है, ताकि फंदे पर लटकने के बाद झूलते पैर का फासला हो।कम वजन वाले दोषी को लटकाने के लिए रस्सी की लंबाई ज्यादा रखी जाती है, जबकि भारी वजन वाले के लिए रस्सी की लंबाई कम रखी जाती है।

सूत्रों के हवाले से जानकारी ये है कि अफजल की फांसी के ट्रायल के दौरान दो बार रस्सी टूट गई थी।

चूंकि फांसी के समय जेल में बहुत गमगीन माहौल बन जाता है इसलिए सभी कैदी अपनी बैरक में बंद होते हैं। दोषी को तैयार करने के बाद मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में दोषी को सेल से फांसी के तख्ते पर ले जाया जाता है। इस दौरान उसके चेहरे को कपड़े से ढक दिया जाता है ताकि वह आसपास चल रही गतिविधि को नहीं दे सके।

फांसी के तख्ते तक ले जाने के दौरान मौत को सामने देखकर दोषी चल नहीं पाता है। ऐसी स्थिति में उसके साथ चल रहे पुलिसकर्मी उसे सहारा देकर ले जाते हैं।

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यहां जानें कि फांसी देने के समय कौन-कौन रहते हैं मौजूद

  • जेल सुपरिटेंडेंट
  • डिप्टी सुपरिटेंडेंट
  • RMO (Resident Medical Officer)
  • चिकित्सा अधिकारी (डॉक्टर)
  • मजिस्ट्रेट या ADM

इसके अलावा दोषी जिसे फांसी हो रही है वो चाहे तो वह उसके धर्म का कोई भी नुमाइंदा जैसे पंडित, मौलवी भी फांसी होते हुए देख सकता है।

सूर्योदय से पहले क्यों दी जाती है फांसी

अब आपके मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि भारत में फांसी लंबे समय से सूर्योदय से पहले ही क्यों दी जाती है। बता दें कि अंग्रेजों के जमाने में भी फांसी की सजा जेल में सुबह सूरज की पहली किरण से पहले ही दी जाती थी। आज भी वही नियम है। भारत में आखिरी फांसी पुणे जेल में वर्ष 2012 में हुई थी। तब आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी पर लटकाया गया था। ये फंसी भी सुबह ही हुई थी।

केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में जहां कहीं भी फांसी देने का रिवाज अभी जारी है, वहां फांसी भोर में ही दी जाती है। हालांकि भारत के जेल मैन्यूल में फांसी के समय के बारे में स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। जेल मैन्युअल कहता है कि फांसी सुबह तड़के ही दी जानी चाहिए, ये हमेशा सूरज की पहली किरण से पहले संपन्न हो जाए।

समय तय करने का काम केंद्र और राज्य सरकारें ही करती हैं

हालांकि हर मौसम के हिसाब से फांसी का समय सुबह बदल जाता है लेकिन ये समय भी तय करने का काम केंद्र और राज्य सरकारें ही करती हैं। फांसी को सुबह तड़के शांत बेला में देने की तीन वजहें भी हैं, जो प्रशासनिक, व्यावहारिक और सामाजिक पहलुओं से जुड़ी हैं।

आमतौर पर फांसी एक खास घटनाक्रम होता है। अगर ये दिन के दौरान होंगी तो जेल का सारा फोकस इसी पर टिक जाएगा। इससे बचने की कोशिश की जाती है ताकि जेल की दिनभर की अन्य गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़े। सारी गतिविधियां सुचारू तौर पर काम करती रहें। फांसी होने के बाद मेडिकल परीक्षण होता है और उसके बाद कई तरह की कागजी कार्यवाहियां। इन सबमें भी समय लगता है।

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फांसी दिन में हो तो सजायाफ्ता का तनाव और मानसिक स्थिति बिगड़ सकती है

व्यावहारिक पहलू यह है कि माना जाता है कि जिसको फांसी दी जा रही है, उसका मन सुबह भोर के समय में ज्यादा शांत रहता है। सो कर उठने के बाद फांसी देने पर वो ज्यादा शारीरिक तनाव और दबाव का शिकार नहीं होता। अगर फांसी दिन में हो तो सजायाफ्ता का तनाव और मानसिक स्थिति बिगड़ सकती है।

जिसे फांसी होती है, उसे सुबह तीन बजे ही उठना होता है ताकि वो अपने सारे काम फांसी से पहले निपटा ले, जिसमें प्रार्थना और अकेले में कुछ समय के लिए अपने बारे में सोच-विचार करना आदि भी शामिल है। सबसे बड़ी बात है कि फांसी के बाद उसके परिजनों को शव सौंप दिया जाए, ताकि वो उसे लेकर अपने गंतव्य तक जा सकें और दिन में ही अंतिम संस्कार कर लें।

सुबह फांसी देने से हंगामा नहीं हो सकता

फांसी का तीसरा पक्ष सामाजिक है। चूंकि ये खास घटना होती है लिहाजा बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित करती है। इसके चलते जेल के बाहर बड़े पैमाने पर तमाशबीन इकट्ठा होने और हंगामा होने के भी आसार होते हैं। लिहाजा कोशिश होती है कि जब तक लोग सोकर उठें तब तक फांसी हो जाए।

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फांसी की तैयारियां

फांसी के करीब 10-15 दिन पहले खास प्लेटफार्म तैयार कर दिया जाता है। ये जमीन से करीब चार फुट ऊंचा होता है। इस प्लेटफॉर्म पर सजायाफ्ता को एक लकड़ी के पटरे पर खड़ा किया जाता है, जिसे गोलाकार तौर पर चिन्हित किया जाता है।

यही वो पटरा होता जो जल्लाद के लिवर खींचते ही हट जाता है और सजायाफ्ता शख्स गर्दन पर लगे फंदे के साथ झूल जाता है।

जिस टी शेप खंबे से रस्सी का फंदा लटकाया जाता है, वो करीब दस फीट ऊंचा होता है। साथ ही इसमें छह मीटर की रस्सी का इस्तेमाल होता है

यहां जानें फंदा कसते ही शरीर में क्या- क्या होता है

जल्लाद जैसे ही लिवर को खींचता है, वैसे ही जिस पटरे पर फांसी पाने वाला शख्स खड़ा होता है, वो पटरा नीचे चला जाता है, तब वो तुरंत लटकने लगता है और रस्सी का दबाव गर्दन पर कसने लगता है। शरीर का पूरा वजन नीचे की ओर जाने लगता है।

जैसे ही फांसी का फंदा कसता है पहले गर्दन लंबी होती है और फिर गर्दन की मांसपेशियां टूटने लगती हैं। इससे मस्तिष्क का संपर्क शरीर से टूट जाता है, चेतना खत्म हो जाती है। जिसे फांसी दी जा रही है, वो अचेत हो जाता है। साथ ही हृदय की ओर खून का बहाव रुक जाता है और सांस लेने की प्रक्रिया भी गला घुटने से बंद हो जाती है।

आमतौर पर फांसी लगने के बाद पांच मिनट से लेकर 20-25 मिनट के भीतर मौत हो जाती है। उसके बाद डॉक्टर बॉडी को चेक करता है और सजायाफ्ता शख्स को मृत घोषित करता है।

SK Gautam

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