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अलर्ट हो जाएं ग्राहक: जल्द हो सकता है चार बैंकों का निजीकरण, अब क्या होगा
तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि दुनिया के अग्रणी देशों में, वित्तीय संकट पैदा हो गए, लेकिन हम अभी भी जीवित हैं, क्योंकि हमने अपने बैंकों का राष्ट्रीयकरण पहले ही कर दिया था।
नीलमणि लाल
नई दिल्ली। 2008 में जब पूरी दुनिया मंदी के चपेट में आ गई थी और वित्तीय संकट गहराता जा रहा था, तो सितंबर, 2008 में लेहमैन ब्रदर्स के पतन के कुछ माह बाद भारत सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बड़े विश्वास के साथ कहा था कि भारत वित्तीय संकट का सामना बहुत अच्छे से करने में सक्षम रहा, क्योंकि उसके पीछे हमारा मजबूत बैंकिंग सिस्टम है।
वित्तीय संकट
तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि दुनिया के अग्रणी देशों में, वित्तीय संकट पैदा हो गए, लेकिन हम अभी भी जीवित हैं, क्योंकि हमने अपने बैंकों का राष्ट्रीयकरण पहले ही कर दिया था। लेकिन अब भारत सरकार बैंकिंग प्रणाली को ओवरहाल करने की कोशिश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी बेचने जा रही है। इसके लिए सरकार का तर्क है कि इन बैंकों की बैलेंस शीट खराब हो गई हैं, यानी इन बैंकों के एनपीए बढ़ गए हैं।
दो बैंकों के निजीकरण के योजना
इस महीने की शुरुआत में, भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण के योजना की घोषणा की थी। अभी किन बैंकों की हिस्सेदारी बेची जाएगी अधिकारिक तौर पर उन्हें चिह्नित करके उनके नाम नहीं जारी किए गए हैं लेकिन रिपोर्ट बताती है कि पंजाब और सिंध बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र, दो अपेक्षाकृत छोटे ऋणदाता सूची में हैं। भारत सरकार ने पहले ही कई बैंकों का विलय कर चुकी है। 2017 में ही उनकी संख्या 27 से घटाकर 12 कर दी गई थी।
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पब्लिक सेक्टर बैंक
काफी लंबे समय से निजीकरण किया जाना लंबित था, क्योंकि राजनीतिक रूप से ऐसा किया जाना काफी चुनौतीपूर्ण हो सकता है। कर्मचारी यूनियनें इस कदम का विरोध करती हैं और पब्लिक सेक्टर बैंकों को व्यापक रूप से निजी ऋणदाताओं द्वारा छोड़े गए वैक्यूम को भरने के रूप में देखा जाता है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का लक्ष्य
निजी बैंक जहाँ अपना लाभ बढ़ाने के लिए काम करते हैं, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक को हमेशा विकास के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए क्रेडिटर के तौर पर उपयोग किया जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के पास तक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं और यह सुनिश्चित किया जाता है कि छोटे व्यवसायों को आसानी से ऋण मिले।
1969 में हुआ था राष्ट्रीयकरण
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब 1969 में बैंकिंग क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण किया, तो उसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का तेजी से विकास हुआ। उसके बाद से ही छोटे और मझोले व्यवसायों के लिए ऋण देने के साथ-साथ बैंकिंग सेवाओं में तेजी से वृद्धि हुई क्योंकि राज्य द्वारा संचालित बैंकों ने हजारों शाखाएं खोली और लोगों से पैसे जमा कराए। लेकिन राष्ट्रीयकरण ने बैंकों को विशेष रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप का हथियार बना दिया। अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आधुनिक तकनीक से लैस निजी बैंकों से बड़ी चुनौती मिल रही है। निजी बैंक अब ज्यादा टेक्नो-सैवी हो गए हैं और अब वो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में जमा के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा रहे हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक ने अब नियमों को कड़ा भी कर दिया है, जिससे बैंकों को ऋण से संभावित नुकसान की भरपाई के लिए अपनी पूंजी को अलग सेट करना पड़ता है, जिसका भुगतान नहीं किया जा सकता है। यह मूल रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वित्तीय स्थिति को नुकसान पहुंचाता है।
कैसे बिगड़े हालात
2000 के दशक के मध्य में भारत का सकल घरेलू उत्पाद कारोबारियों के साथ दोहरे अंकों में बढ़ रहा था और उम्मीद की जा रही थी कि हमारी ग्रोथ आने वाले दशकों तक जारी रहेगी। पॉजिटिव आउटलुक से उत्साहित, कंपनियों ने प्लांट और मशीनरी में निवेश किया और उन्होंने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और विदेशों से बहुत अधिक ऋण लिया। ऋण का एक बड़ा हिस्सा टेलिकॉम, बिजली संयंत्रों और स्टील मिलों जैसे बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के वित्तपोषण में चला गया। लेकिन आर्थिक मंदी से कंपनियों के लिए ऋण चुकाना मुश्किल हो गया। ऊपर से रुपये के अवमूल्यन ने उन कंपनियों पर एक और बोझ डाला जो विदेशी मुद्रा में ऋण लिए थे। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के खराब वित्तीय हालात के लिए इन सभी कारकों ने उनकी समस्याओं को बढ़ाने में योगदान दिया है, जिसका बोझ अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ढोना पड़ रहा है।
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अब क्या होगा
एक फरवरी 2021 को पेश आम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह घोषणा की थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण किया जाएगा। लेकिन उन्होंने बैंकों का नाम नहीं बताया था। जानकारों का कहना है कि सरकार ने निजीकरण के लिए मझोले आकार के चार बैंक शॉर्टलिस्ट किए हैं। सरकार बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का निजीकरण कर सकती है।
विनिवेश पर ज्यादा ध्यान दे रही है सरकार
दरअसल इस समय केंद्र सरकार विनिवेश पर ज्यादा ध्यान दे रही है। सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचकर सरकार राजस्व को बढ़ाना चाहती है और उस पैसे का इस्तेमाल सरकारी योजनाओं पर करना चाहती है। सरकार ने 2021-22 में विनिवेश से 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है। इसके मद्देनजर सरकार ने देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) में भी अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचने की योजना बनाई है।
ग्राहकों को नहीं होगा कोई नुकसान
जिन बैंकों का निजीकरण होने जा रहा है, उनके खाताधारकों को कोई नुकसान नहीं होगा। ग्राहकों को पहले की तरह ही बैंकिंग सेवाएं मिलती रहेंगी। इन चार बैंकों में फिलहाल 2.22 लाख कर्मचारी काम करते हैं। बैंक ऑफ महाराष्ट्र में कम कर्मचारी होने के चलते उसका निजीकरण आसान रह सकता है।
अधिनियमों में संशोधन
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए सरकार इस साल दो अधिनियमों में संशोधन ला सकती है। उम्मीद है कि इन संशोधनों को मानसून सत्र में या बाद में पेश किया जा सकता है। सूत्रों ने कहा कि निजीकरण के लिए बैंकिंग कंपनियां (उपक्रमों का अधिग्रहण व हस्तांतरण) अधिनियम, 1970 और बैंकिंग कंपनियां (उपक्रमों का अधिग्रहण व हस्तांतरण) अधिनियम, 1980 में संशोधन आवश्यक होगा। इन अधिनियमों के कारण बैंकों का दो चरणों में राष्ट्रीयकरण हो गया और बैंकों के निजीकरण के लिये इन कानूनों के प्रावधानों को बदलना होगा।
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने दिया था सुझाव
पिछले साल भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर व अर्थशास्त्री रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने एक संयुक्त पत्र में भारतीय बैंकिंग तंत्र को मजबूत बनाने का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि कुछ संकटग्रस्त सरकारी बैंकों का निजीकरण बेहद जरूरी है, ताकि बट्टे खाते का बोझ घटाया जा सके।
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बैंकों में हिस्सेदारी संरचना को बदलना चाहिए
उन्होंने कहा कि सबसे पहले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में हिस्सेदारी संरचना को बदलना चाहिए। सरकार जिन बैंकों में पूंजी डालने से बचना चाहती है, उनका निजीकरण कर अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम लेकर आए। इससे बैंकों के कामकाज की प्रक्रिया में बदलाव आएगा, क्योंकि बैड लोन की ज्यादातर समस्या सरकारी बैंकों में हैं। यहां फंसे कर्ज की वसूली भी मुश्किल रहती है। निजीकरण पर आगे बढ़ने से सरकार को हिस्सेदारी बेचकर नई पूंजी भी मिल सकती है।
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