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हमारी मेहनत के साथ मजाक है, हेमा मालिनी की ये तस्वीर
खेती का सबसे मुश्किल काम गेहूं की कटाई को माना जाता है। साथ ही मौसम की मार और बुढ़ापे की मार काम को अधिक मुश्किल बना देता हैं। यही कारण हैं कि ज़मींदार किसान गेहूं अपने हाथ से काटने के बजाए भूमिहीन मज़दूरों से कटवाते हैं।
मथुरा: खेती का सबसे मुश्किल काम गेहूं की कटाई को माना जाता है। साथ ही मौसम की मार और बुढ़ापे की मार काम को अधिक मुश्किल बना देता हैं। यही कारण हैं कि ज़मींदार किसान गेहूं अपने हाथ से काटने के बजाए भूमिहीन मज़दूरों से कटवाते हैं।
राजेंद्री देवी कहती हैं, "हम खेतों में मज़दूरी करते हैं। खेत-खेत जाकर गेहूं काटते हैं। तीन बीघा काटने के तीन मन गेहूं मिलेते हैं।"
बुढ़ी राजेंद्री देवी कहती हैं, " एक दिन के दो-ढाई सौ रुपये भी मजदूरी नही मिलती हैं। आखिर क्या होता है इतने पैसों में?
बता दें, राजेंद्री देवी मज़दूर हैं। छह साल पहले उनके बेटे और बहू की मौत हो गई थी। नौ पोतियां हैं, जिनका पेट भरने की ज़िम्मेदारी अकेली राजेंद्री देवी पर ही है।
सरकारी योजनाओं से क्या मिलता है?
गेहूं कटाई करके वह खाने का इंतेज़ाम करती हैं। राजेंद्री देवी कहती हैं, कि उन्हें किसी भी सरकारी योजना का कोई फ़ायदा नहीं मिलता है।
वह कहती हैं, "किसी सरकार ने कोई मदद नहीं की है। इतने दुखी हैं कि बता नहीं सकते। कोई कुछ नहीं देता है। हमने कहा पेंशन खोल दो, इन बालकों को कुछ खाने-ख़र्चे को मिल जाए, कोई पेंशन न खोली। मांग-मांग कर तो कपड़े पहनाते हैं।"
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अपनी फटी हुई शर्ट दिखाते हुए कहती हैं, "हम ऐसे फटे कपड़े पहनने लायक़ हैं। हमारे आगे मजबूरी है।जब ऊपर चले जाएंगे तब ही मजबूरी दूर होगी हमारी उससे पहले हमारी मजबूरी दूर नहीं होगी।"
हाल ही में मथुरा से सांसद हेमा मालिनी की हाथ में दरांती और गेहूं की बालियां लिए तस्वीर ख़ूब वायरल हुई। ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी सत्ताधारी पार्टी की पोस्टर गर्ल भी हैं।
अब कुछ नहीं तों राजेंद्री देवी अगर सरकारी योजनाओं की नाकामी के पोस्टर बने तों उसकी पोस्टर गर्ल बन ही सकती हैं।
खेत मालिक सत्यपाल सिंह कहते हैं, "हेमा मालिनी ने फोटो खिंचवाकर दिखावा किया है। असल में गेहूं काटना उनके बस की बात कहां हैं। ये बहुत मेहनत का काम है। सारा दिन धूप में पसीना बहाना पड़ता है,जब हमसे नहीं कटते हैं, तो वो क्या काटेंगी?"
भूमिहीन किसानों की दशा
अक्सर भूमिहीन परिवारों की महिलाएं ही गेहूं की कटाई करती हैं। तीन बच्चों की मां पिंकी अपने परिवार के साथ गेहूं काट रही हैं।
पिंकी के हाथों में पड़ी गांठे ये बंया कर सकती हैं, कि ये काम कितना कठिन।
पिंकी कहती हैं, "हाथों में बहुत दर्द होता है। लेकिन पेट की भूख मिटाने के लिये करना पड़ता है। हमें इस काम के बदले पैसे नहीं मिलते हैं, बल्कि गेहूं मिलते हैं।"
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"हम ग़रीबों का कोई नहीं हैं। चुनाव समय बस आवा-जाही रहती हैं, उसके बाद कोई नहीं दिखता। हम तो यहीं उम्मीद में वोट डाल आते हैं, कि शायद अबकी बार कोई हमें सुन ले। पर नेता बनने के बाद कोई नहीं पूछता। हम कच्चे घरों में रहते हैं, हमें कोई घास नहीं डालता। चुनावों में ये और होता है कि फ्री शराब बांट देते हैं. पियो मौज लो, हम जनानियों के लिए तो कुछ भी नहीं है। जैसे-तैसे टाइम काट रहे हैं।"
'रातों में सोते नहीं रोते हैं हम'
सावित्री देवी भी भूमिहीन मज़दूर हैं. वो सुबह पहले घर का काम करती हैं फिर खेत काटने आती हैं। सारा दिन खेत में काम करने के बाद जब दिन छुपने पर वो घर पहुंचती हैं तो उनके पास आराम करने के लिए समय नहीं होता. वो बच्चों के लिए खाना बनाती हैं, पूरे परिवार की हंडिया-रोटी करने के बाद ही उन्हें सुकून के कुछ पल मिलते हैं।
अक्सर पति दारू के नशे में होते हैं और कुछ बोलने पर पिटाई भी कर देते हैं। वह कहती हैं कि कई बार रोते-रोते रात बीत जाती है।
फोटो खिंचवाने जितना आसान काम नहीं हैं, गेंहू काटना
उधर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से कुछ ही दूर दादरी क्षेत्र के एक गांव में एक कश्मीरी अपने दो नौजवान बेरोज़गार बेटों के साथ गेहूं की फ़सल काट रही थी।
हमारी तुम सुने हम तुम्हारी सुनेगें। हेमा मालिनी की तस्वीर देखते हुए वह कहती हैं। "फ़ोटो खिंचाना अलग काम है, गेहूं काटना अलग काम। ये खेतीबाड़ी का भारी काम है। ऐसी फ़ोटो हमारी मेहनत के साथ मज़ाक़ है।"
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कश्मीरी कहती हैं, "सिर का पसीना पैर से निकल जाता है, मजबूरी है तो ये मज़दूरी कर रहे हैं। गर्मी लगती है, बहुत कठिन काम है। तीन चार लोग लगे हैं। पूरे दिन में एक बीघा भी नहीं कटेगा। बच्चों का पेट भरना है इसलिए कर रहे हैं।"
राजेंद्री की तरह ही कश्मीरी को भी किसी सरकारी योजना का कोई फ़ायदा नहीं मिला है।खेत काटने के बदले उन्हें गेहूं मिलेंगे।
वो कहती हैं, "मिट्टी के कच्चे मकान में टाइम काट रहे हैं।पूरे गांव में हमारा ही मकान सबसे कच्चा है, लेकिन किसी ने हमारा घर नहीं बनवाया है।"
प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कश्मीरी जैसे ग़रीब परिवारों का घर बनाने में सरकार ढाई लाख रुपए तक मदद करती है। लेकिन कश्मीरी की मदद करने अभी तक कोई नहीं आया है। वो कहती हैं, कि उनकी भाग-दौड़ करने वाला कोई नहीं है।
यहां से कुछ दूर ही जयपाली अपनी एक पड़ोसन के साथ मिलकर खेत काटने में जुटी हैं। उनका दर्द भी वैसा ही है, जैसा कश्मीरी और राजेंद्री का साल भर के खाने के इंतज़ाम करने के लिए वह ये काम कर रही हैं।
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वह कहती हैं, "काम क्या कर रहे हैं, गर्मी में मर रहे हैं, ना करेंगे तो बच्चे कैसे पलेंगे। गर्मी हो या सर्दी मेहनत ही करनी है।"
उन्हें अपनी बेटी की पढ़ाई छूटने का अफ़सोस हैं।
कहती हैं, "हम ग़रीबों की कोई मदद नहीं करता। बेटी की शादी हो जाएगी तो एक फ़िक्र निबटेगी।"
मुन्नी के पति मज़दूरी करते हैं, और ज्यादातर शाम को दारू पीकर झगड़ा करते हैं।
चुनावी मौसम में उन्हें किसी नेता से कोई उम्मीद नहीं हैं। वह कहती हैं, "हम जैसे गऱीबों का कोई कुछ नहीं करता। आप कुछ करा दो तो भला हो।"
गेहूं की फ़सल काट रही जितनी भी महिलाओं से मैं मिली वह दलित वर्ग से थीं। हेमा मालिनी की तस्वीर उनकी मेहनत और ज़िंदगी की मुश्किलों के साथ मज़ाक़ सी लगती है।
सरकार की सरकारी योजनाएं
केंद्र और राज्य सरकारों ने हाल के महीनों में किसानों के लिए क़र्ज़माफ़ी का ऐलान किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान सम्मान निधी के तहत सीधे किसानों के बैंक खातों में दो हज़ार रुपये भी भेजे हैं।
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लेकिन केंद्र सरकार की ऐसी किसान हितैषी योजनाओं का फ़ायदा राजेंद्री और जयपाली जैसी महिलाओं को नहीं मिलता। सरकार की योजना का फ़ायदा तो क्या इन भूमिहीन मज़दूर महिलाओं को तो अपनी मेहनत का सही दाम तक नहीं मिलता।
आखिर में बस यही कहती हैं, हमारी तुम सुने, हम तुम्हारी सुनेगें।