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सुदामा प्रसाद पांडेय धूमिलः यह तीसरा आदमी कौन है- जो न रोटी बेलता है, न खाता है...
सुदामा प्रसाद पांडेय की 10 फरवरी को पुण्यतिथि है। कविता का यह सूर्य 38 वर्ष की अल्पायु में ब्रेन ट्यूमर से 1975 में अस्त हो गया था। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। उनका जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था।
रामकृष्ण वाजपेयी
एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है, जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है, वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है, मैं पूछता हूँ-- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है।
धूमिल की ये पंक्तियां जनमानस की चेतना को झकझोर देती हैं। सुदामा प्रसाद पांडेय की 10 फरवरी को पुण्यतिथि है। कविता का यह सूर्य 38 वर्ष की अल्पायु में ब्रेन ट्यूमर से 1975 में अस्त हो गया था। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। उनका जन्म वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था।
व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है। उन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
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लोहे का स्वाद...
इसी तरह धूमिल की चर्चित कविता है लोहे का स्वाद- "शब्द किस तरह कविता बनते हैं, इसे देखो अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो, क्या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है या मिट्टी में गिरे हुए खून का रंग", लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो, जिसके मुँह में लगाम है। यह धूमिल की अंतिम कविता मानी जाती है। इसके अलावा भी धूमिल की ये कुछ प्रसिद्ध कविताएं हैं। जैसे मोचीराम, बीस साल बाद, पटकथा, रोटी और संसद। इसके अलावा संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र उनके काव्य संग्रह हैं।
संसद से सड़क तक...
रायबरेली के डा. आरपी वर्मा धूमिल पर लिखते हैं कि धूमिल के अब तक तीन काव्य-संग्रह-“संसद से सड़क तक”, “कल सुनना मुझे” तथा “सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र” प्रकाशित हुये हैं। इन संग्रहों के एक सौ बाइस कविताओं में यौन-प्रतीकों जैसे-“मूतना”, ”गर्भ गद्गर्द औरत“ “मासिक धर्म” “गर्भपात” “वीर्यपात” ”नेकर का नाड़ा“ ”लड़कियों का नाड़ा“ “लड़कियों के स्तर” ”वीर्य वाहिनी नालियां“ ”औरत की लालची जांघ“ ”उबासियों में ऊंघते नितम्ब“ एवं ”भूखे गर्भाशय“ प्रभूति जैसे शब्दों का खुलकर प्रयोग किया गया है। आलोचकों ने इस आधार पर उनकी आरंभिक कविताओं की अकवियों को रचनाओं से प्रभावित मानते हुये ”अकविता“ आन्दोलन से सम्पृक्त किया है।
डा. नामवर सिंह ने धूमिल की कविताओं के सम्बन्ध में अपनी एक बातचीत में यह स्पष्ट किया था कि- ”अकविता से धूमिल को सम्बद्ध करने का कारण शायद यह है कि उनकी आरम्भिक कविताओं में कहीं-कहीं “मासिक धर्म”, “वीर्यपात”, “जांघों का जंगल” जैसे कुछ सुरूचिभंजक (खराब स्वाद) शब्द मिल जाते हैं, किन्तु मेरे ख्याल में धूमिल पर यह असर सीधे एलेन गिंसबर्ग से आया था, जो इत्तफाक से 1962-63 के दिनों में बनारस में थे और धूमिल उनसे अक्सर मिलते रहे।
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शायद इसमें कुछ हाथ राजकमल चौधरी का भी है जिनकी मृत्यु पर धूमिल ने एक कविता भी लिखी थी। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि सेक्स सम्बन्धी वर्जित शब्दों का प्रयोग धूमिल ने अकविता के कवियों से भिन्न सन्दर्भ और भिन्न ढंग से किया है। धूमिल की कविता मे ऐसे शब्द कुछ इस तरह आते हैं जैसे गांव के लोगों की सामान्य बातचीत के बीच अनायास का सहज भाव है।“
ठेठ बनारसी अंदाज
आलोचक प्रियदर्शन कहते हैं कि मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद धूमिल हमारे जटिल समय के ताले खोलने वाली तीसरी बड़ी आवाज हैं। जो बम मुक्तिबोध के भीतर कहीं दबा पड़ा है और रघुवीर सहाय के यहां टिकटिक करता नजर आता है, धूमिल की कविता तक आते-आते जैसे फट पड़ता है। कुछ इस तरह कि उसकी किरचें हमारी आत्माओं तक पर पड़ती हैं। कुल मिलाकर धूमिल भदेस कवि भी कहे जाते हैं जो ठेठ बनारसी अंदाज में बेबाकी से अपनी बात कह जाते हैं।