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CAA: हिंदू शरणार्थी कैंप में दर्द के समंदर में उम्मीदों की लहरें
नई दिल्ली के पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी कैंप से लौटकर रतिभान त्रिपाठी
नई दिल्ली: यमुना के किनारे है-मजनूं का टीला। यहां के स्लम इलाके में पसरी झोपड़पट्टियों में रह रहे बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री और पुरुष की आंखों में दर्द का गहरा समंदर है। पाकिस्तान में बसी-बसाई अपनी गृहस्थी छोडक़र झोपड़पट्टियों में रहने का दर्द, अपनी बारह साल से ऊपर के उम्र की बच्चियों को बचाने का दर्द, न बचा पाने का दर्द, बच्चों इस डर से स्कूल न भेजने का दर्द कि कहीं उन्हें धर्म न बदलने को मजबूर कर दिया जाए। पाकिस्तान में उनके घर हैं। खेती-बाड़ी के लिए जमीन भी। लेकिन पाकिस्तान की जिंदगी उनके लिए किसी नर्क से कम नहीं। कोई न कोई बहाना बनाकर ये लोग सीमा पार कर भारत चले आए हैं। यहां यमुना के किनारे गुजर-बसर कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून के बाद इनकी आंखों में उम्मीद की लौ जल उठी है। अपने गुजरे हुए दर्द के खत्म हो जाने की उम्मीद, भारत में नागरिक बनकर सम्मान से जीने की उम्मीद, अपना परिवार और धर्म बचा लेने की उम्मीद। समूची बस्ती में दर्द और उम्मीद का ताना-बाना आज भी पढ़ा जा सकता है। कभी यह दर्द और उम्मीद का रिश्ता पल-पल दिखता है। कभी छोटे, बड़े अंतराल के बाद। लेकिन दर्द और उम्मीद के टूटते-बनते रिश्तों के बीच उम्मीद की विजय गाथा भी यहां पढ़ी जा सकती है। उनके दिल में उम्मीदों की लहरें उछाल मार रही हैं कि एक न एक दिन वह भारत के नागरिक हो जाएंगे और बदहाल जिंदगी जी रहे अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी बुला लेंगे।
भले ही ये लोग गुरबत में जी रहे हैं लेकिन उन्हें हर पर सामने खड़ी मौत नहीं नजर आती। उन्हें अब अपनी जवान होती बेटियों को जबरन उठा ले जाने की डरावनी फिक्र नहीं है। वह भले ही पक्के मकानों में नहीं रह रहे हैं लेकिन यहां वह आजादी से अपने देवी-देवताओं की पूजा कर सकते हैं। होली खेल सकते हैं। फगुआ गा सकते हैं। दिवाली पर लक्ष्मीपूजन करके दिये जला सकते हैं। इस झोपड़पट्टी के बुजुर्ग और जवान सुबह के दस बजे के आसपास रोजी-रोटी की तलाश में निकल पड़ते हैं। शाम को जब लौटते हैं तो जेब में कुछ रुपये होते हैं जो उनकी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करके को भले ही नाकाफी हों, पर सुकून की दो रोटियां तो देते ही हैं। सुबह घर से निकल जाने के बाद उन्हें यह चिंता नहीं सताती कि शाम को घर लौटने पर बेटी या औरत के अगवा होने की मनहूस खबर मिलेगी। उन्हें इस बात की तसल्ली है कि वह एक न एक दिन भारतीय नागरिक कहलाएंगे, जिसका उन्हें गर्व होगा। इन लोगों को यह तसल्ली हाल में ही नागरिकता संशोधन कानून लागू होने के बाद मिली है।
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समस्याओं का अंबार, सवालों के घेरे
तकरीबन साढ़े सात सौ की आबादी वाली मजनूं का टोला झोपड़पट्टी में घुसते ही जो नजारा दिखता है वह न केवल दिल्ली के लुटियंस जोन के रिहाइशी इलाकों का मखौल उड़ाता है, वरन देश की सबसे बड़ी पंचायत से सवाल भी करता नजर आता है। ऐसे ही ‘मिनी हिंदू पाकिस्तान’ दिल्ली के कई इलाकों में हैं। प्रह्लाद नगर, सेक्टर 11 रोहिणी, आदर्श नगर, गोपालापुर और नया ब्रिज के पास भी ऐसी ही झोपड़पट्टियां हैं जहां पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी गुजर-बसर कर रहे हैं।
इन्हीं कुछ इलाकों में अफगानिस्तान से जान बचाकर भागे सिख शरणार्थी और कुछ बांग्लादेश से आए हिंदू भी हैं पर ज्यादा संख्या पाकिस्तानी हिंदुओं की है। ये लोग जैसे तैसे अपनी जान बचाकर भाग तो आए हैं पर नागरिकता न होने से किसी भी सरकारी सुविधा के हकदार नहीं हैं। वीजा अवधि बढ़ाने के लिए बार बार सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने पड़ते हैं। सरकार रहम जरूर करती है कि उन्हें देश से निकालती नहीं। दिसंबर 2019 में संसद में विधेयक पारित हो गया। कानून भी बन कर प्रभावी हो गया। विपक्षी दल इस पर हंगामा काटे पड़ा है। लेकिन शरणार्थी कैंप में पहुंचने पर विपक्ष के दावे स्वयं यही ‘पाकिस्तानी’ खारिज कर देते हैं और वह भी अपने अकाट्य तर्कों से।
जिंदगी की जद्दोजहद
पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी कैंप में गुल्ली डंडा, छुपम छुपाई खेलते और एक दूसरे को दौड़ाते बच्चे दिखते हैं। पूछने पर कोई अपना नाम भारत बताता है तो कोई किसना। कोई बच्ची आरती है तो कोई दया। कुछ तो दो चार साल की उमर में अपने मां-बाप के साथ यहां पहुंच गए थे तो कुछ यहीं पैदा हुए। पास ही दरवाजे पर खड़ी शांती बताती है कि वह पाकिस्तान के हैदाराबाद जिले के हाला शहर से आई है। शांती की आंखें डबडबा उठती हैं। कहती है, बीच शहर में अपना मकान था। अच्छा खासा घर था। लेकिन मुसलमान जीने नहीं देते थे। हम न वहां पूजा पाठ कर सकते थे और न ही त्योहार मना पाते थे। जो कुछ करते थे, छिपाकर अपने घर के भीतर करते। तीन बेटे और तीन बेटियां हैं। बेटियां बड़ी हो रही थीं। चिंता थी कि जैसे ही ये बारह - चैदह साल की होंगी, गुंडे जबरन उठा ले जाएंगे। थाने या अदालत पहुंचो तो पुलिस कहती है कि ‘क्यों नहीं बन जातीं मुसलमान। बन जाओ तो कोई परेशानी नहीं होगी।’ हमारे पास धर्म बचाने के लिए वहां से भागने के सिवा कोई चारा नहीं था। गाय-भैंस थी। पति किशन ने चैदह-पंद्रह लाख की गाड़ी खरीदी थी। उससे अच्छा खासा कारोबार चलता था लेकिन मुसलमान जीने नहीं देते थे।
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शांती खुद ही सवाल कर बैठती है कि, ‘आप ही बताओ जब चिडिया अपना घोंसला नहीं छोड़ती, तो हम तो इंसान हैं। हम यूं ही नहीं छोड़ आए। लगा कि जिंदगी रहेगी तो मकान भी होगा, गाड़ी भी होगी। कहती है औने पौने दाम में गाड़ी बेची और बुजुर्ग सास ससुर को छोडकर चले आए। वीजा बनाने के नाम पर पाकिस्तानी अफसरों ने गाड़ी के आधे रुपये रिश्वत में ले लिये। हरिद्वार जाने के बहाने निकले तो फिर वापस नहीं हुए। जाएंगे तो मार दिए जाएंगे। बच्चों का कत्ल कर देंगे गुंडे।’
पाकिस्तान में हिंदुओं की जान खतरे में
सिंध से आए ग्वालदास बताते हैं कि पाकिस्तान में हिंदुओं की जान हर पल खतरे में रहती है। हम भी कुंभ मेला जाने के बहाने भागे तो फिर वापस नहीं गए। ग्वालदास बुजुर्ग हैं, भगवा धारण कर रखा है और गले में रुद्राक्ष की माला भी है। माथे पर तिलक है। भाषा सिंधी है लेकिन टूटी फूटी हिंदी बोलते हैं। बात बात पर सिंधी के शब्द निकलते हैं तो फिर कुछ हिंदी शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात समझाते हैं। कहते हैं, हम पाकिस्तान में न तो चंदन टीका लगा सकते हैं, न खुलेआम पूजा पाठ कर सकते हैं। मंदिर तोड़ दिए गए इसलिए अब वहां कोई हिंदू मंदिर नहीं बनाता। बनाए तो मार दिया जाता है।
देवी देवताओं की मूर्तियां तोड़ देते हैं। वह बताते हैं कि हमारे पुरखे चित्तौडगढ़ के थे। राणा के वंशज हैं हम सब। वहां जाकर बस गए थे। देश के बंटवारे के बाद वहां हिंदुओं का जीना मुहाल है। 2012 में कुंभ मेला जाने के नाम पर पाकिस्तान से हम परिवार के साथ आ गए तो फिर वापस नहीं गए। कैसे जाएं? स्कूल में बच्चों को पढ़ा नहीं सकते। वहां कलमा पढ़ाते हैं और बच्चों को गाय का गोश्त खिलाते हैं। हम हिंदू हैं, ऐसा कैसे कर सकते हैं। मर जाना पसंद करेंगे लेकिन गाय का गोश्त नहीं खाएंगे। बच्चों को पढ़ाएंगे नहीं लेकिन कलमा नहीं पढने देंगे। किशन बताते हैं कि यही वजह कि पाकिस्तान में रहने वाले वो गरीब हिंदू अनपढ़ रह गए हैं। हमारे बच्चे अब यहां आकर पढने लगे हैं। वहां मंदिरों में गाय काटकर गोश्त रख देते हैं। अपना दीन पढ़ाते हैं। हम मुसलमान नहीं बनना चाहते थे, इसीलिए मुल्क छोडकर भागना पड़ा।
पाकिस्तान में हिंदुओं से भारी भेदभाव
पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ हिंसा तो होती ही है, पढ़े लिखे लोग भी ऐसा भेदभाव करते हैं कि मानवता शर्मसार हो जाए। इसकी मिसाल देते हुए पाकिस्तान के हैदराबाद से आए किशन मल बताते हैं कि पढ़ाई के लिए वह जैसे तैसे स्कूल जाने लगे। स्कूल में एक दिन टीचर ने पानी मांगा। मैंने टीचर को मटके से पानी का गिलास भरकर दिया।
उस टीचर ने पानी भरा गिलास फेंक दिया। फिर उस टीचर ने एक मुसलमान लडके से पानी मंगाकर पिया। मैंने टीचर से पूछा सर आपने मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पिया। उसने कहा कि तुम हिंदू हो, पानी क्यों लाए। मैंने कहा कि मैंने तो आपके हुकुम का पालन किया था। इस सवाल पर वह टीचर मेरी ओर घूरकर देखने लगा। ऐसा होता है वहां हिंदुओं के साथ। ऐसी है वहां के हिंदुओं की जिल्लत भरी जिंदगी।
सीएए के विरोधियों को शर्म आनी चाहिए
किशन मल भारतीय नागरिकता कानून का विरोध करने वालों के बारे में कहते हैं कि यह विरोध वह लोग कर रहे हैं जिन्हें भारतीय नागरिक होने पर गर्व बिलकुल नहीं है। इन्हें भारत से प्यार नहीं है। मोदी जी ने किसी की नागरिकता छीनी थोड़ी है। वह तो नागरिकता दे रहे हैं।
नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को शर्म आनी चाहिए। दरअसल वह पाकिस्तान में अपने हिंदू भाइयों का दर्द न तो समझते हैं और न ही समझना चाहते हैं।
वह भारत से कुछ ज्यादा नहीं चाहते
ताराचंद कहते हैं कि हम भारत सरकार से ज्यादा कुछ नहीं चाहते। नागरिकता मिलने के बाद हमारी इच्छा यही है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी जी हमें खेती करने के लिए कुछ जमीनें दे दें, हम अपना काम चला लेंगे। हम किसान हैं। पढ़े लिखे तो हैं नहीं।
मेहनत करके अपने परिवार पाल लेंगे। वे अपना पाकिस्तानी पासपोर्ट दिखाते हैं, कहते हैं कि यह कागज लेकर हमें रोज रोज होम मिनिस्ट्री के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। हमारे परिवार वहां से नहीं आ पाए। उनका वीजा नहीं बन पा रहा। पाकिस्तान में कोई हिंदू रहना नहीं चाहता।
केजरीवाल से बहुत शिकायत
पाकिस्तानी नागरिकों को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से बहुत शिकायत है। वह कहते हैं कि हम लोगों ने बिजली के लिए कई बार केजरीवाल जी से निवेदन किया लेकिन हमारी नहीं सुनी गई। वह हां तो करते हैं, मना नहीं करते लेकिन बिजली की समस्या बनी हुई है। हम पाकिस्तान ऐसे छोडकर नहीं आए।
बहुत तकलीफ थी। हम पासपोर्ट वीजा के साथ यहां आए हैं, कोई घुसपैठिया नहीं हैं। यहां कितनी कालोनियां पास हो चुकी हैं दिल्ली में। हमारी मजनूं टोला वाली कालोनी पास होनी चाहिए? यह जमुना का किनारा है। हमारे धर्म के हिसाब से भी अच्छा है कि सुबह सुबह हम जमुना जी को नमस्कार कर लेते हैं।
सरकार ने शुरू कर दी है आंगनबाड़ी
दिल्ली सरकार ने इनकी समस्याओं पर बहुत ध्यान तो नहीं दिया लेकिन छोटे छोटे बच्चों के लिए दो साल पहले आंगनबाड़ी शुरू कर दी है। एक झुग्गी में निगाह पड़ी तो आंगनबाड़ी प्रभारी ममता रानी और उनकी सहायिका रमा बच्चों को एक लाइन में बैठाकर खाना परोसती नजर आईं। पूछने पर ममतारानी ने बताया कि यहां पर करीब तीस बच्चे आते हैं, जिन्हें पढना लिखना सिखाया जा रहा है। उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जाता है क्योंकि पाकिस्तान से आए इन बच्चों के माता पिता भी अनपढ़ हैं। उन्हें सेहत और साफ सफाई के बारे में कहा जाता है।
कानून बनते ही पाकिस्तान में दो हिंदू बच्चों का कत्ल
दया भारती नाम की लडक़ी दौड़ती हुई आती है। वह मोबाइल पर एक वीडियो दिखाती है। यह वीडियो पाकिस्तान में उस दिन का है, जिस दिन संसद में नागरिकता संशोधन कानून पास हुआ। वहीं पर खड़े किशन और ताराचंद बताते कि जिस दिन भारत में नागरिकता कानून बना, पाकिस्तान के हिंदू बहुत खुश हुए। वहां के मुसलमानों से यह खुशी देखी नहीं गई। उन लोगों ने उसी दिन दो बच्चों की हत्या कर दी।
और नाम रख दिया नागरिकता
जिस दिन यहां की संसद में कानून बना, उसी दिन इस कॉलोनी में एक मीरा नाम की महिला ने बच्ची को जन्म दिया। कानून की चर्चा सुनते ही खुशी में परिवार के सदस्यों ने नवजात बच्ची का नाम ही ‘नागरिकता’ रख दिया। इससे पहले मीरा को दो साल का बेटा भी है, जिसका नाम उसने ‘भारत’ रखा है क्योंकि वह उसके पाकिस्तान से भारत आने पर यहीं पैदा हुआ था।
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सिंध प्रांत के हैदराबाद से आए तारो बागड़ी अपनी व्यथा बताते हुए रुआंसे हो जाते हैं। वह बताते हैं - ‘हम राजपूत हैं। अपना ईमान धरम कैसे न बचाएं। हम पांच भाई हैं। जैसे तैसे यहां चले आए। पहले तो हर महीने पुलिस के पास जाकर हाजिरी लगाते थे लेकिन अब जब से नरेंद्र मोदी जी के नागरिकता कानून की बात शुरू हुई तो हाजिरी नहीं देनी पड़ती। हमारे तीन भाई मिस्त्रीगीरी करके अपना गुजारा कर रहे हैं। मां और पत्नी भी हैं। हमारे परिवार के 16 लोग हैं। दयाराम की कहानी भी कुछ ऐसी ही है जो हैदराबाद जिले के मटियारी गांव से अपनी खेती बाड़ी छोडक़र परिवार के सात सदस्यों के साथ चले आए।
महादेव अडवाणी बताते हैं कि वह 483 तीर्थयात्रियों के जत्थे के साथ आए थे। पांच साल से लौटे ही नहीं। माता-पिता वहीं रह गए। अपने बुजुर्ग माता पिता की बहुत याद आती है। पत्नी और तीन बच्चे साथ आ गए थे। सब अपने बुजुर्गों को याद कर चिंतित हो जाते हैं लेकिन यह डर सता रहा है कि लौटे तो मार दिए जाएंगे। हिंदुस्तान अपना देश है। यहां हम मेहनत मजदूरी करके कमा खा लेंगे लेकिन पाकिस्तान में जिल्लत की जिंदगी नहीं जी सकते। जहां बेटियों के चैदह बरस की होते ही मुस्लिम उठा लेते हैं। जबरन मुसलमान बनाकर निकाह कर लेते हैं। अगर परिवार का कोई सदस्य विरोध करे तो सबके सामने में उसका गला रेत देते हैं। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं इसलिए कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं करता। वहां हिंदू धर्म नाम मात्र के लिए ही है। हिंदुस्तान में तो मुसलमान शानदार जिंदगी जी रहे हैं। यहां सबको सब सुविधाएं हैं। वहां हिंदू अल्पसंख्यक है और दिनों दिन और भी अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। जो हिंदू वहां 20 से 25 फीसदी थे, अब मुश्किल से तीन चार फीसदी बचे हैं। यहां तो मुसलमानों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।