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जानिए मुगल शासक हुमायूं की मृत्यु पर क्यों है मतभेद, ऐसा है पूरा इतिहास
। मुगल साम्राज्य का पहला एवं आखिरी शासक जिसने अपने भाइयों में साम्राज्य को विभाजित कर दिया था। कहा जाता है राज्यारोहण के शुरुआती दिनों में हुमायूं को सबसे बड़ी चुनौती अफगानों ने दी थी।
लखनऊ : हुमायूं एक प्रसिद्ध मुगल शासक के रूप में जाना जाता है। मुगल साम्राज्य की नींव पर आज भी इनके योगदान को सराहा जाता है। हुमायूं का मूल नाम नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं था। यह मुगल साम्राज्य का एक ऐसा शासक था जो बहुत ही उदारवादी था। जिसने अपने साम्राज्य को अपनी मृत्यु से पहले अपने भाई कामरान,असकरी और हिन्दाल में बराबर बांट दिया जिससे आगे चलकर भाइयों के बीच कोई लड़ाई ना हो। इन्होंने अपने शासन काल में कई युद्ध किए। इन युद्धों को लोग आज भी याद करते हैं। आज यानी 27 जनवरी 1556 में इनकी मृत्यु हुई थी लेकिन इनकी मृत्यु की तारीख को लेकर काफी मदभेद देखने को मिले हैं। इस शासक से जुड़े कई युद्ध, कई किस्सों को जानते हैं।
हुमायूं काफी उदारवादी शासक था
नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं का जन्म 6 मार्च 1508 में हुआ था। इनके पिता बाबर जो मुगल सम्राट के प्रथम शासक थे। अपने पिता की मृत्यु के तीन दिन बाद 1530 में हुमायूं का राज्याभिषेक कराया गया जो की आगरा में हुआ था। मुगल साम्राज्य का पहला एवं आखिरी शासक जिसने अपने भाइयों में साम्राज्य को विभाजित कर दिया था। कहा जाता है राज्यारोहण के शुरुआती दिनों में हुमायूं को सबसे बड़ी चुनौती अफगानों ने दी थी। हुमायूं का सबसे बड़ा शत्रु गुजरात का शासक बहादुरशाह था।
कालिंजर अभियान 1531
हुमायूं ने अपने शासन में अपना पहला युद्ध लड़ा था जो कालिंजर अभियान था। आपको बता दें कि कालिंजर एक किला था जो काफी अभेद (जिसे किसी दुश्मन ने जीत न पाया हो ) किला था। यह युद्ध इन्होंने अपने शासन काल के एक साल बाद लड़ा था। इस युद्ध को करने का मकसद गुजरात के शासक बहादुरशाह को रोकना था। किन्तु हुमायूं इस शासक को रोकने में असफल रहा। लेकिन रायसेन का किला जीतने में सफल रहे।
दोहरिया का युद्ध 1532
हुमायूं का यह दोहरिया युद्ध काफी याद किया जाता है। इस युद्ध में हुमायूं ने सर्वप्रथम महमूद लोदी को पराजित किया था। इसके बाद चुनार के किले की घेरेबंदी की। जो पहली बार की थी। आपको बता दें कि यह घेराबंदी शेर खां के अधीन थी। शेर खां उस समय हुमायूं का सबसे बड़ा शत्रु था। इस चुनार किले को 4 महीने तक घेरेबंदी की थी। उस समय घेरेबंदी एक सफल प्रयास होता था। उसके बाद शेर खां ने हुमायूं की अधीनता को स्वीकार कर अपने पुत्र क़ुतुब खां को मुगल सेना में भेज दिया।
बहादुरशाह से युद्ध
हुमायूं और बहादुरशाह के बीच 1535 में सारंगपुर में युद्ध हुआ। इस युद्ध में बहादुरशाह की हार हुई और वह मांडू भाग गया। उसके बाद गुजरात का शासक बहादुरशाह ने मेवाड़ को अपनी शर्तों पर संधि के लिए विवश कर दिया। आपको बता दें कि मेवाड़ पर उस समय सिसोदिया वंश के अल्पायु शासक विक्रमादित्य का शासक था। गुजरात के शासक बहादुरशाह ने बेहतर तोपखाने के निर्माण के लिए टर्की के तोपची रमी खां की सहायता ली। जिसके बाद बहादुरशाह के इस आक्रमण के समय मेवाड़ की राजमाता कर्णवती ने हुमायूं के पास राखी भेजकर उसके विरुद्ध बहादुरशाह से सहायता मांगी। बहादुरशाह के एक काफिर राज्य की सहायता न करने के निवेदन को हुमायूं द्वारा स्वीकार कर लिया गया। फिर एक वर्ष बाद बहादुरशाह ने पुर्तगालियों के सहयोग से पुनः 1536 में गुजरात एवं मालवा पर अपना अधिकार कर लिया। फरवरी 1537 में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई।
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शेर खां से युद्ध
हुमायूं ने 1537 में एक बार फिर चुनार के किले पर घेराबंदी कर दी। शेर खां के पुत्र कुतुब खां ने हुमायूं को छह महीने तक किले पर अधिकार नहीं करने दिया। आपको बता दें कि अंत में हुमायूं ने अपने कूटनीति के तरीके से चुनार के किले पर अपना अधिकार कर लिया। चुनार के किले पर सफलता पाने के बाद हुमायूं ने बंगाल पर अपनी विजय प्राप्त की। 15 अगस्त 1538 को जब विजय के बाद हुमायूं गौड़ क्षेत्र में प्रवेश किया तो वहां पर चारों तरफ उजाड़ और लाशों के ढ़ेर बिछे हुए थे। जिसके बाद हुमायूं ने इस जगह का पुनर्निर्माण कर इस जगह का नाम जन्नताबाद रखा।
चौसा का युद्ध
हुमायूं और शेर खां की सेनाओं के बीच गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित चौसा का युद्ध हुआ था। इस युद्ध में मुगल साम्राज्य की काफी तबाही हुई थी। यह युद्ध हुमायूं अपनी गलतियों से हारे थे। आपको बता दें कि हुमायूं ने जिस भिश्ती की मदद से गंगा नदी को पार कर अपनी जान बचाई थी उस भिश्ती को हुमायूं ने एक दिन का दिल्ली का बादशाह बना दिया था। चौसा युद्ध में सफल होने के बाद शेर खां ने अपना नाम बदलकर शेरशाह कर लिया था। अपने नाम के खुतबे खुदवाने और सिक्के ढलवाने का आदेश दिया था।
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हुमायूं की मृत्यु
मुगल शासक हुमायूं दिल्ली की सल्तनत पर बैठने के बाद कुछ दिनों बाद यह शासक अपने पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण इनकी मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु 27 जनवरी 1556 में हुई थी लेकिन इनकी मृत्यु की तारीख को लेकर कई मतभेद देखने को मिल रहे हैं। कई इतिहास की किताबों में इनकी मृत्यु की तारीख 22 जनवरी को बताई जा रही है, कही यह तारीख 26 जनवरी बताई जा रही है। हुमायूं की मृत्यु पर इतिहासकार लेनपूल ने कहा कि " हुमायूं जीवनभर लड़खड़ाता रहा और अंत में लुढ़ककर अपनी जान गवां बैठा। " अबुल फजल ने हुमायूं को इंसान -ए - कामिल की उपाधि से संबोधित किया और बताया कि हुमायूं ज्योतिष में काफी अटूट विश्वास रखता था।
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