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जिस सुबह ने छीन ली थी आयरन लेडी की सांसे, जानते हैं उनके आखिरी पलों की कहानी

देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहते है। प्रधानमंत्री के रुप में वो पावरफूल महिला थी।अपने देश हित में सशक्त निर्णय के लिए जानी जाती थी।31 अक्टूबर 1984 को गोलियों से छलनी करके उनकी हत्या कर दी गई थी।

suman
Published on: 30 Oct 2019 5:42 PM GMT
जिस सुबह ने छीन ली थी आयरन लेडी की सांसे, जानते हैं उनके आखिरी पलों की कहानी
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देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहते है। प्रधानमंत्री के रुप में वो पावरफूल महिला थी।अपने देश हित में सशक्त निर्णय के लिए जानी जाती थी।31 अक्टूबर 1984 को गोलियों से छलनी करके उनकी हत्या कर दी गई थी। अपनी मौत से एक दिन पहले वो उड़ीसा दौरे से लौटी थी। दूसरे दिन उनका कोई प्रोग्राम नहीं था सिवाय आइरिश फिल्म डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव से मुलाकात के अलावा।

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हत्या वाले दिन का शेड्यूल

हत्या वाले दिन इंदिरा गांधी 7.30 बजे तक तैयार होकर केसरिया रंग की साड़ी पहनी थी जिसका बॉर्डर काला था। वो उस दिन नाश्ते में उन्होंने दो टोस्ट, सीरियल्स, संतरे का ताज़ा जूस और अंडे ले चुकी थी। फिर अपने पहले अपॉएंटमेंट पीटर उस्तीनोव के साथ मिलने की तैयारी करने लगी था जो इंदिरा गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे । उस दिन 9 बजकर 10 मिनट पर जब इंदिरा गांधी बाहर आईं तो ख़ुशनुमा धूप खिली हुई थी।

उन्हें धूप से बचाने के लिए सिपाही नारायण सिंह काला छाता लिए चल रहे थे। उनसे कुछ क़दम पीछे आरके धवन और उनके भी पीछे थे इंदिरा गांधी के निजी सेवक थे नाथू राम।

इंदिरा गांधी एक अकबर रोड को जोड़ने वाले विकेट गेट पर पहुंची तो वो धवन से बात कर रही थीं।उसी समय सुरक्षाकर्मी बेअंत सिंह ने अपनी रिवॉल्वर निकालकर इंदिरा गांधी पर फ़ायर किया। गोली उनके पेट में लगी। इंदिरा ने चेहरा बचाने के लिए अपना दाहिना हाथ उठाया लेकिन तभी बेअंत ने प्वॉइंट ब्लैंक रेंज से दो और फ़ायर किए। ये गोलियाँ उनकी बग़ल, सीने और कमर में घुस गईं।

इंदिरा गांधी को गिरते हुए देख वो दहशत में आ गए अपनी जगह से हिले तक नहीं। तभी बेअंत ने उसे चिल्ला कर कहा गोली चलाओ। सतवंत ने तुरंत अपनी ऑटोमैटिक कारबाइन की सभी पच्चीस गोलियां इंदिरा गांधी के शरीर के अंदर दाग दी। बेअंत सिंह का पहला फ़ायर हुए पच्चीस सेकेंड बीत चुके थे और जब तैनात सुरक्षा बलों की ओर से सबसे पीछे चल रहे रामेश्वर दयाल ने आगे दौड़ना शुरू किया। सतवंत की चलाई गोलियां उनकी जांघ और पैर में लगीं और वो वहीं ढेर हो गए। तभी एक अकबर रोड से एक पुलिस अफ़सर दिनेश कुमार भट्ट ये देखने के लिए बाहर आए कि ये कैसा शोर मच रहा है।उस वक्त के एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट के अनुसार, इंदिरा गांधी को जमीन से उठाकर आरके धवन और सुरक्षाकर्मी दिनेश भट्ट ने सफ़ेद एंबेसडर कार की पिछली सीट पर रखा। कार चलने लगी तभी सोनिया गांधी नंगे पांव, अपने ड्रेसिंग गाउन में मम्मी-मम्मी चिल्लाते हुए भागती हुई आईं।

इंदिरा गांधी की हालत देखकर वो उसी हाल में कार की पीछे की सीट पर बैठ गईं। उन्होंने ख़ून से लथपथ इंदिरा गांधी का सिर अपनी गोद में ले लिया।

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मौत के कई घंटे बाद मृत घोषित

कार बहुत तेज़ी से एम्स की तरफ़ बढ़ी। चार किलोमीटर के सफ़र के दौरान कोई भी कुछ नहीं बोला। सोनिया का गाउन इंदिरा के ख़ून से भीग चुका था। एमरजेंसी वार्ड का गेट खोलने और इंदिरा को कार से उतारने में 3 मिनट लगे। वहांपर एक स्ट्रेचर तक नहीं था। किसी तरह एक पहिए वाली स्ट्रेचर का इंतेज़ाम कर उनको कार से उतारा गया,उनकी इस हालत में देख कर वहां तैनात डॉक्टर घबरा गए। डॉक्टर ने उनके मुंह के ज़रिए उनकी सांस की नली में एक ट्यूब घुसाई ताकि फेफड़ों तक ऑक्सीजन पहुंच सके और दिमाग को ज़िंदा रखा जा सके। इंदिरा को 80 बोतल ख़ून चढ़ाया गया जो उनके शरीर की सामान्य ख़ून मात्रा का पांच गुना था। उस वक्त के डॉक्टर गुलेरिया का कहना था कि "मुझे तो देखते ही लग गया था कि वो इस दुनिया से जा चुकी हैं। उसके बाद हमने इसकी पुष्टि के लिए ईसीजी किया। मौजूद तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री शंकरानंद से पूछा कि हम उन्हें मृत घोषित कर दें? उन्होंने कहा नहीं, फिर हम उन्हें ऑपरेशन थियेटर में ले गए।" लेकिन सब कुछ करने के बाद भी इंदिरा गांधी को न बचाया जा सका। उन शरीर में लगीं 31 अक्टूबर की 30 गोलियां उनकी जीवन लीला के खत्म करने के लिए काफी थी।

सिखों पर हमले तेज

उस दिन सुबह से शाम तक बहुत कुछ बदल चुका था। एम्स में एक अजीब सा तनाव बढ़ रहा था। सैकड़ों की तादाद में वहां सिख भी आए थे। पहले इंदिरा गांधी अमर रहे के नारे भी लगा रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो एम्स से हटने लगे। जैसे-जैसे लोगों को ये पता चला कि इंदिरा की हत्या उनके ही दो सिख गार्डों ने की है। नारों का अंदाज भी बदलने लगा। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की कार पर पथराव होने लगे।

लोगों ने कुछ इलाकों में तोड़फोड़ शुरू कर दी थी। हॉस्पिटल के पास से गुजरती हुई बसों में सिखों को खींच-खींच कर बाहर निकाला जाने लगा। दिल्ली में बरसों से रह रहे लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि कभी उनके खिलाफ गुस्सा इस कदर फूटेगा। गुस्से की इस आग में कई सिखों को जान गवानी पड़ी। इस तरह 31 अक्टूबर की सुबह व शाम ने बहुत देखा और अंत जो हुआ उसका गवाह इतिहास बन आज भी हमारे बीच में है। हमें तो अपनो ने लूटा, गैरों में कहा दम था। मेरी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था

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