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किसान आंदोलन में महिलाएं, 8 मार्च को करेंगी ये काम, भारत देगा विश्व को बड़ा संदेश
आठ मार्च किसान आंदोलन के इतिहास का सबसे बड़ा इवेंट बनने जा रहा है जब मंच से लेकर सब कहीं महिलाएं ही आंदोलन का संचालन करती नजर आएंगी।
रामकृष्ण वाजपेयी
दिल्ली की सीमाओं पर 26 नवंबर से किसान आंदोलन जारी है, इस आंदोलन के नये कार्यक्रम के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आठ मार्च को अदृश्य लड़ाई लड़ रही खेती किसानी से जुड़ी महिलाओं को मंच मिलेगा। ये वो महिलाएं होंगी खेत की स्वामी और मजदूर होने के साथ साथ अपने महिला होने की स्थिति के लिए भी संघर्ष कर रही हैं या जूझ रही हैं।
किसान नेताओं ने उनकी आवाज को कृषि कानूनों में बदलाव के आह्वान का हिस्सा बनाने का फैसला किया है। आठ मार्च को जबकि पूरे विश्व की महिलाओं की स्थिति को रेखांकित करता है ऐसे में किसानों के इस आंदोलन में देश की आधी आबादी और खेती बाड़ी में उनकी स्थिति को दुनिया के सामने लाने के लिए इसे एक बड़ी पहल के रूप में देखा जाए और किसानों की आवाज पूरी दुनिया में गूंजे इस नजरिये से यह बड़ी पहल है।
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महिला दिवस पर किसान आंदोलन का नेतृत्व करेंगी महिलाएं
आठ मार्च किसान आंदोलन के इतिहास का सबसे बड़ा इवेंट बनने जा रहा है जब मंच से लेकर सब कहीं महिलाएं ही आंदोलन का संचालन करती नजर आएंगी। खास बात यह है कि यह महिलाएं अपने शरीर पर मेंहंदी से खेती किसानी की झांकी प्रस्तुत करेंगी। इनके हाथों में कृषि कानूनों के खिलाफ नारे होंगे। कृषि उपकरणों के टैटू होंगे। हल, फसल, खेत, खलिहान होगा जो किसानों के संघर्ष को बयां करेगा। किसान आंदोलन के सूत्रधारों को यकीन है कि नेपथ्य में रहने वाली खेतिहर महिलाओं का यह आगाज उनके आंदोलन को नई जान फूंक देगा।
गांवों में बसने वाली महिलाओं की आबादी की 80%
देश में खेती किसानी का काम गांव से दूर रहने वाले लोग अमूमन पुरुषों का मानते हैं लेकिन आपको ये जानकर हैरत होगी कि खेतों में सक्रिय रूप में गांवों में बसने वाली महिलाओं की आबादी की 80% महिलाएं काम करती हैं। चौंकाने वाली बात यह भी है कि खेतों में काम करने वाले लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33 फीसदी की है।
आत्मनिर्भर किसानों में 48 फीसदी हिस्सेदारी महिलाओं की
अगर आत्मनिर्भर किसानों की बात की जाए तो इनमें महिलाओं की हिस्सेदारी 48 फीसदी की है। ऐसा ऑक्सफोम की रिपोर्ट कहती है। इसके बावजूद खेती की जमीन पर महिलाओं का नियंत्रण सिर्फ 13 फीसद है।
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ऐसा नहीं है कि घाटे की खेती या कर्ज से परेशान होकर सिर्फ पुरुष किसानों ने आत्महत्या की है आंकड़े बताते हैं कि इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की भी है। इसके अलावा एक रिपोर्ट को अगर सच मानें तो 2012 से 2018 के दौरान महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ जिलों की 40 फीसदी ऐसी महिला किसानों को अब तक जमीन का स्वामित्व नहीं मिल पाया है जिनके पतियों ने कर्जे के चलते आत्महत्या की थी।
औरतें 3,485 घंटे काम करती हैं
खेतों में काम करने में भी महिलाएं, जानवरों क्या- पुरुषों से भी चार हाथ आगे हैं। संयुक्त राष्ट्र की खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट है कि हिमालय क्षेत्र के गांवों में एक साल में एक हेक्टर खेत में बैलों की जोड़ी 1,064 घंटे काम करती है, पुरुष 1,212 घंटे काम करते हैं और औरतें 3,485 घंटे काम करती हैं। यह खेतों में काम करने वाली महिला शक्ति की क्षमता और उत्पादकता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या में 24% का इजाफा
इसके अलावा खेती से जरूरतों की पूर्ति न होने पर जब गांव से पुरुषों का पलायन होता है तो खेती की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही आती है। 2011 की जनगणना कहती है कि 2001 से 2011 के बीच महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या में 24% का इजाफा हुआ। यह 4 करोड़ 95 लाख से बढ़कर 6 करोड़ 16 लाख हो गई। अगर लगभग 9 करोड़ 80 लाख महिलाएं खेती से जुड़े रोजगार करती हैं तो उनमें से 63 प्रतिशत खेतिहर मजदूर हैं यानी दूसरे के खेतों में काम करती हैं।
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ऐसे में कृषि क्षेत्र का स्त्री पक्ष मंच पर लाने का साहस किसान आंदोलन में ऩई जान फूंक सकता है और स्त्रियों के बदलाव का निर्णायक मोड़ भी हो सकता है।