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महिला दिवस: यहां औरतें लेती हैं सभी फैसले, बेटियां होती हैं संपत्ति की उत्तराधिकारी
भारत में मेघालय राज्य में खासी समुदाय महिलाओं के अधिकार का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है। राज्य की 30 लाख की आबादी में करीब 25 फीसदी खासी हैं जो राज्य के जयंतिया और गारो समुदाय के साथ यहां रहते हैं। ये सभी समुदाय मातृसत्तात्मक हैं।
नीलमणि लाल
नई दिल्ली: ज्यादातर जगहों पर पुरुषों की ही चलती है, लेकिन कुछ ऐसी भी जगहें और समुदाय हैं, जहां महिलाओं के पास पुरुषों जैसे ही अधिकार हैं। महिलाओं की आवाज बुलंद है और फैसलों में भी इनकी समान भागदारी है। भारत में मेघालय राज्य में खासी समुदाय महिलाओं के अधिकार का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है। राज्य की 30 लाख की आबादी में करीब 25 फीसदी खासी हैं जो राज्य के जयंतिया और गारो समुदाय के साथ यहां रहते हैं। ये सभी समुदाय मातृसत्तात्मक हैं।
‘खासी’ परंपरा में परिवार का नाम और संपत्ति का उत्तराधिकार परिवार की महिलाओं के साथ चलता है। वंश और रक्त संबंध का जनजातीय विचार अतीत में पौराणिक कथाओं से आया है। जब पुरुष युद्ध करने जाते थे और महिलाओं को घर पर रह कर घर और वंश की देखभाल करनी होती थी। उत्तराधिकार को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि सबसे छोटी बेटी परिवार की संपत्ति की वारिस होती है।
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इन बस्तियों में महिलाएं ही करती हैं शासन
वास्तव में मालिक होने का मतलब यह नहीं है कि वह इसे बेच या खत्म कर सकती है। इसका सिर्फ यही मतलब है कि वह वंश विरासत की संरक्षक है। महिलाएं ही इन बस्तियों में शासन करती हैं। अकसर वही परिवार की मुखिया होती हैं, वो सार्वजनिक रूप से भी नेतृत्व करती हैं और ज्यादातर परिवार की आर्थिक जरूरतों की जिम्मेदारी उठाती हैं।
गारो समुदाय में मां शब्द एक पदवी की तरह है। परिवार कि सबसे छोटी बेटी को मां अपनी पारिवारिक जायदाद सौंपती है। पहले किशोरावस्था में लड़के अपने माता-पिता का घर छोड़कर गांव की डॉर्मेटरी में रहने चले जाते थे। लेकिन ईसाई धर्म का प्रभाव इन पर पड़ा और अब समुदाय में भी मां-बाप अपने बच्चों को बराबरी के अधिकार और माहौल दे रहे हैं।
खासी समुदाय में लड़की का जन्म जश्न का मौका होता है और वहीं लड़का पैदा होना एक साधारण बात। आमतौर पर परिवार की बड़ी बेटी का परिवार की विरासत पर हक होता है। अगर किसी दंपत्ति के बेटी नहीं होती तो वे लड़की गोद लेकर अपनी जायदाद उसे सौंप सकते हैं। 1997 में खासी सोशल कस्टम ऑफ लिनियेज एक्ट पास किया गया था। इससे मातृसत्तात्मक संरचना का संरक्षण होता है। मेघालय में स्थानीय बाजार महिलाएं ही चलाती हैं और आर्थिक लेन देन भी वही संभालती हैं।
चाम (दक्षिण भारत)
कंबोडिया, वियतनाम और थाईलैंड में भी दक्षिण भारत के चाम समुदाय की मान्यतायें बहुत अधिक प्रचलित हैं। चाम समुदाय भी मातृसत्तात्मक व्यवस्था पर विश्वास करता है और परिवार की जायदाद भी महिलाओं को मिलती है। यहां की लड़कियों को अपने लिये पति चुनने का भी अधिकार है। आमतौर पर लड़की के मां-बाप लड़के के परिवार से बात करते हैं और शादी के बाद लड़के ज्यादातर लड़की के परिवार क साथ रहने जाते हैं।
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मोस (चीन)
मोस समुदाय में लोग महिलाओं के नेतृत्व वाले बड़े परिवारों में रहते हैं। इस समुदाय में पति और पिता जैसे कोई मसला ही नहीं है। यहां के लोग चलते-फिरते विवाह (वाकिंग मैरिज) पर भरोसा करते हैं, जहां पुरुष महिलाओं से मिलने जा सकते हैं, उनके यहाँ रुक सकते हैं लेकिन यहां लोग साथ नहीं रहते। इन शादियों से पैदा हुये बच्चों को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। जैविक पिता की बच्चों को पालने में कोई भूमिका नहीं होती।
मिनांगकाबाऊ (इंडोनेशिया)
करीब 40 लाख की आबादी वाले इंडोनेशिया के इस समुदाय को विश्व का सबसे बड़ा मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता है। मूल रूप से इन्हें जीववादी माना जाता था लेकिन हिंदु और बौद्ध धर्म का इन पर काफी असर पड़ा, कई लोगों ने इस्लाम भी अपना लिया। ये अपने समाज को कुरान पर आधारित मानते हैं, जो महिलाओं को जायदाद पर अधिकार देने और सामुदायिक निर्णय लेने से नहीं रोकता।
पुरुषों को दिक्कतें
मेघालय में बहुत से पुरुषों के लिए इस व्यवस्था का बोझ उठाना मुश्किल हो रहा है। पुरुषों के अधिकार की वकालत करने वाला एक संगठन इस दिशा में आवाज उठा रहा है। सिंगोंग रिमपेई थिमाई नामक इस संगठन का शाब्दिक अर्थ है – ‘डगमगाते घर को रोकने के लिए खूंटा।‘ इस संगठन की जड़ें 1960 के दशक में इसी तरह के बने एक संगठन से जुड़ी हैं। तब जानजातीय बुजुर्गों के एक गुट को लगा कि उनके समुदाय के पुरुष बिल्कुल निराश हो गए हैं। इस गुट में डॉक्टर और टीचर भी शामिल थे। उन्होंने देखा कि खासियों के सामाजिक रीति रिवाज खासतौर से मातृसत्तात्मक तौर तरीके उन्हें झुका रहे थे।
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पुरुष जातें हैं ससुराल
खासी समुदाय की मातृसत्तात्मक परंपराएं भारत में दूसरी जगहों पर मौजूद पितृसत्तात्मक परंपराओं से बिल्कुल उल्टी हैं। अगर कोई खासी पुरुष किसी परिवार की सबसे छोटी लड़की से शादी करता है तो उसे अपने ससुराल में घरजमाई बन कर परिवार के दूसरे लोगों के साथ रहना पड़ता है। इस वजह से बहुत सारे परिवार अपने बेटों पर ज्यादा पैसा खर्च नहीं करते। वो मानते हैं कि बेटे अपने साथ उनका धन भी बीवी के घर ले कर चले जाएंगे। पत्नी के घर भी इस आदमी की बहुत हैसियत नहीं रहती क्योंकि उसकी पत्नी के मामा और दूसरे पुरुष रिश्तेदार वहां अपनी चलाते हैं।
बच्चों को भी मिलता है मां का नाम
सिर्फ इतना ही नहीं इस आदमी का अपने बच्चों पर भी कोई अधिकार नहीं होता क्योंकि उन्हें अपनी मां का नाम मिलता है और वो उसी वंश के कहे जाते हैं। अगर वो कभी मुसीबत में हो और किसी मदद की जरूरत पड़े तो वह सिर्फ अपनी बहन के पास जा सकता है जो पारंपरिक रूप से उसके परिवार की संरक्षक है और उसका ख्याल रखना भी उसी की जिम्मेदारी है। हालांकि इतने पर भी खासी पुरुषों के लिए जिम्मेदारी एक अनजान सी बात है। पुरुष ऐसा महसूस करता है कि वह एक आजाद पंछी है, जो अपनी मर्जी से जो चाहे कर सकता है।
इन सबके नतीजे में खासी महिलाएं अपने समुदाय के पुरुषों को खराब मानने लगी हैं और वो उन्हें छोड़ अपने समुदाय के बाहर के मर्दों से शादी करने लगी हैं। वास्तव में खासी संस्कृति और उसके जीने के तरीके को बचाना ही पुरुषों को उनके अधिकार के लिए अभियान चलाने का मकसद बन कर उभरा है। इस समूह में करीब 5,000 पुरुष और 50 महिलाएं हैं। ये लोग विरासत के अधिकार और नियम बदल कर बच्चों के लिए पिता के नाम की मांग कर रहे हैं।