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दिल्ली हिंसा की तुलना सिख विरोधी दंगे से करना सही है या गलत? यहां जानें

दिल्ली हिंसा में मृतकों की संख्या शुक्रवार को बढ़कर 42 पहुंच गई। धुएं का गुबार छंटने के बाद शहर में तीन दशक के सबसे बुरे हिंसा से हुआ वास्तविक नुकसान अब सामने आ रहा है।

Aditya Mishra
Published on: 29 Feb 2020 9:55 AM GMT
दिल्ली हिंसा की तुलना सिख विरोधी दंगे से करना सही है या गलत? यहां जानें
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नई दिल्ली: दिल्ली हिंसा में मृतकों की संख्या शुक्रवार को बढ़कर 42 पहुंच गई। धुएं का गुबार छंटने के बाद शहर में तीन दशक के सबसे बुरे हिंसा से हुआ वास्तविक नुकसान अब सामने आ रहा है।

वहीं आशंकाओं के बीच लोग काम के लिए घरों से बाहर निकलते दिखे और हिंसा प्रभावित इलाकों में कुछ दुकानें एवं अन्य प्रतिष्ठान भी खुले।

दो दंगों के बीच में कोई तुलना नहीं की जा सकती

लोगों के घरों की दीवारों और सड़कों के ऊपर अभी भी दंगों के निशान देखें जा सकते हैं। लोग अभी भी डरे हुए हैं आलम ये है कि लोग 2020 के दंगों की तुलना 1984 में हुए दंगों से कर रहे हैं लेकिन ये कितना सही है, आइये जानने की कोशिश करते हैं:-

संजय सूरी 1984 में अंग्रेज़ी अख़बार दि इंडियन एक्सप्रेस में बतौर क्राइम रिपोर्टर काम करते थे. उन्होंने 1984 के दंगों को विस्तार से कवर किया और उसकी भयावहता के चश्मदीद भी रहे।

एक इंटरव्यू में सूरी ने कहा, "हर दंगा अपने आप में अलग होता है। दो दंगों के बीच में कोई तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन इतना ज़रूर है कि हर दंगे में क़ानून व्यवस्था पूरी तरह धराशायी हो जाती है।''

सूरी कहते हैं, "1984 में बहुत बड़े स्तर पर हिंसा हुई थी। तब 3,000 से भी ज़्यादा लोग मारे गए थे। अभी 32 लोगों की मौत की ख़बर है, लेकिन इससे दंगों की भयावहता कम नहीं हो जाती। एक भी व्यक्ति का मारा जाना या घायल होना, हमें डराने के लिए काफ़ी होना चाहिए।"

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प्रशासन की ढिलाई

संजय सूरी कहते हैं कि प्रशासन अगर चाहे, तो दंगे शुरू होने से पहले ही स्थिति काबू में कर सकता है। वो कहते हैं, ''प्रशासन के पास इतनी ताकत होती है, इतनी मशीनरी होती है और इतने साधन होते हैं कि अगर वो वाक़ई हिंसा रोकना चाहे, तो बहुत कुछ कर सकता है।"

सूरी कहते हैं कि अगर हिंसा के पूर्वानुमान के बावजूद एहतियाती कदम न उठाए जाएं और दंगों को बेकाबू होने दिया जाए, तो इसका मतलब यह है कि शायद सरकार और प्रशासन दंगों को रोकना ही नहीं चाहते।

वो कहते हैं, ''दिल्ली में जैसे हालात बन रहे थे, जिस तरह भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे और जिस तरह की बातें सोशल मीडिया पर लिखी-बोली जा रही थीं, उन्हें देखकर प्रशासन को अच्छी तरह अंदाज़ा हो गया होगा कि आगे क्या होने वाला है। इसके बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए।''

अब से कुछ वक़्त पहले जब सीएए विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, तब दिल्ली के कई हिस्सों में मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी। लेकिन हाल के तनावपूर्ण हालात के बाद ऐसा नहीं किया गया। अब इस बारे में भी सवाल पूछे जाने लगे हैं।

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1984 में नहीं लगे थे पुलिस ज़िंदाबाद के नारे

1984 में ‘पुलिस ज़िंदाबाद’ के नारे कभी नहीं लगे थे। दिल्ली में छोटी हो या बड़ी, इस तरह की हिंसक घटनाओं में ये नई बात देखी जा रही है।

राहुल बेदी याद करते हैं, ''2002 के गुजरात दंगों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ था। गुजरात दंगों के दौरान तो आर्मी को भी तैनात किया था, लेकिन असल में उसे कार्रवाई के लिए कोई अथॉरिटी नहीं दी गई थी।''

1984 के दंगों को याद करते हुए बेदी बताते हैं, "उस वक़्त भी प्रशासन ने जानबूझकर ऐसा ही किया था। मुझे याद है, इंदिरा गांधी की हत्या बुधवार को हुई थी और आर्मी को शूट ऐट साइट का आदेश शनिवार दोपहर को दिया गया था. तब तक बहुत कुछ तबाह हो चुका था।"

बेदी मानते हैं कि दंगों का यह टेम्पलेट (प्रारूप) साल 1984 में ही बना लिया गया था, जिसे अब अपग्रेड करके इस्तेमाल किया जाता है।

भड़काऊ भाषण

दिल्ली हिंसा के पीछे नेताओं के भड़काऊ भाषणों को भी ज़िम्मेदार माना जा रहा है. कोर्ट ने भी इन भाषणों पर सुनवाई के दौरान काफी कुछ कहा है। अगर 1984 से तुलना की जाए, तो उस वक़्त भी भड़काऊ भाषणों और बयानबाजियों की कमी नहीं थी. तब और अब में जो एक बड़ा फ़र्क है, वो है सोशल मीडिया का।

सिखविरोधी दंगों को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि सोशल मीडिया के ज़रिए अफ़वाहें फैलाई जाती हैं और उस समय लोग गुट बनाकर अफ़वाहें फैलाते थे।

संजय सूरी याद करते हैं, ''इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनका शव तीन मूर्ति भवन लाया गया था। उस समय वहां बसों में भर-भरकर लोग लाए गए थे और ये लोग नारे लगा रहे थे- 'ख़ून का बदला ख़ून से लेंगे'। इन नारों का दूरदर्शन पर लाइव प्रसारण हो रहा था. इसके कुछ ही देर बाद रक़ाबगंज गुरुद्वारे से शुरू हुई हिंसा पूरी दिल्ली में फैल गई।'

1984 में ऐसा नहीं था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, न ही सोशल मीडिया था

जब 1984 हुआ था तब सिर्फ एक पुलिस स्टेशन था- सरकार संचालित दूरदर्शन. उस वक्त इक्का-दुक्का प्रकाशनों को छोड़कर तीन दिन तक चले नरसंहार की अन्य अखबारों ने रिपोर्टिंग नहीं की थी. इस हफ्ते दिल्ली में जो हुआ, उसे अनगिनत टीवी स्टेशनों, फेसबुक,ट्विटर,

वाट्सअप फीड्स और ट्रम्प के दौरे की वजह से इंटरनेशनल मीडिया ने कवर किया। 2020 में सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे वीडियो में पुलिस को भीड़ को कवर करते और लीड करते देखा गया।

देश की राजधानी की पुलिस को अच्छी तरह पता था कि वो कैमरों में कैद हो सकते हैं। इसके बावजूद उन्होंने ये सब किया, ये अधिक फिक्र वाला है।अगर दिल्ली पुलिस से अपेक्षा की जाए कि वो इन वीडियो को प्रमाणित करेगी तो ये मासूमियत के अलावा और कुछ नही होगा।

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Aditya Mishra

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