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गोल्ड मेडलिस्ट के हाथ में फावड़ाः कोरोना का कहर, बनना पड़ा दिहाड़ी मजदूर
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लोग उनकी हौसला अफजाई करते थे, वह शख्स आज इतना बेबस है कि परिवार का खर्च चलाने के लिए हर दिन मजदूरी के लिए निकलता है।
झारखंड: कोरोना संकट मौत का कारण तो बन ही रहा है, साथ लोगों के करियर को भी खत्म कर रहा है। लंबी दौड़ का बेताज बादशाह कोरोना काल में इतना बेबस हो गया कि घर चलाने के लिए उसे 300 रुपये दिहाड़ी पर मजदूरी करनी पड़ रही है। वह देश में जहां भी गया, उसे गोल्ड मेडल ही मिला जिससे उसका घर भरा पड़ा है लेकिन अब झारखंड का यह रेसर फावड़ा हाथ में लेकर मजदूरी कर रहा है।
अर्जुन टुडू के घर पर ट्रॉफी रखने तक की जगह नहीं
एक ऐसा ही उदहारण प्रकाश में आया हैं झारखण्ड के जमशेदपुर में सुदूर आदिवासी बहुल गांव नागडीह का एक होनहार रेसर जिसके घर पर सिर्फ ट्रॉफी ही ट्रॉफी हैं, आज वो पेट पालने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर है। 10 हजार मीटर की ट्रैक एंड फील्ड दौड़ और मैराथन का बेताज बादशाह अर्जुन टुडू के घर पर ट्रॉफी रखने तक की जगह नहीं है। आज वह दाने-दाने को मोहताज है जिसकी वजह से वह दूसरों के यहां 300 रुपये की दिहाड़ी पर काम कर रहा है।
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तालियों की गड़गड़ाहट की जगह अब बेरोजगारी की खामोशी
जहां तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लोग उनकी हौसला अफजाई करते थे, वह शख्स आज इतना बेबस है कि परिवार का खर्च चलाने के लिए हर दिन मजदूरी के लिए निकलता है। वह कहते हैं कि लॉकडाउन के कारण कहीं भी मैराथन हो नहीं रही तो हम पुरस्कार कहां से जीतेंगे और फिर कहां से चलेगा हमारा परिवार।
प्राइज मनी से घर परिवार चलता था
रेसर अर्जुन टुडू की कहानी बहुत ही दुखद है। मैराथन और 10 हजार मीटर के ट्रैक एंड फील्ड रेस में पूरे भारत वर्ष में घूम-घूम कर यह आदिवासी युवक हिस्सा लेता था और जीती प्राइज मनी से अपना घर परिवार चलाता था। वह और उनकी पत्नी चाहते हैं कि यदि उनको कोई नौकरी मिल जाती तो अपने आत्म सम्मान को इस तरह से नहीं खोना पड़ता।
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बता दें कि रेसर अर्जुन टुडू साल 2010 से लेकर आज तक जहां भी रेस में गया, गोल्ड ही जीता है। यही गोल्ड उसके घर में भरा पड़ा है। आज खाने को नहीं है तो वो 300 रुपये की दिहाड़ी की मजदूरी करने को मजबूर है। इस तरह घर चलाना कितना मुश्किल है।