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किसानों के धरना स्थल पर हमला, किसकी है साजिश, क्या भाजपा हो रही है बदनाम
लालकिले पर तिरंगे के अपमान की घटना बदनाम किसान आंदोलन और किसानों के धरनास्थल पर हमला भी हुआ। ये साजिश किसकी थी। क्या भाजपा सही बदनाम हो रही है। या भाजपा को बदनाम करने या किसान आंदोलन को मुददा बनाने के लिए ये हमला हुआ है।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ: गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान दिल्ली में हुई हिंसक घटनाओं का असर कहें या लालकिले पर तिरंगे के अपमान की घटना बदनाम किसान आंदोलन और किसानों के धरनास्थल पर हमला भी हुआ। ये साजिश किसकी थी। क्या भाजपा सही बदनाम हो रही है। या भाजपा को बदनाम करने या किसान आंदोलन को मुददा बनाने के लिए ये हमला हुआ है। आज की तारीख में मुद्दाहीन विपक्षी पार्टियां किसान आंदोलन को मुद्दा बनाकर आगे बढ़ना चाह रही हैं। इसलिए साजिश पर गौर करना जरूरी हो गया है।
दिल्ली हिंसा के बाद बदल गया पूरे देश का मिजाज
दिल्ली में हुई हिंसा के बाद जैसे पूरे देश का मिजाज ही बदल गया। जिन किसानों के समर्थन में लोग खुल कर नहीं आ रहे थे तो विरोध भी नहीं कर रहे थे। लेकिन इस घटना के बाद किसान उनके न सिर्फ निशाने पर आ गये। बल्कि दिल्ली से किसानों को खदेड़ने के लिए हमलावर भी हो गए। क्या ये स्थानीय नागरिक थे या उनके भेष में भाड़े के टट्टू जैसा कि लालकिले और दिल्ली में हुए बवाल की घटनाओं के लिए किसान नेता उन लोगों के लिए किसान होने से इनकार कर रहे हैं।
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दिल्ली हिंसा की व्यापक आलोचना हुई सबका यही कहना था कि जो कुछ भी हुआ किसान आंदोलन के लिए आत्मघाती हुआ तो क्या किसानों ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी या फिर किसान आंदोलन को बदनाम करने की साजिश रची गई। मांगें पूरी हुए बिना किसान आंदोलन खत्म हो जाने से फायदा किसे थे। क्या केंद्र सरकार को मुसीबत से निकालने के लिए भाजपा ने ये किया या फिर ये कोई और था जो किसान आंदोलन की आड़ में अपना मकसद हासिल करने के लिए किसानों को मोहरा बनाकर चला गया।
आंदोलन की शुरुआत में दो पक्ष थे- किसान और सरकार
आंदोलन की शुरुआत में दो पक्ष थे किसान और सरकार। बाद में आसन्न चुनावों को देखते हुए विपक्षी दल सोते से जागे और अलसाते हुए बहुत धीरे धीरे किसान वोट बैंक को भुनाने की कोशिशें चालू हुईं। पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार पर्दे के पीछे से किसानों को आगे करके तीर चलाती रही। आम आदमी पार्टी के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सबसे पहले विवादित कानूनों की प्रतियां फाड़कर किसानों के साथ आए।
कई नेताओं के बयान आने शुरू हुए
इसके बाद कांग्रेस, सपा, बसपा व अन्य नेताओं के बयान आने शुरू हुए। पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों के इस आंदोलन को परदे के पीछे से कुछ अदृश्य ताकतों ने हवा देनी शुरू की। ज्यादा पुरानी बात नहीं है दो महीने पहले की बात है मीडिया में खबरें छपी थीं कि दिल्ली में कड़ाके की ठंड में धरने पर बैठे किसान ठिठुर रहे हैं। समाधान जल्दी हो।
मीडिया के भी सुर बदले
फिर मीडिया के सुर बदल गए खबरें आने लगीं कि धरना स्थल पर मेले का सा दृश्य है। ट्रैक्टर ट्रालियों में गरम कमरे बन गए हैं। मसाज पार्लर खुल गए हैं। तमाम साइबर कैफे। यू ट्यूब चैनल और पंजाबी चैनल वहां डेरा डाले हैं। एनआईए ने भी आंदोलन को होने वाली फंडिंग को सूंघना शुरू किया। संस्थाओं, पत्रकारों और अभिनेता को नोटिस जारी हुए। खालिस्तान मोर्चा की फंडिंग की खबरें भी आईं। इसी के साथ तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली तक आए किसान सरकार के साथ 11 दौर की बातचीत में हर बात पर न जी के अंदाज में सिर हिलाने को लेकर सख्त होते गए।
आंदोलन को अलगाववादियों की फंडिंग के आरोप पर किसान नेताओं ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं हैं गांवों से चंदा इकट्ठा किया जा रहा है जिससे आंदोलन का खर्चा पानी चल रहा है। इसके बाद ट्रैक्टर रैली हाइजैक कर ली जाती है और किसान नेता स्वीकारते हैं कि ट्रैक्टर रैली पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था।
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क्या ये मिली भगत की साजिश थी या किसान नेता सही हैं जितना येसवाल महत्वपूर्ण है उतना ही ये भी महत्वपूर्ण है कि क्या भाजपा के कुछ दूसरे दर्जे के नेता किसानों पर हमलावर हुए या फिर इसमें किसी राजनीतिक पार्टी ने मौका देख कर किसानों को भड़काऩे के लिए अवसर खोज लिया। वजह चाहे जो हो जांच दोनो घटनाओं की होनी चाहिए और किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं को भी बातचीत से जल्द से जल्द इस मामले को सुलझाना चाहिए। इस आंदोलन का लंबे समय तक चलना न तो देश के हित में है न ही किसानों के हित में।