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किसान आंदोलनः हर कदम पर फेल हुई प्रोपेगंडा रणनीति, सरकार को मिली शिकस्त

किसान आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ने की सरकार और उसके संगठनों की रणनीति निसंदेह फ्लाप रही और किसान संगठनों ने राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह के इस गुब्बारे की हवा निकाल दी और सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा।

SK Gautam
Published on: 12 Jan 2021 10:28 AM GMT
किसान आंदोलनः हर कदम पर फेल हुई प्रोपेगंडा रणनीति, सरकार को मिली शिकस्त
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किसान आंदोलनः हर कदम पर फेल हुई प्रोपेगंडा रणनीति, सरकार को मिली शिकस्त

रामकृष्ण वाजपेयी

किसान आंदोलन से उपजे गतिरोध को खत्म करने के लिए सर्वोच्च अदालत ने तीन किसान कानूनों पर रोक लगा दी है और चार सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया है। सर्वोच्च अदालत ने ये कदम किसान नेताओं की आपत्ति को दरकिनार कर उठाया है। अदालत का कहना है कि यह कमेटी मध्यस्थता नहीं करेगी लेकिन किसानों की आपत्तियों के संदर्भ में हालात पर नजर रखेगी।

किसानों के मुद्दे का कौन समर्थक और कौन विरोधी

इन हालात में अब ये जानना जरूरी हो गया है कि किसान आंदोलन से निपटने के लिए अब तक जो हुआ वह वास्तविकता थी या ड्रामा। कौन किसानों के मुद्दे का समर्थन कर रहा है और कौन विरोध। दिल्ली को सीज करने के बाद किसान एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गए हैं और ये सीधे तौर पर भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनौती है। हालांकि प्रधानमंत्री का कहना है कि कृषि क्षेत्र में सुधार किसानों के व्यापक हित में हैं।

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किसान जनाधार वाली पार्टियां किसान आंदोलन के साथ हैं। कांग्रेस भी डरते झिझकते किसानों के साथ खड़ी होने की कोशिश कर रही है। यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी किसान आंदोलन का बाहर से समर्थन कर रही है। बाकी किसानों से जुड़ी सभी पार्टियां क्षेत्रीय हैं और किसानों से जुड़े रहना उनकी मजबूरी है।

पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री और नेशनल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष उन लोगों में प्रमुख हैं जिन्होंने आंदोलित किसानों के एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने के संकेत दिये। उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस में कहा भी कि सरकार ने विवादित कृषि कानूनों को लेकर विपक्षी दलों की सलाह को पूरी तरह दरकिनार किया।

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किसानों के धैर्य की परीक्षा न लें- पवार

पवार ने कहा कि उन्होंने सरकार को आगाह किया था कि किसानों के धैर्य की परीक्षा न लें। यदि सरकार लगातार आक्रामक शैली जारी रखेगी तो किसान आंदोलन दिल्ली से निकलकर देश के अन्य भागों में फैल सकता है इसे सामाजिक और राजनीतिक चुनौती न बनने दें। मगर किसान आंदोलन आज मोदी सरकार और भाजपा, संघ परिवार और विश्व हिन्दू परिषद के लिए एक चुनौती बन गया है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि उन्होंने सितंबर में ही कृषि कानूनों को लेकर आगाह किया था। जिसे लेकर मोदी सरकार छह सालों की सबसे बड़ी सामाजिक राजनीतिक चुनौती का सामना कर रही है। उनका कहना है कि भाजपा और संघ परिवार को आंदोलन से राजनीतिक ढंग से निपटने में कठिनाई आई क्योंकि आंदोलन किसी राजनीतिक नारे के साथ नहीं था यह आंदोलन सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर खेती करने वाले समुदाय का है। सूत्रों के अनुसार किसान आंदोलन से सही ढंग से नहीं निपटा गया इसे लेकर सरकार के संगठनों, भाजपा, संघ परिवार और विहिप की रणनीतियों में मतभेद रहे।

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किसान आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ने की कोशिश

आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ने की सरकार और उसके संगठनों की रणनीति निसंदेह फ्लाप रही और किसान संगठनों ने राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह के इस गुब्बारे की हवा निकाल दी और सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा। किसान आंदोलनकारियों की इस जबर्दस्त कार्रवाई के बाद ही सरकार किसान नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित करना पड़ा।

किसान संगठनों से वार्ताओं के बीच, केंद्र और उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भाजपा और उसकी सरकारों ने किसानों के आंदोलन को बदनाम करने और विघटित करने के उद्देश्य से ढेरों रणनीति बनाई। इनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरी पीढ़ी के किसान नेताओं को आगे बढ़ाने की मांग की गई।

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दाल नहीं गली

यह सब ड्रामा इस नेता और सहयोगी कृषि संगठनों के एक समूह को अलग-अलग चर्चाओं के लिए आमंत्रित करके किसी प्रकार के समझौता फार्मूले की घोषणा करने के लिए था। इस फॉर्मूले की उद्घोषणा कहा जाना था कि आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन किसान यूनियनों, विशेष रूप से एकीकृत किसान यूनियनों के संगठन ने सरकार की इस चाल को भी नहीं चलने दिया। उत्तर प्रदेश से कामयाबी न मिलने पर हरियाणा में इसी तरह का ड्रामा करने की कोशिश की गई लेकिन यहां भी दाल नहीं गली।

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किसान आंदोलन का मौजूदा नेतृत्व बहुत अधिक सतर्क

इसके बाद केंद्रीय गृहमंत्री के नेतृत्व में समझौते का प्रोपेगंडा किया गया लेकिन लंबी बैठकों के बाद भी किसान आंदोलन जारी रहा। किसान बिल के कारण ही भाजपा को शिरोमणि अकालीदल जैसे अपने पुराने साथी को खोना पड़ा। किसान आंदोलन का मौजूदा नेतृत्व बहुत अधिक सतर्क है। उसे पता है कि यदि एक बार कोई प्रोपेगंडा सफल हुआ तो किसान आंदोलन अपनी विश्वसनीयता खो देगा। इसलिए वह चौकन्ने और अपनी मांगों पर अडिग हैं।

शायद हमारे नेताओं का यकीन यह है कि बहुत अधिक लोकतंत्र विकास को बाधित करता है, लेकिन देश के वास्तविक उत्पादक किसान उन्हें यह दिखाने के लिए दृढ़ हैं कि लोकतंत्र वास्तविक विकास का पोषण करता है।

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