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मुगल शासक भी खेलते थे होली, जहांगीर की आत्मकथा में भी इसका जिक्र
अमृतसर। दशहरा और दिवाली की तरह होली भी हिन्दुस्तान का प्रमुख त्योहार है। शरद ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में पडऩे वाले होली के इस पर्व को मदन उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। होली के लोकगीतों में महादेव को जहां काशी में गौरा संग होली खेलते बताया जाता है वहीं अवध यानी अयोध्या में रघुवीरा अर्थात भगवान श्री राम को सीता के साथ। मथुरा और बरसाने की होली तो पूछिए मत क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ते ही यह होली रसिकों की हो जाती है। रति काल के कवि हों या भक्ति काल के, सभी ने इसे अपने-अपने नजरिए से देखा, महसूस और फिर इसे गीतों में ढाला, जिसे आज भी होली के मौके पर गाया और सुना जाता है। मुगलकाल भी होली के असर से अछूता नहीं था। यहां तक कि मुगल शासक भी होली के त्योहार के दीवाने थे और पूरे मन से इस त्योहार को मनाया करते थे।
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अकबर को प्रिय था होली का त्योहार
रंगों का पर्व होली इतना लोकप्रिय रहा है कि हिंदू राजाओं के अलावा मुगलों और अंग्रेज भी इसे मनाया करते थे। कहा जाता है कि होली का त्योहार मुगल शासक अकबर को भी काफी प्रिय था। इतिहासकारों का कहना है कि अकबर पर उसकी हिंदू रानी जोधा या हरका बाई का अत्यधिक प्रभाव था।
इसी कारण उसका होली की ओर झुकाव हुआ। यही नहीं अकबर के दरबार रत्न माने जाने वाले अब्दुल रहीम खानखाना भी भगवान श्रीकृष्ण के भक्त बताए जाते हैं। मुस्लिम कवि रसखान भी कृष्ण भक्त थे। उन्हें भी होली बेसब्री से इंतजार रहता था।
होली को कहा जाता था ईद-ए-गुलाबी
इतिहासकारों के मुताबिक शाहजहां के समय में भी होली मनाने की परंपरा थी। इसे ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। हालांकि उस दौर में कई काजियों और मौलवियों ने मुस्लमानों के होली मनाने पर एतराज जताया था। इतिहासकारों के मुताबिक मुगल काल में होली को ईद की तरह मनाया जाता था। अकबर के जोधाबाई के साथ और जहांगीर के नूरजहां के साथ होली खेलने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रमाण को मुगल काल में बनी पेंटिंग से भी बल मिलता है। इन पेंटिंगों में मुगल बादशाहों को होली खेलते दिखाया गया है।
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जफर ने भी कायम रखी परंपरा
होली के प्रेम के गाढ़े रंग की परंपरा को अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी कायम रखा। कहा जाता है कि होली के दिन उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। यही नहीं जफर के बेटे रंगीला भी जमकर होली खेला करते करते थे। होली के समय रंगीला की बेगम उनके पीछे पिचकारी लेकर भागा करती थीं।
जहांगीर की आत्मकथा में होली का जिक्र
जहांगीर की आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में उल्लेख मिलता है कि होली के समय जहांगीर महफिल का आयोजन करते थे। जहांगीर के मुंशी जकाउल्लाह अपनी किताब तारीख-ए-हिंदुस्तानी में लिखते हैं कि होली हिंदू, मुसलमान, अमीर, गरीब सब मिलकर मनाते हैं। अमरी खुसरो, रसखान, नजीर अकबराबादी, महजूर लखनवी और शाहनियाजी ने भी अपनी रचनाओं में गुलाबी त्योहार यानी होली का उल्लेख किया है।
मोहर्रम के मातम में भी होली
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के बिना होली की चर्चा बेमानी है। कहा जाता है कि एक बार होली और मोहर्रम एक साथ पड़ा था। हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं का कद्र करते हुए होली नहीं मनाई। इस बात का पता चलते ही नवाब वाजिद अली शाह ने कहा कि यह मुसलमानों का भी फर्ज बनता है कि वे हिंदुओं की भावनाओं की कद्र करें,होली खेलें। इस घोषणा के बाद खुद नवाब होली खेलने वालों में शामिल हुए। वाजिद अली शाह की होली पर लिखी एक ठुमरी काफी प्रसिद्ध है। मोरे कान्हा जो आए पलट, अबके होली मैं खेलूंगी डट के। पीछे मैं चुपके से जा के, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के, आज भी बड़े अदब के साथ गाई जाती है।