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एक राष्ट्र-एक चुनाव पर आगे बढ़ी बात, जाने अब क्या होगा आगे 

raghvendra
Published on: 21 Jun 2019 6:27 AM GMT
एक राष्ट्र-एक चुनाव पर आगे बढ़ी बात, जाने अब क्या होगा आगे 
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अंशुमान तिवारी

नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में लौटने के बाद भारत में एक बार फिर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर काम तेज हो गया है। सरकार गठन के तुरंत बाद ही इस पर तेजी से काम शुरू हुआ है। भले ही 19 जून की सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस के अलावा ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव शामिल नहीं हुए और एक राष्ट्र, एक चुनाव के मसले पर विरोध जताया गया हो, लेकिन मामला खत्म नहीं हुआ है। भाजपा के सहयोगी दलों के अलावा भी तमाम दल एक चुनाव के पक्ष में हैं। फिलहाल तय यह हुआ है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर विचार करने लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक समिति गठित करेंगे जो निश्चित समयसीमा में अपनी रिपोर्ट देगी।

क्या है प्रस्ताव

एक राष्ट्र, एक चुनाव की नीति के तहत देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने का प्रस्ताव है। इसके तहत पूरे देश में पांच साल में एक बार ही चुनाव होगा। सरकार की दलील है कि इससे न सिर्फ समय की बचत होगी बल्कि देश को भारी आर्थिक बोझ से भी राहत मिलेगी। वर्ष 2003 में भी भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है। उस समय भी केंद्र में भाजपा ही सत्ता में थी।

वैसे, देश में एक राष्ट्र, एक चुनाव का मुद्दा कोई नया नहीं है। आजादी के बाद देश में वर्ष 1952 से 1970 के बीच पहले चार चुनाव दरअसल, एक राष्ट्र, एक चुनाव की अवधारणा पर ही कराए गए थे, लेकिन उसके बाद लोकसभा मियाद से पहले भंग हो जाने की वजह से यह सिलसिला टूट गया।

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सरकार की दलील है कि ऐसी स्थिति में जहां भारी आर्थिक बोझ से बचा जा सकेगा वहीं राज्यों को बार-बार चुनावी आचारसंहिता का भी सामना नहीं करना होगा। नतीजतन विकास कार्यों में कम से कम रुकावट आएगी। इसके अलावा काले धन पर अंकुश लगेगा और आम लोगों को भी बार-बार चुनावों के दौरान होने वाली परेशानी से नहीं जूझना होगा। भाजपा की दलील है कि चुनाव अभियान सीमित होने की वजह से जातीय और सांप्रदायिक सद्भाव भी बरकरार रहेगा। दूसरी ओर, विपक्ष की दलील है कि इससे कम संसाधनों के साथ मैदान में उतरने वाली क्षेत्रीय पार्टियों पर वजूद का संकट पैदा हो जाएगा। साथ ही क्षेत्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे। इससे वोटरों का भ्रम बढ़ेगा। इसके अलावा चुनावी नतीजों में काफी देरी होगी।

इस साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले यह कहा भी जा रहा था कि मोदी सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बारे में सोच सकती है, हालांकि ऐसा नहीं हुआ। मोदी सरकार इस लोकसभा चुनाव के साथ हरियाणा, महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा के चुनाव भी कराना चाहती थी, लेकिन कहा जाता है कि इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ही अपनी सहमति नहीं जताई। इन राज्यों में भाजपा की सरकार है और यहां के मुख्यमंत्रियों ने कहा था कि वह समय से पहले अपनी विधानसभा भंग नहीं कर सकते। इन राज्यों में इसी साल चुनाव होने हैं जो कुछ महीनों के अंतर पर होंगे। ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि भाजपा अपने ही लोगों को इस मुद्दे पर सहमत नहीं कर पाई तो दूसरी पार्टियों को कैसे एकमत कर पाएगी।

विधि आयोग भी है सहमत

चुनाव आयोग की ओर से इस विचार को खारिज किए जाने के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने विधि आयोग को एक साथ चुनाव कराने के समर्थन में पत्र लिखा था। उन्होंने लगातार चुनावों से सरकारी कामकाज में होने वाली बाधाओं और चुनावों पर भारी-भरकम खर्च के बोझ की दलील दी थी। उसके बाद अगस्त २०१८ में विधि आयोग ने इस विचार के समर्थन में एक ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार की, लेकिन जम्मू-कश्मीर को इसके दायरे से बाहर रखा गया। आयोग ने उस रिपोर्ट में कहा था कि लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने से देश लगातार ‘चुनावी मोड’ में रहने से बच सकता है। इससे खर्चों में कटौती के साथ ही प्रशासन पर भी दबाव घटेगा और सरकारी नीतियों को बेहतर तरीके से लागू किया जा सकेगा। आयोग ने इसके लिए जरूरी संविधान संशोधन भी सुझाए थे।

कई नेता हैं विरोध में

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कई नेता प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई बैठक में शामिल नहीं हुए। ममता ने कहा, ‘केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर जल्दबाजी दिखाने की बजाय पहले एक श्वेतपत्र तैयार करना चाहिए। साथ ही विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा जरूरी है। इतने कम समय में ऐसे संवेदनशील और गंभीर विषय पर कोई फैसला करना इसके साथ समुचित न्याय नहीं होगा।

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डीएमके नेता एमके स्टालिन ने पहले से व्यस्त कार्यक्रम होने की दलील देकर बैठक में जाने से इनकार किया। उन्होंने एक राष्ट्र, एक चुनाव के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की। इससे लगता है कि वह इस मसले पर बन रहे माहौल की टोह ले रहे हैं।

सीपीएम ने इस अवधारणा को अव्यावहारिक करार देते हुए कहा कि इसके जरिए लोगों के जनादेश को तोड़-मरोड़ा जा सकता है। पार्टी का आरोप है कि पिछले दरवाजे से राष्ट्रपति प्रणाली लाने की कोशिश की जा रही है।

सीपीआई का कहना है कि भाजपा एक राष्ट्र-एक संस्कृति-एक राष्ट्र-एक भाषा लागू करना चाहती है। ताजा प्रस्ताव भी उसी सिलसिले की अगली कड़ी है।

करना होगा संविधान संशोधन

पूर्व निर्वाचन आयुक्त टी.एस.कृष्णमूर्ति कह चुके हैं कि यह विचार आकर्षक है, लेकिन विधायिकाओं का कार्यकाल निर्धारित करने के लिए संविधान में संशोधन किए बिना इसे अमल में नहीं लाया जा सकता। जब तक सदन का कार्यकाल तय नहीं होगा, इसे लागू करना संभव नहीं है। इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने बीते साल अगस्त में इस विचार को लागू करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पर जोर दिया था, लेकिन क्या निकट भविष्य में इसे लागू किया जा सकता है? इस सवाल पर उनका जवाब था, ‘इसका कोई चांस नहीं है।’

इन देशों में होते हैं एक साथ चुनाव

स्वीडन में पिछले साल सितंबर में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एकसाथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका,जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है।

कब-कब एक साथ हुए चुनाव

आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे। तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए।

इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ चुनाव कराए गए। फिर ये सिलसिला टूट गया।

1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में कहा कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हों।

2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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