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पुण्यतिथि विशेष: सुमित्रानंदन को इसलिए कहा जाता है सुकुमार कवि, जानें रोचक बातें
उन्होंन कहा- भारतीय आध्यात्म के अनुरागी , विज्ञान और आध्यात्म का समन्वय इस युग के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। वहीं, महिलाओं को लेकर पंत की दृष्टि उदार है। उन्होंने महिलाओं को संवेदना को खास माना
लखनऊ: हिन्दी साहित्य के आरंभ और विकास में कई महान कवियों और रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से एक हैं छायावादी युग भी रहा इसके चार स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत थे। सुमित्रानंदन पंत नए युग के प्रवर्तक कवि के रूप में जाने जाते हैं।
क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!
आज 28 दिसंबर को कवि सुमित्रानंदन पंत की पुण्यतिथि है। इनको सुकुमार कवि कहा जाता है। प्रकृति चित्रण, सौंदर्य, दर्शन, प्रगतिशील चेतना और रहस्यवाद को विस्तार देती सुमित्रानंदन पंत की रचनाएं हिंदी भाषा समेत विश्व के रचना संसार की अनुपम धरोहर है।
शिक्षा और प्रारंभिक जीवन
सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। सुमित्रानंदन पंत के जन्म के मात्र छ: घंटे के भीतर ही उनकी मां का देहांत हो गया और उनका पालन-पोषण दादी के हाथों हुआ।साथ ही प्रकृति ने भी जननी का स्थान लिया और उसी की स्नेहछाया में वे आगे बढ़े।
उनके बचपन का नाम गोसाईंदत्त था। गांव में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे अल्मोड़ा आए। अल्मोड़ा में 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना नाम गोसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। इतनी छोटी अवस्था में ऐसा नामकरण उनकी सृजनशीलता का परिचय देता है। काशी के म्योर कॉलेज से उन्होंने अध्ययन पूरा किया।
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प्रकृति से लगाव
बता दें कि प्रयागराज आकाशवाणी के प्रारंभिक दिनों में उन्होंने परामर्शदाता के रूप में वहां कार्य किया। किशोरावस्था में ही कविता के सौंदर्य ने सुमित्रानंदन पंत को आकृष्ट किया। उनकी प्रारंभिक रचनाओं की केंद्र बिंदु प्रकृति है। उन्होंने सरिता,पर्वत,मेघ, झरना, वन, समेत विभिन्न प्राकृतिक बिम्ब के प्रयोग से कविता को नया आयाम दिया।
शैली
सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग प्रवर्तक कवि हैं, जिन्होंने भाषा को निखार और संस्कार देने के अलावा उसके प्रभाव को भी सामने लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने भाषा से जुड़े नवीन विचारों के प्रति भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत: प्रकृति का कवि माना जाने लगा, लेकिन वास्तव में वह मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे।
काव्य संकलन
वर्ष 1926 को 'पल्लव' नामक उनका पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। पंत द्वारा रचित पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन (1926-33) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना से परिचय करवाते हैं। इस काल को पंत का स्वर्णिम काल कहा जाना भी गलत नहीं होगा। भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से प्रेरित थे, किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बाहरी जीवन के प्रति खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगे। सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति प्रेम अद्भुत है। उनकी रचनाओं में प्रकृति प्रेम और सौंदर्य बोध की झलक साफ दिखती है। उनकी रचनाओं में मार्क्स के विचारों से लेकर श्री अरविंद और विवेकानंद के दर्शन का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।
महिलाओं के प्रति संवेदना
मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
उन्होंन कहा- भारतीय आध्यात्म के अनुरागी , विज्ञान और आध्यात्म का समन्वय इस युग के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। वहीं, महिलाओं को लेकर पंत की दृष्टि उदार है। उन्होंने महिलाओं को संवेदना को खास माना। उनका कथन है कि, "मनुष्यता का विकास तभी होगा जब स्त्री स्वतंत्र होकर इस धरा में विचरण सकेगी, जब उसे भय नहीं रहेगा।"
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प्रमुख कविताएं
वीणा (1919), ग्रंथि (1920), पल्लव (1926), गुंजन (1932), युगांत (1937), युगवाणी (1938), ग्राम्या (1940), स्वर्णकिरण (1947), स्वर्णधूलि (1947), युगांतर (1948), उत्तरा (1949), युगपथ (1949), चिदंबरा (1958), कला और बूढ़ा चांद (1959), लोकायतन (1964), गीतहंस (1969).
पुरस्कार व सम्मान
सुमित्रानंदन पंत को पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) से सम्मानित किया गया। अपनी रचना बूढ़ा चांद के लिए सुमित्रानंदन को साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन पर सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार और चिदंबरा पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रकृति एवं अनुभूति के कवि और भाषा के धनी सुमित्रानंदन पंत का 28 दिसम्बर 1977 को प्रयागराज में निधन हो गया।लेकिन प्रकृति के इस सुकुमार कवि की आभा हिंदी के साहित्याकाश में सदैव बनी रहेगी।