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राज्यसभा में पढ़ी गयी ये प्रसिद्ध कविता, आखिर क्या है मायने...

'स्‍वर्ण भस्‍म को खाने वाले- बिना कफन मर जाने वाले इसी घाट पर आए' आज राज्‍य सभा में पढी गई लोककवि शिशु की कविता

Newstrack
Published on: 20 Sep 2020 1:18 PM GMT
राज्यसभा में पढ़ी गयी ये प्रसिद्ध कविता, आखिर क्या है मायने...
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राज्यसभा में पढ़ी गयी ये प्रसिद्ध कविता, आखिर क्या है मायने...

''स्वर्ण भस्म को खाने वाले इसी घाट पर आए

दाने बीन चबाने वाले इसी घाट पर आए

गगनध्वजा फहराने वाले इसी घाट पर आए,

बिना कफ़न मर जाने वाले इसी घाट पर आये।''

लखनऊ: चंबल घाटी के लोककवि शिशुपाल सिंह शिशु की प्रसिद्ध कविता मरघट की यह पंक्तियां रविवार को राज्‍यसभा की कार्यवाही में शामिल हुईं। समाजवादी पार्टी के नेता प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने किसान बिलों का विरोध करते हुए यह कविता केंद्र सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को संबोधित कर सुनाईं।

कौन हैं शिशुपाल सिंह शिशु...?

जनकवि शिशुपाल सिंह शिशु का जन्‍म इटावा जिले में चंबल नदी के किनारे बसे गांव ऊदी में 1911 को हुआ था। यह गांव उत्‍तर प्रदेश और मध्‍य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और इटावा से इसकी दूरी लगभग दस किमी है। इनके पिता का नाम बिहारी सिंह भदौरिया और मां का नाम पैदेवी था। शिक्षा- दीक्षा पूरी करने के बाद शिशुपाल सिंह उदी गांव के प्राथमिक विद़यालय में शिक्षक रहे और गांव के पोस्‍टमास्‍टर का दायित्‍व भी संभालते रहे। इन्‍होंने अपने जीवन काल में सैकडों काव्‍य रचनाएं की जिनमें से मरघट उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्‍यकृतियों में से एक है।

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स्‍थानीय निवासियों के अनुसार उनकी इन रचनाओं को सुनने के लिए लोगों में उत्‍सुकता रहती थी। इटावा शहर के निवासी प्रमोद श्रीवास्‍तव बताते हैं कि उनके पिता को शिशु की कविताएं इतनी पसंद थीं कि जब भी उनका शहर आना होता था तो वह घर जरूर बुलाते थे। उनकी मरघट कविता मैंने अपने बचपन में सुनी थी तब से आज तक याद है।

शिशुपाल सिंह शिशु की मरघट कविता

नदिया का तट जहाँ बहुत से गाँवो का पनघट है,

वहाँ बहुत गाँवो का मरघट भी नदिया का तट है

कहीं पहुँचते हैं प्यासे घट जीवन- रस पाते हैं,

कहीं पहुँचते हैं सूने घट स्वाहा हो जाते हैं

कितने घट प्यासे पहुंचे हैं जीवन रस पाने को,

कितने घट सूने पहुंचे हैं स्वाहा हो जाने को

नदिया ने कुछ भी नहीं दिया है इन प्रश्नों का लेखा,

केवल कोरी बही लिये ही हरदम बहते देखा

उधर घाटों को भरते- भरते धारा नहीं चुकी है,

इधर चिता भी जलते- जलते अब तक नहीं बुझी है

विधना सृजन बंद कर दे तो विष्णु किसे पालेगें,

विष्णु जिसे पालेंगे उसको रूद्र न क्यों घलेगें

रूद्र न घालेगें तो फिर विधि का विधान क्या होगा,

विधि- विधान के बिना विष्णु का विश्व- मान क्या होगा

उत्त्पत्ति, पालन, लय की गति में राग- विरागबसा है,

इसी त्रिवेणी के संगम पर विश्व- प्रयाग बसा है

आओ थोड़ा इधर चलें यह महा- शान्ति का तट है,

जिसको लोग प्राण देकर पाते हैं वह मरघट है

एकाकी लगता है लेकिन लगता नहीं अकेला,

यहाँ बहुत ही खामोशी सेलगा हुआ है मेला

गुमसुम धारा मूक किनारा, दाह क्रिया के छाले,

भस्म-अस्थियाँ, जली लकड़ियाँ, टुकड़े काले- काले

कई चितायें बुझी पड़ी हैं, हाँ करती एक उजेला,

यहाँ बहुत ही ख़ामोशी से लगा हुआ है मेला

मानव घर में पैदा होकर धारती पर फिरता है,

सागर में तिरता है, नभ में मेघों सा घिरता है

सभी जगह जाता है लेकिन इधर न आ पाता है,

आता है तो चार जनों के कन्धों परआता है

सोच रहा हूँ घर से मरघट की कितनी थी दूरी,

जिसको तय करने में इसने उम्रगँवा दी पूरी

जहाँ- जहाँ भी गया वहां क्या मरघट की रहें थीं,

मरने की तैयारी को क्या जीने कीचाहें थी

इस दुनिया में पाँच तीलियों के अनगिन पिंजड़े हैं,

जिन्हें बहुत से हँस अनेकों रूपों में जकड़े हैं

अखिल गगन- गामी पंखों में बांधे दस- दस पत्थर,

सीमा में न सामने वाले सीमओं के अंदर

बंधन के माथे पर अपने मन का तिलक किया है,

बहुतेर्रो ने अपने को ही पिंजड़ा समझ लिया है

सोच रहे हैं रंगमहल ये कभी न छूट सकेगा,

ऐसा डाकू कौन यहाँ जो हमको लूट सकेगा

किंतु सुरक्षित रहन- सहन के साधन दृढ से दृढतर,

हरदम हाजिर रहने वाले ढेरों नौकर- चाकर

सावधानियों का जितना ही जोड़ा जाये मेला,

सभी झमेला छोड़ अन्त में उड़ता हँस अकेला

किसे पाता, जाने वाले को आना भी पड़ता है,

लेकिन आने वाले को तो जाना ही पड़ता है

हँस उड़ा तो फिर पिंजड़े की कीमत खो जाती है,

इसी जगह पर दीवाली की होली हो जाती है

देखत वो जल रही चिता धरती पर धूं- धूं कर,

कहाँ गये वे पलंग और वे शैय्या के आडम्बर

हांथो- हाँथ उठाने वाले इतना ही कर पाये,

नाड़ी छूट गयी तो घर से मरघट तक ले आये

जनक और जननी के चुम्बन, भैया के अभिनन्दन,

पुलकन भरी बहिन की राखी, तिरिया के आलिंगन

पास- पड़ोसी, पुरजन- प्रियजन इतना ही कर पाये,

नाड़ी छूट गयी तो घर से मरघट तक ले आये

नगर सेठ के नगर पिता के बहुत बड़े बेटे हैं,

मगर लक्क्ड़ो के नीचे चुप होकर चित्त लेटे हैं

सह न सके सर दर्द कभी उपचार बहुत करवाये,

आज किसी धन्वन्तरि के कल-कौशल काम न आये

जाड़े के मौसम में घर पर जेठ बुलाने वाले,

हीटर को दहका कर कमरे को गरमाने वाले

ठण्डे होकर इंधनबनकर अर्थी में लेटे हैं,

धन वाले के, बल वाले के बहुत बड़े बेटे हैं

स्वर्ण भस्म को खाने वाले इसी घाट पर आये

दाने बीन चबानेवाले इसी घाट परआये

गगनध्वजा फहराने वाले इसी घाट पर आए,

बिना कफ़न मर जाने वाले इसी घाट पर आये

सिरहाने से आग लगाई, केश जले पलछिन में,

लोहितजिह्वाओं सी लपटें, लिपटी सारे तन में

झुलस- झुलसकर खाल जल रही, फबक- फबक कर चर्बी,

सिकुड़- सिकुड़ कर माँस जल रहा, चटक- चटक कर हड्डी

लपटें उठ- उठ पंच फैसला अपना सुना रही हैं,

जिसकी थीं जो चीज जहाँ की उसको दिला रही हैं

बूंद सिन्धु को, किरण सूर्य को, साँस पवन को सौंपी,

शून्य शून्य के किया हवाले, भस्म धरिणी को सौंपी

कई चितायें बुझी पड़ी हैं, लिये राख की ढेरी,

उनके कण- कण बिखराने को पवन दे रहा फेरी

भस्म देखकर पता न लगता, नारी की न नर की,

किसी सूम की या दाता की, कायर या नाहर की

सोच रहा हूँ जिसने कंचन काया नाम दिया है,

उसने माटी की ठठरी पर कस कर व्यंग किया है

क्योंकि भस्म सोने की ऊँचे दामों पर बिकती है,

मगर राख कंचन काया की व्यर्थ उड़ी फिरती है

परमधाम में ऐसे ही आचरण हुआ करते हैं

वैश्वानरके सर्वस्वाहा हवन हुआ करते हैं

और ठीक भी है दुनियाँ से कोई अगर न जाता,

अपनी पाई हुई वस्तु पर चिर अधिकार जमाता

तो फिर अगला आने वाला बेचारा क्या पाता,

कर्मक्षेत्र की चहल- पहल का पटाक्षेप हो जाता

शायद इसीलिये नदिया के एक ओर पनघट है,

और दूसरी ओर दहकता हुआ घोर मरघट है।

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अखिलेश तिवारी

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