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Gender Inequality: लैंगिक असमानता का घाव अब भी हरा क्यों

Gender Inequality: लैंगिक आधार पर सदियों से चली आ रही रूढ़िवादिता पर रोक लगाने के लिए स्वयं प्रधान न्यायाधीश की पहल पर 'हैंडबुक ऑन कमबैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' शीर्षक की एक तीस पन्नों की पुस्तिका जारी की गई है।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 19 Aug 2023 8:03 PM IST
Gender Inequality: लैंगिक असमानता का घाव अब भी हरा क्यों
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Gender Inequality (Pic: Social Media)

Gender Inequality: वेश्या, रखैल, परपुरुषगामी स्त्री, चक्कर, बास्टर्ड, पवित्र महिला, गिरी हुई महिला, पवित्रता पत्नी, आज्ञाकारी और विश्वासपात्र पत्नी, बाल वेश्या, इंडियन वुमन, वेस्टर्न वुमन, करियर वुमन, ड्यूटीफुल वाइफ........! क्या पढ़ रहे हैं आप यह? यह उसे शब्दावली का एक उदाहरण मात्र है जो कि न्याय के मंदिर अर्थात न्यायालय से लेकर आम जनजीवन की बोलचाल की भाषा तक में महिलाओं के लिए प्रयोग किए जाते हैं। 'यह अच्छी बात नहीं है, ऐसा कहना अच्छा नहीं लगता...... 'सार्वजनिक तौर पर यह कहने वाले लोग भी पता लगता है कि ऐसे शब्दों का महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा प्रयोग कर रहे होते हैं। ये मात्र शब्द नहीं है बल्कि हमारे समाज की मानसिकता का, उनकी रूढ़िवादिता का, उनकी शुचितावाद के ढोंग का पता बताते हैं। ये हीं क्यों, इस से भी अधिक असम्मानजनक शब्दावली हमारे समाज में महिलाओं के लिए प्रयोग की जाती है।

अभद्रता की इस भाषा को, इन शब्दों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने संज्ञान लिया है। इस प्रकार की अनुचित लैंगिक शब्दावली की जगह दूसरे सभ्य शब्दों के अदालती प्रयोग को लेकर और लैंगिक आधार पर सदियों से चली आ रही रूढ़िवादिता पर रोक लगाने के लिए स्वयं प्रधान न्यायाधीश की पहल पर 'हैंडबुक ऑन कमबैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' शीर्षक की एक तीस पन्नों की पुस्तिका जारी की गई है। इसकी प्रस्तावना स्वयं प्रधान न्यायाधीश द्वारा लिखी गई है, जो यह याद दिलाती है कि एक न्यायाधीश को अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी भेदभाव के करना चाहिए और अपना निर्णय लेते समय भी प्रचलित मान्यताओं के आधार पर नहीं बल्कि उसके गुण दोषों के आधार पर करना चाहिए।

इस पुस्तिका में ऐसे शब्दों की पहचान की गई है जो कि महिलाओं और लड़कियों के लिए अपमान सूचक और रूढ़िग्रस्त शब्द हैं। इन शब्दों की जगह अब उनके सम्मानजनक विकल्पों और तटस्थ शब्दों का प्रयोग किया जाए, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय का मानना है। अब वकीलों और न्यायाधीशों को पूर्व प्रचलित रूढ़िवादी शब्दों की जगह है नए शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। हालांकि यह अनिवार्य नहीं है लेकिन इसकी आवश्यकता और उपयोगिता से इनकार करना खुद के दोगलेपन को दिखाता है। हमें प्रधान न्यायधीश की इस पहल और सोच का स्वागत भी करना चाहिए और उसे अपनाना भी चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश ने इस हैंडबुक को जारी करते हुए कहा भी है कि महिलाओं को संविधान में बराबरी का हक दिया गया है, वे पुरुषों के अधीन नहीं हैं इसलिए उनके सम्मान को आहत करने वाले किसी भी शब्द का उपयोग करना अनुचित है। अब 'चक्कर' शब्द की जगह 'विवाह से बाहर संबंध' , 'बास्टर्ड' की जगह 'वह बच्चा जिसके माता-पिता आपस में विवाहित नहीं है', 'रखैल' के स्थान पर 'वह महिला जिसके साथ एक पुरुष के प्रेम संबंध है', 'वेश्या' के स्थान पर 'यौन कर्मी' जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाएगा। दरअसल इस तरह की पुस्तिका न्यायालय के साथ-साथ पुलिस प्रशासन, अन्य विभागों,मंत्रालयों से लेकर सामाजिक संस्थाओं तक के लिए सिर्फ एक अच्छे बदलाव का उदाहरण ही नहीं बल्कि प्रयोग के लिए आवश्यक भी होनी चाहिए।

हम भले ही पढ़ लिख गए हैं बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेते हैं, बड़े-बड़े व्यवसाय चलाते हैं , ऊंचे प्रतिष्ठित पदों पर बैठे हैं, बड़े भामाशाह बनते हैं लेकिन हमारी सोच महिलाओं के लिए, हमारा नजरिया या देखने का दृष्टिकोण आज भी बहुत संकीर्ण है। देश भले ही स्वतंत्रता के 77वें वर्ष में प्रवेश कर गया हो पर हम अपनी रूढ़िवादी सोच से खुद को आजाद ही नहीं कर पा रहे हैं। आप पुलिस विभाग में चले जाइए या कहीं और किसी भी विभाग में चले जाइए, दूर क्यों इन अदालतों में ही चले जाइए एक महिला के साथ और अगर वह गरीब हुई तो और भी बुरी स्थिति है, शब्दों का जो छिछोरापन देखने में आता है, जो अपशब्द सुनने को मिलते हैं, वे किसी से भी छिपे नहीं हैं। हमारे अपने समाजों में बहुत सी ऐसी गालियां और अपशब्द प्रचलित हैं, जो कि महिलाओं को न केवल अपमानित करते हैं बल्कि उनके आत्म सम्मान को भी ठेस पहुंचाते हैं।

अनपढ़ की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रांडेड कपड़ों वाले भी इन अपमान सूचक शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। हमारे कई लोकगीतों में भी ऐसे कई शब्द आते हैं जो कि महिलाओं की गरिमा के अनुरूप नहीं होते हैं। महिलाओं और पुरुषों में बराबरी की कोशिशें नईं नहीं हैं, वे दिखाई भी देती हैं पर समानता के लिए किए गए प्रयास अब भी ऊंट के मुंह में जीरा के समान हैं। हमारी न्यायपालिका को वैसे भी लैंगिक मान्यताओं को लेकर सचेत होने की आवश्यकता है क्योंकि अधिकतर यौन उत्पीड़न या महिलाओं के प्रति अपराध के मामले कोर्ट तक जाते ही नहीं है क्योंकि यह परिवार और महिला दोनों के लिए मानसिक यंत्रणा के समान होता है।

फ्रांस की प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोउआर का एक प्रसिद्ध कथन है 'स्त्रियां पैदा नहीं होती हैं, बल्कि बनाई जाती हैं। परिवार और समाज स्त्रियों को गढ़ते हैं। उनमें स्त्रियोचित गुण भरे जाते हैं।' हर स्त्री की यह इच्छा होती है कि उनके अस्तित्व का भी कोई अर्थ हो लेकिन हर स्त्री को अपने अस्तित्व का औचित्य साबित करना ही पड़ता है। उसे किसी पुरुष से प्यार करके, उसकी चिंता करके, उसके लिए एक अच्छी लड़की या औरत होने के साथ-साथ , पुरुष की पसंद के मापदंडों पर खरा उतरना ही पड़ता है। वह खुद को स्वीकार ही नहीं कर पाती है कमियों वाली, गलतियां करने वाली स्त्रियों के रूप में। क्योंकि पुरुष ऐसी स्त्रियों को स्वीकार नहीं करता है। सिमोन ने अपनी किताब 'द सेकंड सेक्स' में यह भी कहा है कि 'महिलाओं की बराबरी की बात करते समय हमें उनके जैविक अंतर की वास्तविकता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि पुरुष और महिलाओं के बीच जो जैविक अंतर है उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।' लेकिन जैविक अंतर होने के बाद भी लैंगिक असमानता की खाई इतनी गहरी है कि दोनों के साथ समान व्यवहार होना अत्यावश्यक है। तो क्या समानता का, बराबरी का व्यवहार प्राप्त करने के लिए स्त्रियों को अपने स्त्रैण गुण छोड़कर पुरुषों की तरह बन जाना चाहिए। नहीं, सवाल ही नहीं उठता, आवश्यकता ही नहीं है।

दरअसल महिलाओं को पुरुषों की बराबरी वाला व्यवहार पाने की चाह स्त्रियों को पुरुषों की तरह जीने को बाध्य कर देती है। स्त्रियां इस सदी में पुरुषों की बराबरी तो करने लगी हैं हर क्षेत्र में, ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां वे नहीं है पर विडंबना यह है कि वे फिर भी समानता का अधिकार प्राप्त नहीं हैं। अब देखना यह है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में जब महिलाओं की उपस्थिति, उनकी सहभागिता बढ़ रही है ऐसे में लैंगिक असमानता के लिए न्यायालय द्वारा उठाया गया यह कदम महिलाओं के लिए कितना साफ -सुथरा वातावरण तैयार कर सकेगा, क्योंकि हम उस देश के वासी हैं जहां रूढ़िवादिता की जड़ें कहीं भीतर तक गहरी दबी हैं। महिलाओं को हमेशा से ही भावुक, कमजोर और बिना तर्क के बात करने वाली कहकर, उनके व्यक्तित्व को पुरुषों द्वारा चोट पहुंचाई जाती रही है, क्योंकि इन तरीकों से ही वे अपने अहं को, दंभ को पोषित कर पाते हैं।

प्रसिद्ध लेखिका और कवि अमृता प्रीतम ने भी कहा है कि 'भारतीय मर्दों को आदत पड़ चुकी है औरतों को परंपरागत भूमिकाओं में देखने की। वे होनहार औरतों से बात तो कर लेते हैं मगर उनसे शादी नहीं करना चाहते हैं। एक परिपूर्ण औरत की संगति का आनंद उन्होंने अभी भी अनुभव नहीं किया है‌' आवश्यकता इस बात की है कि देश के न्यायालय के बाद विभिन्न समाज भी स्त्रियों के प्रति अपनी सोच को पूर्वाग्रह से बाहर निकाल कर नए सिरे से परिभाषित करें क्योंकि अगर आपको स्वस्थ समाज की रचना करनी है तो स्वस्थ परिभाषा और शब्दावली को अपनाना ही होगा। कुलषित मानसिकता से बाहर निकालने के लिए भाषा का परिमार्जन अति आवश्यक है इसलिए समाज की बड़ी संस्थाओं और संगठनों को भी परिवारों में सम्मानजनक शब्दावली के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए आगे आना चाहिए।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

Anshu Sarda Anvi

Anshu Sarda Anvi

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