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संघोल में जिवंत हैं भगवान बुद्ध की स्मृतियां, आकर्षित करता है घड़ी की तहर बना स्तूप
तथागत भगवान बुद्ध कभी पंजाब की धरती पर नहीं आए पर उनका उपदेश पंजाब की इन्हीं पंज दरियाओं को पार कर भारत की सरहद से बाहर सुदूर पश्चिमी देशों में पहुंचा।
दुर्गेश पार्थ सारथी
फतेगढ़ साहिब: तथागत भगवान बुद्ध कभी पंजाब की धरती पर नहीं आए पर उनका उपदेश पंजाब की इन्हीं पंज दरियाओं को पार कर भारत की सरहद से बाहर सुदूर पश्चिमी देशों में पहुंचा। भगवान बुद्ध के जीवन पर गौर करें तो पाते हैं कि लुबिनी आज के नेपाल से शुरू हो कर मगध साम्राज्य से होते वर्तमान उत्तर प्रदेश के कुशी नगर में विराम देती है। लेकिन, उनकी शिक्षाएं सरहद की बंदिशों को तोड़ दूसरे देशों को भी सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ा रही हैं। और इसके पीछे मौर्य सम्राट अशोक के साथ-साथ पंजाब की धरती, यहां की आब-ओ-हवा और तत्कालीन शासकों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
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आज से सैकड़ों साल पीछे मुड़ कर स्वर्णीम भारत के प्राचीन इतिहास के धूलधूसरित जिर्ण पन्नों को पलटें तो पता चला ता है कि प्राचीन, मध्य व आधुनिक भारत के निर्माण में पंजाब व पंजाब के लोगों का सहयोग मिलता रहा है। क्योंकि सभ्यता और संस्कृति के बीज यहीं की धरती पर अंकुरित हुए। और सिंध से लेकर इन्हीं पंज दरियाओं के पानी ने उन्हें सिंचित कर पुष्पित और पल्लवित किया। इसी सिंधु नदी के किनारे जहां मानव बस्तियां आबाद हुईं वहीं, ऋग्वेद की ऋचाएं भी इसी दरिया के किनारे रची गईं। इसी पंजाब के आर्यों के देश में पहली बार यवन आक्रमणकारी हिंदूकुश दर्रे के रास्ते सिंध नदी के किनारे तक पहुंच कर देश को एक नया नाम 'हिंदुस्थान' दिया।
और यदि कोई यवन ललकारता है हिंदुस्तान के स्वाभीमान को तो इसी पंजाब की धरती से उठ खड़ा होता है पुरु या पौरष। इसी पंजाब ’तत्कालीन’ के तक्षशिला का एक शिक्षक चाणक्य जो अपनी प्रखर बुद्धि की कसौटी पर परख कर चंद्रगुप्त, बिंदुसार और अशोक जैसे राजाओं को तराश कर एक संगठित, समृद्ध और सशक्त भारत का निर्माण करने में सक्षम होता है। जिन्होंने भारत का विजय व धर्म पताका खोतान ’आज का ईरान’ तक पहराया।
पहले यात्री के रूप में चीन गए थे मातंग
इतिहास बताता है कि संस्कृत व संस्कृति की इसी धरती से ईसा की पहली शताब्दी 67 ईवी में कश्यप मातंग पहले यात्री के रूप में चीन गए। इसके बाद समय-समय पर संत महात्मा व विद्वान चीन की यात्रा करते रहे। और इन्हीं के माध्यम से संस्कृत और पाली के अनेक ग्रंथ चीन पहुंचे। कहते हैं 401 ई में कश्मीर के आमात्य का पुत्र चीन गया और वहां की राजकुमारी से विवाह कर कश्मीर लौटा जिससे उसका पुत्र हुआ, जिसका नाम कुमारजीव रखा गया। बाद में कुमारजीव संस्कृत और चीनी भाषा का विद्वान निकला और बाद में वह चीन चला गया, जिसने विभिन्न ग्रंथों का चीनी में अनुवाद कर बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार किया।
बौद्ध धर्म से प्रभावित हो 629 ई. में 28 वर्षीय ह्वेनसांग चीन के गोबी का रेगिस्तान पार कर तरखान, तुर्की यानि कजाकिस्तान, ताशकंद, समरकंद, वलख बामियान व काबुल होते हुए हिंदूकुश दर्रा पार कर 631 में कश्मीर पहुंचा। यहां दो वर्ष रहने के बाद ह्वेनसांग कश्मीर से कुल्लू व जालंधर होते हुए थानेश्वर से 636 में वर्तमान के उत्तर प्रदेश के कन्नौज पहुंचा। यहां से वह अयोध्या व प्रयाग होते हुए भगवान बुद्ध से जुड़े तमाम स्थलों, बौद्ध विहारों का भ्रमण करते हुए नालंदा विश्वविद्यालय पहुंचा और यहां डेढ़ वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भव्य भारत के विशाल भू-भाग का भ्रमण करते हुए लगभग 16 साल बाद बौद्ध भिक्षु बन 645 में जब स्वदेश वापस लौटने लगा तो तत्कालीन सम्राट हर्षवर्द्धन ने जालंधर के राजा उदित को चीन की सीमा तक उसे सुरक्षित छोड़ने का आदेश दिया। और ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि ’हिंदू’ शब्द वास्त में चीनी शब्द ’इंतु’ का रूपांतर है जिसका अर्थ चंद्रमा है। जिसे चीन के लोग इंतु या हिंदू कहने लगे।
तथाग भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़े ये नगर लुंबिनी, राजगीर, बौद्धगया, सारनाथ, वैशाली, श्रावस्ती, कौशांमी, नालंदा, चंपा, पाटलीपुत्र व कुशीनर बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। क्यों कि इनका तथागत से सीधा संबंध रहा है। लेकिन, इससे अलग एक बौद्ध स्थल और भी है जो भगवान बुद्ध की चरण धुलि न पा कर भी उनके प्रकाश से प्रकाशित है। वह है संघोल का बौद्ध विहार।
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संघोल में अशोक ने बनवाए थे पांच स्तूप
चंडीगढ़-लुधियाना मार्ग पर जिला फतेहगढ़ साहिब में स्थित उच्चा पिंड में 2500 साल पहले का इतिहास सुरक्षित है। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध की मृत्यु के लगभग सौ साल बाद मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए उनकी चिता भष्म पर 8400 स्तूप बनवाएं थे। जो सारनाथ, सांची, नालंदा, तक्षशिला सहित देश के विभिन्न भागों सहित अफगान व ईरान में स्थित थे। इन्हीं स्तूपों में से वह पांच स्तूप संघल अर्थात संघोल नगर में बने थे। हलांकि इसका कोई प्रमाणि तथ्य या ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। यह मात्र जनश्रुतियां हैं। कहा जाता है कि इन पांच स्तूपों में से तीन स्तूपों को ग्रामीणों ने अंजाने में नष्ट कर दिया।
भगवान बुद्ध की थाति को संभाले इस गांव के ऐतिहासिक महत्व को पहचाना पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निदेशक आर के विष्ट ने, जिन्होंने इस गांव की ऐतिहासिक दृष्टि से चार भागों में बांट कर सन 1964 से 1969 तक विभिन्न चरणों में खुदाई करवाई। इसके बाद यहां से हड़प्पा युग से मौर्येत्तर काल तक के महत्व पूर्ण साक्ष्य सामने आए। यहां से हिंद, पहलो, गोंदों कंफिसियस, कुषाण व अर्द्धजनजातिय लोगों से संबंधित मुद्राएं भी मिलीं। इन साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि यहां पर टकसाल भी रहा होगा।
ह्वेनसांग ने भी किया है उल्लेख
क्रेंदीय पुरातत्व विभाग चंडीगढ़ के असिस्टेंट निदेशक डॉ. अक्षित कौशिक के अनुसार इस स्थल का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में भी किया गया है। इसके अनुसार संघोल से मिले बौद्ध स्तूप के अवशेषों का संबंध ईसा पूर्व सातवीं शदी से हो सकता है। डॉ. कौशिक के मुताबिक तत्कालीन समय में पंजाब में विशिष्ट कला शैली का विकास हुआ था। और यह क्षेत्र बौध धर्म का प्रमुख केंद्र भी था। इसकी पुष्टी संघोल से मिली पुरातात्वीक महत्व की वस्तुएं, एक वृहद स्तूप के भग्नावेशेष व बौद्ध विहारों के खंडहरों से होता है।
हर्षवर्धन के काल में हुआ था स्तूपों का निर्माण
इतिहासकारों का मानना है कि संघोल की खुदाई से मिली वस्तुओं के आधार पर इस स्तूप का निर्माण संभवतः हर्षवर्धन के काल में बौद्ध भिक्षु भद्रक द्वारा करवाया गया होगा। वहीं कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पाकालीन संस्कृति से जुड़े इस गांव का पुराना नाम संगल था, जो कालांतर में संघोल हो गया।
हूणों के हमले में नष्ट हुआ संघोल का वैभव
डॉ. सुभाष परिहार की माने तो बौद्ध स्तूप, बौद्ध विहार व यहां पर विकसित नगर सभ्यता के नष्ट होने का मुख्य कारण चीनी आक्रमण कारी हुणों का हमला रहा होगा। यानी संघोल का संबंध स्कंदगुप्त के शासन काल से भी रहा है।
जहांगीर ने बसाया जैसलमेर के राजपूतों को
संघोल की खुदाई से जुड़े डॉ. विष्णु शर्मा व डॉ. मनमोहन शर्मा के अनुसार कई चरणों में हुई संघोल के पुरातात्वीक स्थलों की खुदाई से जो बात सामने आई है उसके मुताबिक जहांगीर के शासन काल में जैसलमेर से राजपूतों को ला कर बसाया गया था। यानि हूणों के हमलों के बाद बेशक बौद्ध स्तूप जमीं दोज हो गए व बौद्ध विहार व नगर उजड़ गए लेकिन इसके कुछ समय बाद ही यह नगर आबाद हो गया।
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पर्यटन के नक्शे पर लाने की जरूरत
समय के लंबें अंतराल के बाद उजागर हुए इस ऐतिहाक महत्व के बौद्ध स्थल को पर्यटन के साथ-साथ पंजाब में प्रमुख बौध तीर्थ स्थल के रूप में भी संघोल की धरोहर को पर्यटन के नक्शे पर लाने की जरूरत है, ताकि चीन, जापान श्रीलंका सहित अन्य बौध धर्मावलंबी देशें के अनुयायीयों को इस स्थल तक पहुंचाया जा सके।