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स्तंभ लेखों में छिपी है भारत की गौरव गाथा
लोग कहते हैं पत्थर बोलते नहीं, पर ऐसा नहीं है, पत्थरों पर लिखे सदियों पुराने लेख बोले हैं। वह सुनाते हैं भातीय इतिहास की उस गौरवशाली गाथा को जिसे सुन कर देशवासियों का मस्तक गर्व उंचा और छाती गज भर चैड़ी हो जाती है।
दुर्गेश पार्थसारथी
चंडीगढ़: लोग कहते हैं पत्थर बोलते नहीं, पर ऐसा नहीं है, पत्थरों पर लिखे सदियों पुराने लेख बोले हैं। वह सुनाते हैं भातीय इतिहास की उस गौरवशाली गाथा को जिसे सुन कर देशवासियों का मस्तक गर्व उंचा और छाती गज भर चैड़ी हो जाती है। बस जरूरत है इन पत्थरों की आवज सुनने और उनपर लिखे लेखों की भाषा समझने की कि वे क्या कहते हैं! कुछ इसी तरह के स्तंभ लेखों की हम दास्तान सुना रहे हैं जिन्हें देख व सुन कर भारतीय तो क्या विदेशी भी दंगरह जाते हैं।
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बात 1794 की है जब हिंदुस्तान पर बरतानवी हुकुमत कायम थी। उन्ही दिनों वाराणसी के राजा चेत सिंह को मकान निर्माण के लिए मिट्टी व ईंटों की आवष्यकता को पूरा करने के लिए सारनाथ के वृहत क्षेत्र में स्थित लगभग 104 फुट ऊंचा ईंटों व पत्थरों द्वारा निर्मित एक टीला दिवान जगत सिंह को दिखाई दिया, जिसे तोड़ कर ईटों व मिट्टी को निकालते समय उन्हें स्थियों से भरा एक धातु मंजूषा मिली इस मंजूषे को उन्होंने गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया! यह टिला कुछ और नहीं बल्कि भारतीय इतिहास के पन्नों में महानायक के रूप में दर्ज मौर्य सम्राट अशोक द्वारा निर्मित धर्म राजिका स्तूप था और भष्म कोई सामान्य राख नहीं बल्कि भगवान बुद्ध के चिता की राख थी, जिस पर अशोक ने धर्मराजिका स्तूप का निर्माण करवाया था! इस घटना का उल्लेख चार वर्श बाद सन 1798 में वाराणसी के तत्कालीन कमिश्नर डंकन ने अपने षोध पत्र में किया!
कमिश्नर डंकन द्वारा सारनाथ की घटना का उल्लेख सार्वजनिक होते ही लोगों में इसके प्रति उत्सुकता बढी, जिसके फलस्वरूप खोज व खुदाई का काम शुरू हुआ। यहां के उत्खनन कार्य में जिन विद्वानों ने भाग लिया वे हैं- सर एलेक्जेंडर कनिंघम 1835-36, मेजर किट्टो 14851-52, श्री सी हार्न-1865, एफओ ओरटे 1904-1905, सर जॉन मार्शल-1907, श्री एच हरग्रहब्स-1914-15 एवं श्री दयाराम साहनी 1927-1932ई.। इन इतिहासकारों का अथक परिश्रम रंग लाया और उजागर हुई सदियों पहले की उस महान भारत की धरोहर जिसे हम राम राज्य या स्वर्ण युग के नाम से जानते हैं।
वक्त के गर्त में समाया हुआ सारनाथ का वैभव एक बार फिर उजागर हुआ खुदाई से मिली अने राजवंषों द्वारा पत्थर की कई काल खंडों में निर्मित असंख्य बौद्ध एवं हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों, मंदिरों, स्तूपों व भवनों के खंडहरों के रूप में। इन्हीं खंडहरों के बीच मिला लाल बलुए पत्थर द्वारा निर्मित 15.25 मीटर उंचा मौर्य सम्राट अशोक का सिंह शीर्ष स्तंभ। इस स्तंभ पर मौर्य सम्राट अषोक ने ब्राह्मी लीपी में बौद्ध भिक्षुओं के लिए संघ के निमय व निर्देष खुदवाए हैं।
सिंह स्तंभ प्राचीन भारतीय वास्तु कला का वह दुलर्भ नमूना है जिसका दुनियां में कोई जवाब नहीं है। स्तंभ को देखने से ऐसा आभास होता है कि यह मीन के अंदर से निकला हुआ है। इस स्तंभ का आधार पर व्यास 55.90 सेमी है। स्तंभ के षीर्श भाग पर उल्टे कमल की अधोमुखी पंखुडियों से ढकी कुंभिका कमल पंखुडियों के उपर गोल चैकी जिसके किनारों पर हाथी, बैल, घोडा एंव सिंह की चार पशु आकृतियां बनी हैं तथा प्रत्येक दो पशुओं के बीच चैबीस तिलियों वाले एक चक्र का अंकन किया गया है।
भारत के राश्टीय ध्वज के बीच में इसी चक्र को दिखाया गया है। चैकी के उपर सुगठित सिराओं वाले पीठ से पीठ सटाए चार सिंह चारों दिषाओं में मुंह किए उकडू बैठे हुए हैं। इनके उपरी भाग में कभी 32 अरों वाला धर्म चक्र एक बेलनाकार टुकड़े द्वारा अवस्थित था, जो खुदाई के दौरान टूट कर कई टुकड़ों में प्रापत हुआ है। चार सिंहों के बीच में बनाए गए छेद के 20.5 सेमी व्यास से बेलनाकर टुकड़े की मोटाई का अनुमान लगाया जा सकता है। यह स्तंभ तीन टुकड़ों में प्राप्त हुआ है जिसका षिर्श भाग सुरक्षा व उपयोगिता के दृश्टि से सन 1905 से 1910 के में बने संग्रहालय के मध्य में स्थापित कर दिया गया, बाकी के षेश भाग बौद्ध विहारों के ध्वंषावषेशों के बीच मौजूद है।
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हैरान करता है मेहरौली का स्तंभ लेख
सारनाथ के चार सिंहों वाले स्तंभ के अतिरिक्त गुप्त वंश का महा प्रतापी राजा सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमा दित्य 375 सक 414 द्वारा स्थापित दिल्ली के समीप मेहरौली का लौह स्तंभ लेख है, जिसके उपरी भाग में उल्टे कमल के उपर बैठे एक सिंह की आक्रिति है। इस स्तंभ पर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दिग्विजयों का वर्णन किया गया है। इस स्तंभ लेख की विशालता को देख कर आश्चर्य होता है कि तत्कालीन समय में इतना बड़ा लोहे का खंभा आज से लगभग सोलह सौ साल पहले कौन से स्पात के कारखाने में ढाला गया होगा।
सैदपुरभीतरी में खड़ा है स्कंदगुप्त का विजय स्तंभ
सारनाथ से लगभग 50-55 किमी की दूरी पर उत्तर पूर्व की दिषा में उत्तर प्रदेष के गाजीपुर जनपद के सैदपुर सादियाबाद मार्ग पर गांगी नदी के बाये किनारे पर बसे भितरी नाकम कस्बे के मध्य स्कंद गुप्त द्वारा स्थापित चुनार के लाल बलुए पत्थर द्वारा निर्मित 38 फिट उंचा स्तंभ अपने अतीत पर गौरवानित होता सीना तोने आज भी खड़ा मुस्करा रहा है। इस विजय स्तंभ पर स्कंदगुप्त द्वारा चीनी आक्रमणकारी हूणों को पराजित कर उन्हें अपने विषाल साम्राज्य से बाहर खदेड़ने व षासन की उपलब्धियों का उल्लेख संस्कृत भाश में गुप्त कालीन लिपि में स्तंभ के निचले भाग पर सवा दो फिट चार इंच उचे और 6 फिट सवा दो इंच चैड़े भाग 16 पंक्तियों में किया गया है!
इस लेखकी छह पंक्तियां गद्यात्मक और षेश पंक्तियां पद्यात्मक हैं। इस स्तंभ का षिर्श भाग घंटा नुमा है। जिसपर विकसित कमल की अधोमुखी पंखुड़ियां अंकित हैं। इसके उपरी भाग पर तीन षेरों की बैठी हुई मूर्तियां थीं, जो साल 1947 से पहले आसमानीय बिजली गिरने से नश्ट हो गई। इस बृत्ताकार स्तंभ का व्या दो फुट तीन इंच है। एक ही पत्थर को तरासकर बनाया गया स्तंभ लेख राजभवन के खंडहरों के मध्य खुले आकास के नीचे स्थित है! दुर्भाग्यवश यह स्तंभलेख तिथि विहिन है!
हिंदू धर्म की विशालता बतात है विदिशा का गरुध्वज स्तंभ लेख
ऐसा ही एक पत्थर द्वारा निर्मित स्तंभ लेख मध्य प्रदेश के भोपाल से लगभग 76 किमी की दूरी पर विदिसा में यवन शासक हेल्योडोरस द्वारा स्थापित किया गया है। इस स्तंभ पर लिखे लेख से पता चलता है कि सिकंदर के सेनापित हेल्योडोरस ने हिंदू धर्म स्वीकार करने के बाद गरुण की आकृतिवाला यह स्तंभलेख स्थापित करवा कर वहां भगवान विश्णु का एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसे कालंातर में गरुणध्वज स्तंभ के नाम से जाना जाता है!
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अशोक ने समुचे भारत में लगवाए थे सात स्तंभलेख
मौर्य सम्राट अशोक द्वारा समुचे भारत में सात स्तंभलेख, तीन लघु स्तंभलेख व चैदह वृहद शिलालेख आठ स्थानों पर पाये गए हैं। अशोक के स्तंभ व शिलालेख ब्राह्मी व खरोष्ठी लिपि में लिखे गए हैं। इन्हें पढ़ने के लिए पुरातत्ववेत्ताओं को कड़ी मेहनत करनी पड़ी! फलस्वरूप् सर्व प्रथम 1837 में अंग्रेज इतिहासकार जेम्स प्रिंसेप को भारतीय विद्वानों की ममद से यह सफलता प्राप्त हुई। प्राचीन भारत के गौरवमयी इतिहास की गाथा सुना रहे इन स्तंभ लेखों का अस्तीत्व दुर्भाग्य से आज खतरे में नजर आ रहा है।