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UCC: आदिवासियों द्वारा यूसीसी का विरोध बीजेपी के लिए बना संकट, चुनावों में बिगड़ सकता है खेल
बीजेपी का मकसद शुरू से इन तीनों एजेंडों के जरिए बहुसंख्यक हिंदू वर्ग को साधना रहा है। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति और अयोध्या स्थित भव्य राम मंदिर के निर्माण कार्य को शुरू कराकर भगवा दल इसमें कामयाब भी रही।
UCC: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) की वकालत करने के बाद अब लगभग तय हो चुका है कि केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इसको लेकर वाकई में गंभीर है। माना जा रहा है कि मोदी सरकार आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इसे देश में लागू करने की पूरी कोशिश करेंगे। अगर पीएम मोदी ऐसा कर पाते हैं तो वे भाजपा में ऐसे नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे, जिसने अपने शासनकाल में पांच वर्षों के भीतर तीनों कोर एजेंडे (धारा 370, राममंदिर और यूसीसी) को लागू करने में सफलता पाई।
बीजेपी का मकसद शुरू से इन तीनों एजेंडों के जरिए बहुसंख्यक हिंदू वर्ग को साधना रहा है। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति और अयोध्या स्थित भव्य राम मंदिर के निर्माण कार्य को शुरू कराकर भगवा दल इसमें कामयाब भी रही। लेकिन एजेंडा सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करना इतना आसान नजर नहीं आ रहा। देश का एक बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग तो पहले से ही इसके विरोध में खड़ा है। अब आदिवासी समुदाय के लोगों ने भी इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। यहीं से बीजेपी के लिए नया संकट खड़ा होता नजर आ रहा है। आदिवासी मतदाताओं का चुनावी वजन भी ठीक-ठाक है, ऐसे में कांटे के मुकाबले में उनका बीजेपी के प्रति नाराजगी पार्टी की राह चुनाव में मुश्किल कर सकती है।
आदिवासी क्यों कर रहे विरोध ?
सामान नागरिक संहिता के विरोध में आदिवासी बहुल राज्यों से विरोध के स्वर तेज होने लगे हैं। आदिवासी बहुल राज्यों से यूसीसी के खिलाफ तीखे स्वर सुनाई दे रहे हैं । झारखंड के करीब 30 आदिवासी संगठनों ने एक साझा बयान जारी कर साफ कर दिया है कि वो विधि आयोग से इसे वापस लेने के लिए कहेंगे। पूर्वोतर के आदिवासी संगठनों ने भी सरकार को चेता दिया है। दरअसल, आदिवासी समुदाय के नेताओं को लगता है कि यूसीसी के लागू होने से उनकी प्रथागत परंपराएं खत्म हो जाएंगी। साथ ही जमीन से जुड़े छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट पर भी इसका असर होगा। आदिवासी संगठनों के इस विरोध पर फिलहाल कोई भी बड़ा भाजपा नेता कुछ भी बोलने को तैयार नजर नहीं आ रहा है।
सियासी तौर पर काफी वजन रखते हैं आदिवासी समुदाय
140 करोड़ की आबादी वाले भारत में आदिवासियों की संख्या 10 करोड़ है। लोकसभा की कुल 47 सीटें इनके लिए आरक्षित हैं। लोकसभा की कुल सीटों का यह करीब 9 प्रतिशत है। इनमें सर्वाधिक सीटें 6 मध्य प्रदेश में फिर 5-5 सीटों के साथ झारखंड और ओडिसा का नंबर आता है। आरक्षित सीटों के अलावा मध्य प्रदेश की 3, ओडिशा की दो और झारखंड की 5 सीटों का समीकरण आदिवासी ही तय करते हैं। इस प्रकार ऐसी 15 लोकसभा सीटें हैं, जिनपर आदिवासी समुदाय की आबादी 10 से 20 प्रतिशत के आसपास है। कुल मिलाकर करीब 70 सीटें लोकसभा की ऐसी हैं,जिस पर आदिवासी वर्ग के लोग जीत या हार तय करते हैं।
बीजेपी ने किया था शानदार प्रदर्शन
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने आरक्षित श्रेणी के अंतर्गत आने वाली 47 सीटों पर शानदार प्रदर्शन किया था। भगवा दल ने 2019 के आम चुनाव में 28 सीटों पर जीत हासिल की थी। एमपी,गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक और त्रिपुरा में तो भगवा दल ने एसटी के लिए रिजर्व सीटों पर क्लीन स्वीप किया था। इससे पहले 2014 के आम चुनाव में भी भाजपा को 26 सीटों पर सपलता मिली थी। उस दौरान भी पार्टी ने एमपी,गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक में आने वाली सभी एसटी रिजर्व सीटों पर क्लीन स्वीप किया था।
विधानसभा चुनाव में भी हैं असरदार
आदिवासी वर्ग देश के 10 राज्यों के विधानसभा चुनाव में निर्णयाक भूमिका में होते हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखंड ऐसे राज्यों में शुमार हैं। इनमें से कुछ राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं। एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं। बीजेपी शासित मध्य प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत है और यहां की विधानसभा में इनके लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। इसके अलावा 25-30 विधानसभा सीटों पर ये नतीजे प्रभावित करने की ताकत रखते हैं। एमपी में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। इसी प्रकार राजस्थान में 14 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 34 प्रतिशत आदिवासियों की आबादी है। राजस्थान की 200 में से 25 और छत्तीसगढ़ की 90 में से 34 सीटों पर आदिवासी वर्ग प्रत्याशियों की चुनावी किस्मत तय करते हैं।
आदिवासियों का विरोध बीजेपी के लिए बना संकट
आदिवासी महिला राजनेता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने एक बड़ा दांव खेला था। सियासी हलकों में इसे पीएम मोदी का मास्टरस्ट्रोक बताया गया। 10 करोड़ की आबादी वाले आदिवासी समुदाय से आजतक कोई महिला या पुरूष देश के इस सर्वोच्च पद तक नहीं पहुंचा था। लेकिन यूसीसी का मुद्दा सामने आने के बाद बीजेपी का ये दांव हल्का साबित हो रहा है। आदिवासी समुदायों की नाराजगी भारतीय जनता पार्टी को राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव और अगले साल देश में हो रहे लोकसभा में भारी पड़ सकती है। पार्टी की शीर्ष नेतृत्व इसे लेकर चिंतित बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि पार्टी ने बड़े नेताओं को विरोध कर रहे आदिवासी नेताओं से संपर्क साधने और उन्हें भरोसे में लेने का जिम्मा दिया है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूसीसी पर आदिवासियों की नाराजगी मोल लेने के लिए तैयार है या नहीं।