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रघुवंश प्रसादः किसे पता था इस्तीफा देकर कहां जा रहे हैं, कहां चले गए

रघुवंश बाबू सरीखे लोग राजनीति में विकृतियाँ जड़ जमाकर बैठ गयी हैं यह सोचकर निराश हो जाने वालों के लिए उम्मीद अभी जगाते हैं। वह अपनी माटी, अपने लोग, खाँटी माटी, खांटे लोग की उम्मीद थे।

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Published on: 13 Sept 2020 2:42 PM IST
रघुवंश प्रसादः किसे पता था इस्तीफा देकर कहां जा रहे हैं, कहां चले गए
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Where did Raghuvansh Prasad go after resigning

योगेश मिश्र

जब राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपने साथी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के एम्स से भेजे गये इस्तीफ़े के जवाब में यह लिख रहे थे कि ”आप हमें छोड़कर कहीं नहीं जा रहे।” तब उन्हें क्या पता था कि रघुवंश बाबू हमेशा के लिए कूच करने वाले हैं। वह और कहीं नहीं जा रहे। लालू को नहीं दुनिया छोड़कर जा रहे हैं।

लालू की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की

रघुवंश बाबू को हमेशा यह कहा जाता था कि वह सही आदमी ग़लत पार्टी में है। क्योंकि वह अपनी पार्टी के ग़लत फ़ैसलों के ख़िलाफ़ बोलने से कभी नहीं चूके। उन्होंने इस मामले में लालू की नाराज़गी की कोई परवाह नहीं की।

इसे इससे भी समझा जा सकता है कि लालू की पार्टी के एजेंडे में भले ही विकास न रहा हो। पर रघुवंश बाबू के एजेंडे में बिहार का विकास था।

बिहार की सतत चिंता

वह जब जब केंद्र में मंत्री रहे तब तब केंद्रीय योजनाओं को बिहार में लागू करने को लेकर लगातार बिहार के अफ़सरों से पूछताछ, खतोकिताबत करते रहते थे। लालू जी इसे बरम बाबा पर काम का भूत सवार होने की बात कह कर चकल्लस भी कर लिया करते थे।

raghuvanshprasad

कर्पूरी ठाकुर के बाद से वह लालू के साथ ही हो लिए। मनरेगा योजना शुरू करने के श्रेयका सेहरा रघुवंश बाबू के सिर भी बंधता है।जब यह योजना लागू की गयी थी तब राजग के नेता रहे रघुवंश प्रसाद सिंह देश के ग्रामीण विकास मंत्री थे। वह लोहिया और कर्पूरी के समाजवादी आंदोलन से प्रेरित राजनीतिक धारा के प्रतिनिधि रहे। सन 74 के छात्र आंदोलन की उनकी सक्रियता ने उन्हें ख़ास पहचान दी।

मैथमेटिक्स में डॉक्टरेट

रघुवंश प्रसाद का जन्म छह जून को वैशाली के शाहपुर में हुआ था । उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय से मैथमेटिक्स में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी। युवावस्था में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े । 1973 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सचिव बने।

1977-90 तक बिहार सभा के सदस्य रहे। 1977-79 तक बिहार के ऊर्जा मंत्री रहे। लोक दल केअध्यक्ष बनाए गये। 1990 में बिहार विधानसभा के सहायक स्पीकर का पद संभाला । लोक सभा केसदस्य के रूप में उनका कार्यकाल 1996 से प्रारंभ होता है ।

पहली बार में ही केंद्रीय मंत्री

पहली बार निर्वाचित होते ही उन्हें केंद्रीय पशुपालन एवं डेयरी उद्योग राज्यमंत्री बनाया गया । दूसरी बार 1998 में निर्वाचित हुए। तीसरी बार 1999 में लोकसभा के लिए चुने गये। चौथी बार 2004 में सांसद बने। 23 मई, 2004 से 2009 तक वह ग्रामीण

विकास मंत्री रहे। 2009 में पाँचवीं बार जीते।

raghuvanshprasad with manmohan

वह सचमुच जनता के प्रतिनिधि थे। वह जनता तथा मीडिया के लिए बराबर उपलब्ध रहे। उन्होंने कभी खुद को बड़ा नहीं बनाया। बड़ा नहीं बताया। वह बड़प्पन की बातें नहीं करते थे।

समझौतावादी नहीं

जनता की भाषा में बोलना और जनता के लिए काम करना उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया व कर्पूरी ठाकुर से मिला था। यही वजह थी कि लालू ख़ेमे से बाहर भी वह लोकप्रिय रहे। इनकी फ़ितरत इन्हें समझौतावादी नहीं होने देती थी।

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तभी तो राम विलास पासवान की पार्टी से एक बार सांसद रह चुके रमा सिंह को जब लालू ने रघुवंश बाबू के संसदीय क्षेत्रों के एक विधानसभा क्षेत्र से उतारने का मन बनाया तो एम्स में भर्ती रहते हुए भी उन्होंने लालू को एक पेज का इस्तीफ़ा भेजने में कोई विलंब नहीं किया।

कहां जाएंगे

रघुवंश बाबू के इस्तीफ़े के बाद इन चर्चाओं का ज़ोर पकड़ना लाज़िमी था कि वह किस पार्टी में जायेंगे। लोगों ने अपने अपने हिसाब से कहना शुरू कर दिया कि वह भाजपा में जायेंगें।

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कोई नीतीश के साथ जाने की अटकल लगाने लगा। क्योंकि बिहार में इसी साल चुनाव है। इतना क़द्दावर नेता बिना सियासत के चुनावी दौर में बिना किसी दल के कैसे रह सकता है।

कहां चले गए

पर किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि वह वहाँ जायेंगें। जहां अचानक चले गये। सब कुछ छोड़ कर। रघुवंश बाबू के चले जाने के बाद बिहार की राजनीति में गरीब ग़ुरबों का कोई सच्चा प्रतिनिधि बचा ही नहीं। जो है वह राजनीतिक प्रतिनिधि हैं।

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रघुवंश बाबू के साथ ही बिहार की राजनीति से डॉ. राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर की नुमाइंदगी का दौर भी ख़त्म हो गया। इनके विचार व कर्म का दौर ख़त्म हो गया। रघुवंश बाबू सरीखे लोग राजनीति में विकृतियाँ जड़ जमाकर बैठ गयी हैं यह सोचकर निराश हो जाने वालों के लिए उम्मीद अभी जगाते हैं। वह अपनी माटी, अपने लोग, खाँटी माटी, खांटे लोग की उम्मीद थे।



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