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Sudha Murty Biography: टाटा मोटर्स में चयनित होने वाली पहली महिला इंजीनियर बनीं थी पद्मश्री सुधा मूर्ति

Sudha Murty Biography: पद्मश्री सुधा मूर्ति ने टाटा मोटर्स में पहली महिला इंजीनियर के रूप में चयनित होने का गौरव हासिल किया था। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी ऊर्जावान व्यक्तित्व के साथ एक सफल इंजीनियर के रूप में अपनी पहचान बनाई।

Jyotsna Singh
Published on: 3 May 2023 4:56 PM IST
Sudha Murty Biography: टाटा मोटर्स में चयनित होने वाली पहली महिला इंजीनियर बनीं थी पद्मश्री सुधा मूर्ति
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Sudha Murty Biography (Newstrack)

Sudha Murty Biography: “प्रत्येक भूमिका में सफलता का सार सदैव एक ही रहा है,आप जो भी काम करें, अच्छी तरह से करें।“ सुधा मूर्ति प्रत्येक कार्य में मेरा उद्देश्य एक ही रहा है – जब आप एक अधीनस्थ हों, तो अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार और निष्ठावान रहें तथा व्यावसायिक बनें, लेकिन जब आप बॉस की हैसियत में हों, अपने अधीनस्थों का ध्यान रखें ठीक उसी तरह, जैसे जब बच्चे घर पर हों, माँ को उनके साथ होना चाहिए, क्योंकि उन्हें माँ की जरूरत होती है” ।
यहां हम बात कर रहें हैं भारत देश की जानी मानी हस्ती पद्मश्री सुधा मूर्ति के बारे में। सुधा मूर्ति भारत देश की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका हैं। भारत की सबसे बड़ी ऑटो निर्माता टाटा इंजीनियरिंग और लोकोमोटिव कंपनी (TELCO) में पहली महिला इंजीनियर बनीं। उन्होंने आम आदमी की पीड़ाओं को अभिव्यक्ति देते हुए आठ उपन्यास भी लिखे हैं। इन सभी उपन्यासों में महिला सशक्तिकरण पर धारदार लेखनी चलाई है। इसके अलावा यह गरीब बच्चों की शिक्षा की सुविधा प्रदान करने और भारत की अग्रणी आईटी कंपनी इंफोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष भी हैं। इन्होंने इंफोसिस के सह-संस्थापक एन आर नारायण मूर्ति से शादी की थी। इन्हें 2006 में भारत सरकार द्वारा सामाजिक कार्यों के लिए मूर्ति को भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।

जोड़ी हुई जमा पूंजी से हुई इंफोसिस जैसी बड़ी संस्था की शुरुवात

सुधा मूर्ति जब पुणे मै जॉब कर रही थी तो उनकी मुलाकात नारायण मूर्ती से हुई फिर आगे चल कर उन दोनों ने शादी भी की । सुधाजी और नारायणजी मूर्ति के 2 बच्चे है, एक लड़का और एक लड़की । नारायण मूर्ति जी अपना खुद का कारोबार करना चाहते थे लेकिन पैसे उनके पास नहीं थे । तो उन्होंने अपनी यह सोच पत्नी सुधा मूर्ति के सामने रखी। उनकी इस सोच को बढ़ावा देते हुये सुधा मूर्ति ने इस प्रोजेक्ट को जल्द से जल्द शुरू करने को कहा और उनके पास जो उनकी जमा पूंजी थी, जो उन्होंने आर्थिक विषमताओं से निपटने के लिए बचाकर रखी थी । वो 10,000 रुपए की राशि नारायण मूर्ती के हाथ पर रख दी। नारायण मूर्ति ने उस छोटी सी प्रारंभिक राशि से ‘ इंफोसिस ‘ की नींव रखी। नारायण मूर्ति बड़े गर्व से बताते हैं कि यह उसी की बची हुई धनराशी थी, जो बंगलोर में ‘ इंफोसिस ‘ स्थापित करने में सहायक बनी।

पुरुषों को भर्ती करने की नीति के खिलाफ सुधा मूर्ति ने जेआरडी टाटा को भेजा एक पोस्टकार्ड

शिक्षा समाप्ति के बाद सुधा मूर्ति ने सबसे पहले ग्रेजुएट प्रशिक्षु के तौर पर टाटा कंपनी और बाद में दी वालचंद ग्रुप आफ इंडस्ट्रीज में काम किया। कम्प्यूटर साइंस के क्षेत्र में उन्हें महिलाओं के लिए महारानी लक्ष्मी अम्मानी कालेज की स्थापना करने का श्रेय जाता है जो आज बेंगलूर यूनिवर्सिटी के कम्प्यूटर साइंस विभाग के तहत बेहद प्रतिष्ठित कालेज का दर्जा रखता है। महिला अधिकारों की समानता के लिए भी सुधा मूर्ति ने बेहद काम किया है। इस संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। उस जमाने में टाटा मोटर्स में केवल पुरुषों को भर्ती करने की नीति थी जिसे लेकर सुधा मूर्ति ने जेआरडी टाटा को एक पोस्टकार्ड भेजा। इसका असर यह हुआ कि टाटा मोटर्स ने उन्हें विशेष साक्षात्कार के लिए बुलाया और वह टाटा मोटर्स (तत्कालीन टेल्को) में चयनित होने वाली पहली महिला इंजीनियर बनीं।

एक प्रखर छात्रा थीं सुधा मूर्ति

अपनी प्रखर बुद्धि से सुधा मूर्ति ने अपने छात्रजीवन में सबको चौका कर रख दिया था। उन्होंने बी. वी. बी. कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी’, हुबली से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि ग्रहण की। वे राज्य में प्रथम आई, जिसके लिए उन्हें कर्नाटक के मुख्यमंत्री से एक रजत पदक प्राप्त हुआ।
1974 में उन्होंने अध्ययन में और भी उन्नति की, जब उन्होंने ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस’ से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स डिग्री ग्रहण की। उन्होंने अपने वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त किया और ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स ‘से इस उपलब्धि के लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला।

जब 12 साल की उम्र में सुधा मूर्ति ने अपनी दादी को पढ़ना सिखाया

मात्र 12 बरस की सुधा जब एक मासूम सी बच्ची थीं। उन्होंने अपनी दादी को उनकी प्रिय किताब पढ़ना सीखा दिया। 1962 के आसपास उत्‍तरी कर्नाटक के हावेरी जिले में एक छोटा सा कस्‍बा था शिगांव। सुधा वहां अपने दादा-दादी के साथ रहती थीं। स्‍कूल से लौटकर सुधा दिन-भर की कहानियां दादी को सुनाती। दादी वहीं बरामदे में बैठी पोती के स्‍कूल से लौटने की इंतजार करती रहतीं, दोनों दादी और पोती के बीच काफी गहरी दोस्‍ती थी। दादी ने कभी स्‍कूल का मुंह नहीं देखा था। उन दिनों यातायात के आधुनिक साधन मौजूद नहीं थे, यही वजह थी कि सिंगाव कस्‍बे में जहां सुधा अपनी दादी के साथ रहती थीं वहां अखबार और पत्र-पत्रिकाएं बहुत विलंब से पहुंचती थीं। उन दिनों गांव में कन्‍नड़ की एक पत्रिका आती थी- कर्मवीर। उस पत्रिका में त्रिवेणी नाम की एक लेखिका की कहानी सिलसिलेवार प्रकाशित होती थी। कहानी का नाम था- ‘काशी यात्रा.’ काशी यात्रा एक बूढ़ी स्‍त्री की कहानी थी, जिसकी बस एक ही ख्‍वाहिश है कि वो मरने से पहले बस एक बार काशी जाकर भगवान विश्‍वनाथ के दर्शन करना चाहती थीं। इस यात्रा के लिए वह बहुत समय से एक-एक पैसा जोड़ रही थी। लेकिन जब यात्रा का समय आया तो वह बनारस नहीं जा पाई। गांव की एक जवान, गरीब लड़की की शादी के लिए उसने अपने सारे पैसे दे दिए और काशी जाने का विचार छोड़ दिया। सुधा की दादी इस कहानी की अगली किश्त को सुनने के लिए हर हफ्ते पत्रिका के आने का बेसब्री से इंतजार करती थीं। सुधा स्‍कूल से आती तो उन्‍हें उस बूढ़ी अम्‍मा की कहानी पढ़कर सुनाती थीं। दादी को मानो वो अपनी ही कहानी लगती थी। फिर एक बार ऐसा हुआ कि सुधा अपने किसी रिश्तेदार की शादी में एक हफ्ते के लिए गांव से बाहर चली गईं जब वह लौटी तो देखा कि दादी बहुत उदास थीं। सुधा की अनुपस्थिति में इस दौरान पत्रिका तो पहले की तरह आती रही, लेकिन दादी एक अक्षर भी खुद से पढ़ नहीं पाईं। दादी ने हताश होकर उस दिन तय किया कि अब वो कन्‍नड़ पढ़ना सीखेंगी। 80 बरस की दादी ने 12 बरस की पोती से वर्णमाला सिखने से शुरुआत की। दादी बड़ी लगन और मेहनत से सीखती अपनी पोती से कन्नड़ भाषा को लिखना पढ़ना सीखती रही, और दोनों की ही मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया।
दशहरे के मौके पर सुधा ने अपनी दादी को सुंदर रंगीन कागज में लिपटा एक बेशकीमती उपहार दिया। दादी ने उस गिफ्ट पैकेट को खोलकर देखा तो अंदर से एक किताब निकली जिसका नाम था, काशी यात्रा और लेखिका का नाम – त्रिवेणी। ये उसी पत्रिका की कहानी संग्रह था, जो अब एक उपन्‍यास के रूप में छपकर आ गई थी। दादी इस अनमोल तोहफे को देखकर अपने आंसू रोक न सकीं और भावविह्वल हो आगे बढ़ कर नन्‍ही सुधा के चरण स्पर्श करने के लिए लपकी। नन्हीं सुधा के लिए दादी का व्यवहार समझ से परे था। सुधा ने इस पर दादी से पूछा कि ये आपने क्‍या किया तो जवाब में दादी ने कहा, “हमारे यहां गुरु का सम्‍मान करने, उसके पैर छूने की परंपरा है और मैने वही किया”

जब एक अनाथ लड़की ने भरा सुधा मूर्ति का बिल

बैंगलूरु जा रही एक ट्रेन में टिकट चेकर की नजर एक सीट के नीचे छिपी हुई ग्यारह-बारह साल की एक लड़की पर पड़ी और उसने उसे टिकट दिखाने के लिए कहा। लड़की रोते हुए बाहर निकली और कहा कि उसके पास टिकट नहीं है। तभी वहीं मौजूद सुधा मूर्ति ने कहा कि, ‘इस लड़की का बेंगलुरु तक का टिकट बना दो इसके पैसे मैं दे देती हूं।’ महिला ने लड़की से पूछा कि वह कहां जा रही है तो उसने कहा कि पता नहीं मेम साब। लड़की ने अपना नाम चित्रा बताया। सुधा मूर्ति ने अपनी जान-पहचान की एक स्वयंसेवी संस्था को चित्रा को सुपुर्द कर दिया। जहां सुधा मूर्ति की मदद से चित्रा वहां रहकर पढ़ाई करने लगी। बीस साल बाद सुधा मूर्ति को अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को में एक कार्यक्रम में बुलाया गया। कार्यक्रम के बाद सुधा मूर्ति अपना बिल देने के लिए रिसेप्शन पर आई तो पता चला कि उनके बिल का भुगतान किया जा चुका है। जो कि वहां उपस्थित एक दंपती ने कर दिया है। महिला उस दंपती से पूछती हैं कि ‘आप लोगों ने मेरा बिल क्यों भर दिया?’ युवती ने कहा, ‘मैम, गुलबर्गा से बैंगलुरु तक के टिकट के सामने यह कुछ भी नहीं है।’ महिला ने ध्यानपूर्वक देखा और कहा, ‘अरे चित्रा, तुम’। बड़ा ही भावविभोर कर देने वाला दृश्य था।एक तिनके को सहारा देकर उन्होंने उसे कहां से कहां पहुंचा दिया था। असल मायने में ऐसी मदद को ही वास्तविक मदद कहा जा सकता है । इनके ऐसे अनगिनत किस्सों की एक लंबी फेहरिस्त मौजूद है।

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

Sudha Murthy इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन और गेट्स फाउंडेशन की सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल पहलों की सदस्य हैं। उन्होंने कई अनाथालयों की स्थापना की, ग्रामीण विकास के प्रयासों में भाग लिया, कंप्यूटर और पुस्तकालय सुविधाओं के साथ सभी कर्नाटक के सरकारी स्कूलों को प्रदान करने के आंदोलन का समर्थन किया और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ‘द मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की। सुधा मूर्ति का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विशाल है कि उसके बारे में जो कहा जाए कम है। इस महान महिला को भारत सरकार ने 2006 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा और सत्यभामा विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डाक्टरेट उपाधि से सम्मानित किया। अभी हाल ही में इन्हें 2023 में, भारत में तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। इस सूची में कई सम्मान अब तक इनको प्राप्त हो चुके हैं। परमार्थ सेवा और भारत देश के हासिये पर जी रहे एक समाज के बीच शिक्षा की अलख जलाने जैसे अपने मुहिम को अपनी जिंदगी का ध्येय बनाने वाली सुधा मूर्ति जैसे एक विराट व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने ये बड़े बड़े पुरस्कार बेहद सूक्ष्म नजर आते हैं। कहावत है कि इंसान के ओहदे से कहीं ऊंचा दर्जा उसके व्यक्तित्व का होता है, यही खास बात सुधा मूर्ति के व्यक्तित्व की पहचान बन चुकी है।



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