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Mathura Vrindavan Story: दो रुपए का भंडारा!

Mathura Vrindavan Story: बांकेबिहारी मंदिर के आसपास सिमटा हुआ।बाहर भी कुछ बड़े बड़े आश्रम बन गए थे। कस्बे के बाहरी भाग में एक छोटा सा आश्रम था, आश्रम क्या कुटिया कह सकते हैं।दो कमरे पक्के जिसमें एक में गोविन्द जी का पूजाघर और दूसरे कमरे में साधु महाराज अपने दो शिष्यों के साथ रहते थे।

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Published on: 8 Jun 2023 7:50 AM GMT
Mathura Vrindavan Story: दो रुपए का भंडारा!
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Mathura Vrindavan Story in Hindi (social media)

Mathura Vrindavan Story: चौंक गए न? लेकिन यह हुआ था वह भी कान्हा की नगरी वृंदावन में। घटना पिछली सदी के छठे दशक की है। तब का वृंदावन आज जैसा एक बड़ा नगर नहीं बल्कि एक छोटा सा कस्बा था। बांकेबिहारी मंदिर के आसपास सिमटा हुआ।बाहर भी कुछ बड़े बड़े आश्रम बन गए थे। कस्बे के बाहरी भाग में एक छोटा सा आश्रम था, आश्रम क्या कुटिया कह सकते हैं।दो कमरे पक्के जिसमें एक में गोविन्द जी का पूजाघर और दूसरे कमरे में साधु महाराज अपने दो शिष्यों के साथ रहते थे। एक टिन शेड का भंडार और रसोईघर था।

कुछ झोपड़ियां थीं। संपत्ति के रूप में दान में मिली एक गऊ माता थी।आश्रम की आय का साधन भिक्षाटन था। कभी कभार कोई भूला भटका यात्री आ जाता है। एक रूपया दो रुपया चढ़ा जाता था। इससे आश्रम का बाहरी खर्च चल जाता था। फिर भी संत जी दस बीस दीन दुखियों का भंडारा करते थे।इसी तरह चलता रहा।

बरसात आ गई।कई दिनों तक पानी बरसता रहा कोई भिक्षाटन के लिए बाहर निकल नहीं सका। किसी तरह दो तीन दिन तक जमा भोजन सामग्री से काम चलता रहा। अंतिम दिन एक दिन की ही सामग्री बची।संत जी बड़े चिंतित हुए और पानी में भींगते हुए ही गोविन्द जी के मंदिर में पहुंच गए।संत जी अपने आराध्य देव को पुत्रवत मानते थे।

जाकर कहा गोविन्द आज तो खिला दे रहा हूं।कल से अपने खाने की व्यवस्था कर लेना। मैं तो भूखा रह लूंगा। पर तुम्हें भूखा नहीं देख सकता। इसलिए मैं चला जाऊंगा। इतना कह कर अपने कमरे में आ गए। इतने में देखा कि एक वृद्ध महिला पुरानी सूती साड़ी पहने बटे चप्पल में दरवाजे पर आ खड़ी हुई।संत जी उठकर बाहर आये और आदरपूर्वक उसे अंदर ले गये। एक चटाई बिछा कर बुढ़िया को बैठाया। फिर बड़े संकोच से कहा माताजी कुटिया में कुछ है नहीं तो आप को जलपान नहीं करा सकता। वृद्धा ने कहा स्वामी जी कोई बात नहीं। मैं एक काम से आई हूं।संत ने कहा माताजी आज्ञा करिए। अब वृद्धा ने आंचल खोलकर एक मुडा़तुड़ा दो रुपए का नोट निकाला और कहा कि मैं कल से इसे लेकर आश्रम आश्रम घूम रही थी कि कोई मेरे दो रुपए अपने भंडारे के लिए ले ले। परंतु सबने दुत्कार कर भगा दिया। एक महन्त ने कहा माताजी मैं दो रुपए लेकर क्या करूंगा। मेरे यहां सैकड़ों रूपए रोज खर्च होते हैं। आप इसे किसी भिखारी को दे दें।

दूसरे ने कहा कि माताजी जाकर अपने रूपए से कहीं भोजन कर लीजिए। एक और ने कहा माताजी रखे रहिए इसमें आपका मथुरा तक का किराया हो जाएगा। अब संत जी ने कहा माताजी मेरे अहोभाग्य जो आप इस कुटिया में पधारीं। लाइए मुझे दीजिए मैं इसी से आज का भंडारा कर दूंगा। वृद्धा प्रसन्न हुई। रूपया देकर जाने लगी तभी संत जी ने कहा माताजी रूकिए।

अपने रुपए के भंडारे का प्रसाद ग्रहण करके जाइए। माताजी को आश्चर्य हुआ कि साधु पागल तो नहीं है। दो रुपए में कौन सा भंडारा करेगा। फिर भी रुक गई. संत जी ने अपने शिष्य से कहा जाओ माताजी के दो रूपए का नमक ले आओ और दाल सब्जी सबमें डाल दो। आज का भंडारा माताजी के नाम रहा। अब माताजी ने कलम कागज मांग कर एक पर्चा बनाया।
५० बोरा गेहूं
५० बोरा चावल
५ कुंटल चीनी
१० बोरा आलू
५ टिन देशी घी
५- टिन सरसों का तेल
४० किलो मसाला
४० किलो सूखा मेवा
५० कुंटल सूखी लकड़ी
इतना लिखकर बाहर खड़े अपने नौकर से कहा कि इसे लेकर धर्मशाला में चले जाओ और मेरे बेटे से कह दो कि इतना सामान इस कुटिया में पहुंचवा दे।उस दिन समय नहीं था तो दूसरे दिन सब सामान लेकर माताजी अपने बेटे के साथ अपनी कार से कुटिया में पहुंच गई। संत जी आश्चर्य में पड़ गये।पूछा कि माताजी आप हैं कौन? बेटे ने परिचय दिया हम जयपुर के बड़े उद्योगपति हैं।

माताजी की इच्छा थी कि किसी सच्चे साधु को खोजकर दान दे सकें।संत जी ने कहा पर माताजी मेरे पास इतना सामान रखने का स्थान नहीं है।माताजीने कहा इसकी चिंता मत करें।जब तक आपका आश्रम बन नहीं जाता यह सामान किराए के गोदाम में रखवा दे रही हूं।बस आप ऐसे ही निस्पृह बने रहें।बाद में बगल की एक एकड़ जमीन खरीदकर बड़ा सा आश्रम बनवा दिया। आज वह एक बड़ा सा आश्रम में है संत जी नहीं रहे। दूसरी तीसरी पीढ़ी चल रही है।
पता मत पूछिए क्योंकि उन माताजी ने कहने से मना किया है।

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