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Sawan Month: आधुनिकता की बाढ़ में कहीं खो गया सावन, कभी होता था ऐसा

Sawan Month: सावन...उत्साह और उमंग भर देने वाला महीना है। आधुनिकता में सावन कहीं खो गया है। कभी सावन का अलग ही महत्व रहा है।

Snigdha Singh
Published on: 7 July 2023 5:02 PM IST (Updated on: 7 July 2023 5:03 PM IST)
Sawan Month: आधुनिकता की बाढ़ में कहीं खो गया सावन, कभी होता था ऐसा
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Sawan Month (Image: Social Media)

Sawan Month: भारत की संस्कृति व परंपराएं ही विश्व में अलग पहचान रखती हैं। यहां के सभी त्योहार कोई न कोई संदेश देते हैं। 21वीं सदी में भले ही तरक्की व नई ऊंचाइयों को छूने की बात हो रही है, लेकिन आधुनिकता की इस चकाचौंध में प्राचीन परंपराओं और संस्कृति को लोग भूलते जा रहे है। अब सवान के गीत व सार्वजनिक झूलों को लोग भूल चुके हैं। सिर्फ गांवों में बुजुर्ग महिलाएं बच्चों के जरिए ही झूलों की परंपरा को बचाए हुए हैं।

एक समय था जब सावन माह के शुरू होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ झूलों का आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए। आंगन का अस्तित्व भी लगभग समाप्त होने की कगार पर है। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। उत्साह और उमंग भर देने वाला सावन का मौसम बदलते हुए समय के साथ अपनी पहचान खो चुका है। सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर सिकंदरा तहसील क्षेत्र के रसधान कस्बे में ही सार्वजनिक झूले की परंपरा का अभी निर्वहन हो रहा है।

झूलों की मस्ती के साथ लुप्त हो रहे सावन के गीत

बुंदेलखंड की सीमा से जुडे़ यमुना तटवर्ती गांवों में सावन के गीत अब नहीं सुनाई देते हैं। गांव की बुजुर्ग महिलाओं की माने तो बदलते सामाजिक परिवेश में परंपराएं दम तोड़ रही है। पहले सावन आते ही बहन-बेटियों को ससुराल से बुला लिया जाता था,वह अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलती मस्ती में उमंग से नाचती गाती थीं। प्रकृति के खुशनुमा वातावरण में एक अजीब सी मस्ती होती थी। मौसम का लुफ्त लेने के लिए हरे व लाल रंग के परिधान में सोलह श्रृंगार कर मस्ती व उमंग से झूलों का आनंद लेती ,और सावन के गीत गाती मस्ती में झूम उठती थी। अब बदले माहौल में यह सब खत्म हो चुका है। वैसे भी गांवों में अब बगीचे नाम मात्र ही रह गए हैं, जबकि कीटनाशकों के प्रभाव से पंक्षियों का विचरण भी कम हो गया है।

गांवों में छोटे बच्चों के झूले ही परंपरा को किए हैं जीवित

शहरों में सावन माह में पड़ने वाले सार्वजनिक झुले तो बिलुप्त हो चुके हैं। इनका स्थान अब नुमाइशों, मेलों में लगने वाले आसमानी झूले व चार्खियों ले लिया है, जबकि शहरों के साथ कुछ कस्बों के पार्कों में भी बच्चे झूलों व चर्खियों का आंनद लेते दिख सकते हैं, लेकिन घरों की छतों व दज्जों तथा पेड़ों में रस्सी से तैयार झूले अस्तित्व खो चुके हैं। अब सिर्फ गांवों व कस्बों में एक दो स्थानों पर ही पेड़ों व छत व छज्जों के कड़ों में पड़े झूलों पर पेंग बढ़ाते बच्चे ही इस परंपरा को जीवंत किए हैं।



Snigdha Singh

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