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पं. बिरजू महाराजः वह कलाकार जो कथक करते करते स्वयं कथक हो गए
बिरजू महाराज का जन्म 4 फ़रवरी, 1938 को 'कालका बिन्दादीन घराने' में हुआ था। पहले उनका नाम 'दुखहरण' रखा गया था, जो बाद में बदल कर 'बृजमोहन नाथ मिश्रा' हुआ। इसी बृजमोहन का अपभ्रंश बाद में बिरजू हो गया।
रामकृष्ण वाजपेयी
लखनऊ: कथक सम्राट पं. बिरजू महाराज का आज जन्मदिन है। बिरजू महाराज कथक को आगे बढ़ाते बढ़ाते स्वयं कथक का पर्याय बन गए हैं। उनके नाम के बिना कथक की कल्पना नहीं की जा सकती है। मेरी महाराज जी से मुलाकात आज से लगभग 30 साल पहले हुई थी उन दिनों मैं दैनिक जागरण में सांस्कृतिक रिपोर्टर का कार्यभार भी देख रहा था। पं. बिरजू महाराज का जितना बड़ा नाम आज तीन दशक बाद है उस समय भी मुझे लगता है कि उनका इतना ही नाम था।
खुद में जीता जागता इतिहास हैं बिरजू महाराज
बिरजू महाराज एक धरोहर हैं और खुद में जीता जागता इतिहास हैं। मुझे ध्यान है उस समय लखनऊ महोत्सव चल रहा था और विवि श्रीखंडे संगीत नाटक अकादमी देख रहे थे। उस समय संगीत नाटक अकादमी केसरबाग में हुआ करती थी। अमृतलाल नागर जी के पुत्र शरद नागर भी संगीत नाटक अकादमी में हुआ करते थे। दीपा कौल सांस्कृतिक मंत्री थीं।
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File Photo
जब बेगम हजरत महल पार्क में लखनऊ महोत्सव शुरू हुआ
उस समय राजधानी के समाचार पत्रों में सांस्कृति कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग एक दिन बाद हुआ करती थी और लोगों के किसी कार्यक्रम की जानकारी तीसरे दिन मिला करती थी। दैनिक जागरण के संपादक उस समय विनोद शुक्ल थे। उन्होंने मुझसे कहा कि रामकृष्ण मै चाहता हूं शाम का कार्यक्रम अगले दिन सुबह लोगों को पता चल जाए। मैने कहा ठीक है। तभी बेगम हजरत महल पार्क में लखनऊ महोत्सव शुरू हुआ। और मंच पर तमाम दिग्गज हस्तियां कार्यक्रम प्रस्तुत करने आ रही थीं।
जब महोत्सव अपने परवान पर था तभी एक दिन बिरजू महाराज का कार्यक्रम हुआ और अगले दिन पं. किशन महाराज का लखनऊ की जनता दो दिग्गजों को देखकर भाव विभोर थी। जनता की इच्छा थी दोनो दिग्गजों की जुगलबंदी हो जाए। वक्त काफी हो चुका था। किशन महाराज का भी अंदर से मन था लेकिन कुछ संकोच था और यह संकोच बिरजू महाराज के आग्रह ने दूर कर दिया। किशन महाराज मान गए। और अगले दिन मंच पर दो दिग्गज हस्तियों की जुगल बंदी को लखनऊ देखा जो अविस्मरणीय रही।
सादगी को पसंद करते हैं बिरजू महाराज
पं. बिरजू महाराज बहुत ही भावुक ह्रदय, घमंड और आडम्बर से दूर सादगी को पसंद करते हैं। वे 'कथक' शैली के आचार्य और लखनऊ के 'कालका-बिंदादीन' घराने के एक मुख्य प्रतिनिधि हैं। बिरजू महाराज का सारा जीवन इस कला को शास्त्रीयता की ऊँचाइयों तक ले जाने में ही व्यतीत हुआ है। उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्म विभूषण' (1986) और 'कालीदास सम्मान' समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'खैरागढ़ विश्वविद्यालय' से 'डॉक्टरेट' की मानद उपाधि भी मिल चुकी है।
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बेहद विस्तृत साक्षात्कार दिया
खैर मैंने डरते डरते पं. बिरजू महाराज से साक्षात्कार के लिए समय मांगा और उन्होंने सहर्ष बुला लिया। जब मै उनसे मिलने गया और उनके कक्ष में घुसा तो निहायत ही साधारण ढंग से जमीन पर बिछे कालीन पर नंगे बदन धोती पहने महाराज जी को लेटे हुए देखा और उन्होंने स्नेह से अपने करीब बुलाकर बैठाया उस समय उनके तमाम शिष्य शिष्याएं वहां पर थीं। इसके बाद उन्होंने एक बेहद विस्तृत साक्षात्कार दिया। यह मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना है।
'कालका बिन्दादीन घराने' में हुआ था बिरजू महाराज का जन्म
बिरजू महाराज का जन्म 4 फ़रवरी, 1938 को 'कालका बिन्दादीन घराने' में हुआ था। पहले उनका नाम 'दुखहरण' रखा गया था, जो बाद में बदल कर 'बृजमोहन नाथ मिश्रा' हुआ। इसी बृजमोहन का अपभ्रंश बाद में बिरजू हो गया। मूल नाम तो पीछे छूट गया लेकिन बिरजू नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कथक की पहचान बन गया। इनके पिता का नाम जगन्नाथ महाराज था, जो 'लखनऊ खराने' से थे और अच्छन महाराज के नाम से जाने जाते थे।
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अच्छन महाराज की गोद में महज तीन साल की उम्र में ही बिरजू की प्रतिभा दिखने लगी। इसी को देखते हुए पिता ने बचपन से ही अपने यशस्वी पुत्र को कला दीक्षा देनी शुरू कर दी। किंतु जब यह मात्र नौ साल के थे इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। इस के बाद उनके चाचाओं, सुप्रसिद्ध गुरु शंभू महाराज और लच्छू महाराज ने उन्हें प्रशिक्षित किया।
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आज के दौर में बहुत कम लोगों को पता होगा कि सत्यजीत राय की फिल्म ’शतरंज के खिलाड़ी’ के लिए बिरजू महाराज ने उच्च कोटि की दो नृत्य नाटिकाएं रची थीं। इसके अलावा वर्ष २००२ में बनी हिन्दी फ़िल्म देवदास में एक गाने काहे छेड़ छेड़ मोहे का नृत्य संयोजन भी किया। अन्य कई हिन्दी फ़िल्मों जैसे डेढ़ इश्किया, उमराव जान तथा संजय लीला भन्साली निर्देशित बाजी राव मस्तानी में भी कत्थक नृत्य के संयोजन किये।
बिरजू महाराज तबला, पखावज, ढोलक, नाल और तार वाले वाद्य वायलिन, स्वर मंडल व सितार इत्यादि के सुरों का भी गहरा ज्ञान रखते हैं। इन्होंने हजारों संगीत प्रस्तुतियां देश व देश के बाहर दीं। बिरजू महाराज के दो प्रतिभाशाली पुत्र जयकिशन और दीपक महाराज भी इन्हीं के पदचिह्नों पर चल कर कथक को आगे बढ़ा रहे हैं।