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100वीं जयन्ती: फणीश्वरनाथ रेणु

फणीश्वरनाथ रेणु जी को साहित्य से हटकर भी आम भारतीय जानता है। विशेषकर हम जेपी के लोग रेणु को तानाशाही से लड़े धनुर्धर के रूप में देख चुके हैं। जो पीढ़ी गुजर गई, उसने जाना था बापू के “भारत छोड़ो” संग्राम में रेणु के योगदान को।

SK Gautam
Published on: 4 March 2021 7:51 PM IST
100वीं जयन्ती: फणीश्वरनाथ रेणु
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100वीं जयन्ती: फणीश्वरनाथ रेणु

K-Viram-rao

के. विक्रम राव

आज फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशती है। कोरोना का बहाना मिल गया। अत: मनाने में विलंब होता रहा। फिर भी हिंदी भूभाग में, खासकर दोआबा में, कोई तेज साहित्यिक स्पंदन अथवा हलचल न दिखी, न सुनाई दी। मानों वे मुगलसराय (अब डीडीयू जंक्शन) के पूरब तक ही बांध दिए गए हों। वहां भी बस अररिया से पूर्णिया तक के साठ किलोमीटर के दायरे में ही। हालांकि हिंदी-धरा तो काफी व्यापक है। सवाल यही कि नदीतट तक ही हिंदी सीमित क्यों ?

"भारत छोड़ो" संग्राम में रेणु के योगदान

फणीश्वरनाथ रेणुजी को साहित्य से हटकर भी आम भारतीय जानता है। विशेषकर हम जेपी के लोग रेणु को तानाशाही से लड़े धनुर्धर के रूप में देख चुके हैं। जो पीढ़ी गुजर गई, उसने जाना था बापू के “भारत छोड़ो” संग्राम में रेणु के योगदान को। आज पड़ोसी नेपाल की चर्चा चलती है तो याद करें कि रेणु का दूसरा डेरा रही थीं ये हिमालयी श्रृंखलाएं| जालिम राणा, जो वंशानुगत प्रधानमंत्री था, से प्रजा लड़ी थी। उस जंग में रेणु कमांडर रहे थे। सोशलिस्ट—कोइराला बन्धु से रेणु का नाता था। बिहार में हमारे इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर (डॉ.) ध्रुव कुमार ने कुछ सूचनायें उपलब्ध करायीं हैं।

फणीश्वरनाथ रेणु एक शब्द शिल्पी हैं

भारत यायावर जी के अनुसार: “फणीश्वरनाथ रेणु एक शब्द शिल्पी हैं। शब्दों से एक अनुपम कथाकृति के निर्माण करने की प्रक्रिया में वे शब्दों के भीतर प्रवाहित अंतर्ध्वनियों को ध्यान से सुनते हुए नए शब्दों का निर्माण भी करते हैं। वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही वे संवदिया शब्द का निर्माण करते हैं। ‘संवदिया’ रेणु की एक कहानी भर नहीं है, स्वयं उनका कथा-साहित्य संवदिया है। इस संवदिया के आगे-पीछे बहुत कुछ है, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में। मैं लम्बे समय से जूझ रहा हूं कि वह क्या है ?”

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मगर यह दर्द तो हमें होता ही है कि रेणु को आंचलिक उपन्यासकार बताकर उनके साथ अन्याय किया गया। तो क्या तुलसी अवध के, विद्यापति मधुबनी (मिथिला) और भिखारी ठाकुर गंगापार के ही कहलायेंगे?

रेणु जी से मेरी भेंट

रेणु जी से मेरी भेंट लखनऊ के मेरे साथी पत्रकार मोहम्मद शमीम ने चेम्बूर (मुंबई) के राजकपूर स्टूडियो में कराई थी। शमीम अमीनाबाद के और मैं पड़ोसी नजरबाग मोहल्ले से था। वह “फिल्मफेयर” पत्रिका में रिपोर्टर थे। मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया का प्रशिक्षु पत्रकार था। फिल्मफेयर में हिंदी जानने वाले रिपोर्टर की दरकार थी। अतः मैं वहां भेजा गया। शमीम वरिष्ठ थे, बाद में वे नई दिल्ली “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के चीफ रिपोर्टर बने। एक दोपहर, साल 1965 था शायद। चेम्बूर स्टूडियो में तब रेणु जी भी शूटिंग देखने आये थे। हम दोनों भी वहां उपस्थित थे। उनकी कहानी “मारे गए गुलफाम” पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म बन रही थी। निखालिस देहाती राजकपूर बैलगाड़ी चालक और वहीदा रहमान खास पात्र थे।

शमीम ने मेरा गीतकार शैलेन्द्र से परिचय कराया। फिर रेणु जी से। उनसे वार्ता के दौरान, लखनऊ का नाम सुनकर रेणु जी समझ गए कि मुझ तेलुगु-भाषी का हिंदी का ज्ञान ठीक-ठाक होगा। क्योंकि मुंबई में मराठी-भाषी लोग उच्चारण और वर्तनी को खासतौर पर विकृत कर देते हैं।

रेणु जी से ज्यादा आत्मीयता उभरी जब मैंने अपना निजी बही-खाता खोला कि बोरिंग कैनाल रोड पर विधायक पुण्यदेव शर्मा के घर (1950) हमलोग किराये पर रहे थे। गरदनी बाग़ के पटना हाई स्कूल से मिलर स्कूल के बंगालियों से फ़ुटबाल में भिडंत होती थी, तो आंध्र को भूलकर ठेठ बिहारी बनकर मैं हमारे स्कूल की जीत पर तालियां बजाता था। उनके पूछने पर कि पटना कैसे पहुंचे, मैंने बताया कि ‘सर्चलाइट’ के संपादक मेरे पिता स्व. श्री के. रामा राव थे। वे उनसे परिचित थे, जब नेपाल जनक्रांति में ‘सर्चलाइट’ जे.पी.-कोइराला का पूर्ण समर्थन कर रहा था।

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रेणु जी ने भी पद्मश्री वापस की थी

रेणु जी ने भी पद्मश्री वापस की थी। विरोध का प्रदर्शन था। फिर आया आपातकाल के तानाशाही का दौर। भारत दूसरी जंगे—आजादी के काल से गुजर रहा था। वे पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती थे। उन्हें देखने आये लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ का नजारा यहाँ विधायक डॉ. रामबचन राय की जबानी: “उनका कथा-नायक ‘मैला आंचल’ का प्रशांत भी इसी मेडिकल कॉलेज का विद्यार्थी था। यह घोर मोह-बांध ही उन्हें जकड़े हुए था। इसलिए जब जे.पी. उनसे मिलने अस्पताल आए और बातचीत में ऑपरेशन के लिए जसलोक (मुंबई) जाने का सुझाव दिया तब वह मुस्कराकर टाल गए। जे. पी. के साथ उनकी वार्ता का वह ऐतिहासिक क्षण था। राजेन्द्र सर्जिकल ब्लाक में के. एल. वार्ड का 21 नम्बर बेड : लोकनायक और लोक-लेखक का मिलन-स्थल। जे.पी. को देखते ही रेणु भर आए और अपने बीमार सेनानी को देखकर सेनापति भी भरा हुआ था।”

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तो अंत में उसी बात पर लौटें। कब ये हिंदी वाले भूगोल नहीं, भाषा के आधार पर ही अपने साहित्यकारों के प्रति सम्मान और मर्यादा दर्शायेंगे ? लखनऊ तो सम्पन्न प्रदेश की राजधानी है। यहां हिंदी संस्थान भी अमीर है। सूरज और साहित्यकार सीमा से बाँधकर नहीं रखे जा सकते। अर्थात रेणु देश के है न कि किसी प्रदेश के।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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