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शरद पवार ने भाजपा और अजीत के मंसूबों को किया ध्वस्त
मदन मोहन शुक्ला
मुम्बई से लेकर दिल्ली तक जो राजनीतिक हलचल मची रही अब उसका पटाक्षेप हो चुका है। लेकिन जो कीमत भाजपा को चुकानी पड़ी उसकी भरपाई करना इतना आसान नहीं होगा। शरद पवार की भाजपा को सत्ता से दूर रखने की भीष्म प्रतिज्ञा के बीच देवेंद्र फडणवीस बलि का बकरा बन गए। उनकी स्वछ राजनीतिक छवि और राजनीतिक अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लग गया।
महाराष्ट्र का खेल शरद पवार की सोची समझी रणनीति के तहत खेला गया। पवार चाहते थे कि सबसे पहले किसी तरह राष्ट्रपति शासन हटे। इसमें शरद पवार अपने भतीजे अजीत के जरिए खेली गई चाल से सफल हुए। दूसरा सबसे बड़ा रोड़ा उनका यही भतीजा था। अजीत के साथ पवार के मतभेद राजनीतिक क्षितिज पर सुप्रिया सुले के उदय के बाद से जगजाहिर है। पवार को पता रहा होगा कि कैसे अजीत अपने वफादार लोगों को मैदान में उतारने की कोशिश कर रहे थे। अजीत को पवार ने एक मिशन सौंपा जिसके जाल में वो फंस गए। इस तरह पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक मार्ग से एक बड़े रोड़े को हटाने में सफल रहे। इस समय भाजपा की स्थिति घायल शेरनी वाली हो गयी है। वो कब पलटवार करेगी यह तो समय बताएगा।
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दरअसल, शुरुआत में ही एक क्षेत्रीय पार्टी के प्रमुख के रूप में पवार के पास भाजपा के साथ समझौते का विकल्प था लेकिन पवार जमीन पर हो रही बैचनी महसूस कर रहे थे। महाराष्ट्र में विशेष रूप से मराठों के बीच अजीत पवार सहित कई उम्मीदवारों के विशाल जीत का अंतर स्पष्ट रूप से भाजपा विरोधी था। पवार को जिस तरह से प्रवर्तन निदेशालय ने नियंत्रित करने की कोशिश की थी। यह बात उनके दिमाग में रही होगी।
उनके आंकलन के अनुसार एक राजनीतिक उत्तर की आवश्यकता थी। जो उन्होंने भाजपा को दिया और खुद किंग मेकर के रूप में उभरे। महाराष्ट्र के घटनाक्रम में कांग्रेस की भूमिका सिर्फ दर्शक की रही है। उसे सिर्फ ये मौका मिला है कि किसी तरह सरकार में शामिल हो जाए। इस प्रकरण में विजेता सिर्फ शरद पवार रहे जिनकी रणनीति को न तो भाजपा के दिग्गज समझ पाए और न शिव सेना के धुरंधर।
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सवाल उठता है भाजपा को कौन सा डर सता रहा था कि रात ही में राजनीतिक सुनामी की पृष्ठभूमि तैयार कर दी गयी। जब दिल्ली और मुम्बई नींद के आगोश में थे तो उस समय सियासत के गलियारे में शह और मात की चाल चली जा रही थी। ये रहस्य खुलना बाकी है। लेकिन जो ड्रामा 22 नवम्बर से शुरू हुआ उसका क्लाइमेक्स भाजपा के लिए बहुत ही निराशाजनकजनक रहा। शह-मात की जो चालें चली गईं वो भाजपा के लिए उल्टी पड़ीं। अब देखना है कि क्या महाराष्ट्र में भी कर्नाटक वाली स्थिति पैदा होगी और येदुरप्पा की तरह फडणवीस कुछ समय बाद मुख्यमंत्री की गद्दी पर काबिज होंगे? महाराष्ट्र का चैप्टर अभी खत्म नहीं हुआ है, शायद इसके पन्ने अभी लिखे जाने बाकी हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)