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Justice: देरी से किया गया न्याय किसी अन्याय से कम नहीं होता
Justice: जिसने अपने दिमाग को समझ लिया उसने पक्का खुद को पहचान लिया। और ऐसे अपराधों में अपराधी अपने साथ-साथ दूसरे के दिमाग को भी कैच कर रहा होता है, पूरी तरह से ट्रैक कर रहा होता है।
Justice: विगत 17 मई को डिब्रूगढ़ सत्र न्यायालय द्वारा डॉ सरिता तोषनीवाल हत्याकांड में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया । सन 2014 में पूरे देश को हिला कर रख देने वाले असम चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल (एएमसीएच) की कनिष्ठ चिकित्सक डॉ सरिता की सनसनीखेज हत्या मामले में एक अन्य चिकित्सक डॉ दीपमोनी को दोषमुक्त करार दिया गया। जबकि वार्ड बॉय किरो मेस को दोषी पाया गया। इस हत्याकांड में डॉ सरिता को मारने के आरोप में 10 मई, 2014 को डिब्रूगढ़ पुलिस ने उन दोनों को गिरफ्तार किया था, जो कि बाद में जमानत पर रिहा हो गए। किरो मेस को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया है। इस फैसले को आने में पूरे 9 साल का समय लग गया। उसके बाद भी अधिकांशतः लोग या डॉ सरिता के परिवारजन अवश्य ही इससे संतुष्ट नहीं हुए होंगे।
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क्यों भारतीय न्यायिक प्रणाली इतनी ढुलमुल और सुस्त है कि न्यायालय का फैसला आने में इतने वर्षों का समय लग जाता है कि उसमें न्याय होना, न होने के बराबर ही होता है । भारतीय न्याय व्यवस्था न्यायाधीशों की कमी, लचर बुनियादी ढांचे, निचले स्तर पर अत्यधिक भ्रष्टाचार, घूसखोरी, न्याय व्यवस्था की खामियों जैसे कई कारणों से जूझ रही है, जिससे न केवल न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है । बल्कि न्यायिक कर्मचारियों पर भी काम का बोझ बढ़ता जा रहा है।
न्यायालयों में तीन करोड़ से भी अधिक मुकदमे लंबित पड़े हैं
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश के विभिन्न न्यायालयों में तीन करोड़ से भी अधिक मुकदमे लंबित पड़े हैं। वर्ष 2011 की जनगणना बताती है कि देश में प्रति 10,00000 लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश बस हैं । जबकि यह संख्या लगभग 50 होनी चाहिए। 'न्यायालय में भ्रष्टाचार' यह सुनने में गलत जरूर होना चाहिए जबकि ऐसा नहीं है। सर्वाधिक भ्रष्ट अगर कार्यपालिका का कोई अंग है तो वह न्यायपालिका ही मानी जाती है। इसमें पारदर्शिता का अभाव है, लंबे अवकाश का प्रावधान है , तकनीकी अभाव है, वकीलों द्वारा की जाने वाली देरी सबसे अधिक चिंतनीय है। दरअसल हमारे देश की न्यायपालिका को स्वयं सुधार की आवश्यकता है, उसे स्वयं एक चिकित्सक की आवश्यकता है।
फिलहाल हम अपने मूल मुद्दे पर वापस आते हैं । यह मामला 9 वर्ष पूर्व का हो चुका है तो लोगों की स्मृतियों के किसी कोने में जा चुका होगा। आश्चर्य होता है कि चिकित्सीय जैसे सम्मानीय पेशे में इस तरह की घटना को अंजाम दिया गया। जिन्हें हम धरती पर जीवनदायिनी भगवान मानते हैं , जिनमें लोगों की बातों को सुनने- समझने के लिए अत्यधिक धैर्य की जरूरत होती है। और तो और मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य जैसे अत्यंत संवेदनशील विषय पर कोई भी मरीज डॉक्टर से इस उम्मीद के साथ अपनी हर बात करता है कि उसके पास उसकी समस्या का समाधान जरूर मिलेगा। ऐसे में भविष्य की एक युवा डाक्टर की उसके कार्य स्थल पर हत्या अवश्य ही असामान्य घटना थी, जिसकी भर्त्सना के लिए शब्दकोश के शब्द भी कम पड़ जाएं।
भावनाओं का खेल दिल से नहीं, दिमाग से जुड़ा होता है
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक मानसिक दुनिया होती है, जहां पर भी वह एक लड़ाई लड़ रहा होता है। कभी टकराव की, कभी आत्मग्लानि की, कभी जज्बातों की, कहीं दिमाग की तो कहीं अपमान या प्रतिरोध की। अपराधी ने भी जरूर कुछ इसी तरह की मानसिक दुनिया अपने लिए बना ली होगी जिसके दलदल में वह या वे अपराधी इतना फंसे होंगे कि उन्हें अपने प्रोफेशन के सम्मान का भी ध्यान नहीं रहा होगा और इस कृत्य को अंजाम दिया होगा। कोई भी व्यक्ति इतना साहसी भी नहीं होता है कि वह बुरी भावनाओं के, अपमान के जाल में फंसने के बाद उससे निकल सके। वह नकारात्मकता के आगे, बुराई के आगे घुटने टेक देता है बिना सोचे। गलती हर इंसान करता है लेकिन उसकी स्वीकृति, उसका पश्चाताप भी जरूरी है। डॉ जोसफ मर्फी की लिखी एक किताब है 'पावर आफ योर सबकॉन्शियस माइंड', जिसमें लिखा है कि भावनाओं का खेल दिल से नहीं, दिमाग से जुड़ा होता है। जिसने अपने दिमाग को समझ लिया उसने पक्का खुद को पहचान लिया। और ऐसे अपराधों में अपराधी अपने साथ-साथ दूसरे के दिमाग को भी कैच कर रहा होता है, पूरी तरह से ट्रैक कर रहा होता है।
यूं ही कामकाजी महिलाओं के हमारे देश में आंकड़े बहुत अच्छे नहीं है, उसमें भी अगर उनको अपने कार्यस्थल पर उत्पीड़न झेलना पड़े तो यह उनकी कार्यक्षमता और नौकरी दोनों पर असर डालती है। एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि 59 फ़ीसदी कामकाजी महिलाओं के लिए कार्य क्षेत्र पर महिला अधिकार सबसे बड़ी चिंता थी जबकि 54 प्रतिशत के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा बड़ी चिंता का कारण थे। जब तक महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर सुरक्षित और लचीला वातावरण नहीं मिलेगा वे किस तरह से अपनी नौकरी कर पाएंगी।
प्रोफेशन में महिलाओं का होना
महिलाओं के एक बड़े प्रतिशत के लिए उनकी नौकरी खिड़की से आती हुई उस धूप की तरह होती है जो उनके लिए विटामिन डी का काम करती है। उसमें भी अगर कार्यस्थल पर किसी भी प्रकार की असुरक्षा का भाव हो तो वह उनके लिए उस डंक के समान हो जाएगा जो कि उनके पूरे जीवन को अस्त-व्यस्त कर देगा। जब वे घर के बाहर अपने प्रोफेशन में नौकरी का रास्ता चुनती हैं तो वे न जाने कितने रास्तों को पीछे छोड़ती आती हैं। क्या उनकी बुद्धिमत्ता , बौद्धिकता यह देह दूसरों की आंखों में किरकिरी के समान चुभ, उनकी तरक्की में बाधा बन जाती है। नहीं! शायद यह बातें बकवास होनी चाहिए आज के समय में। पर फिर भी इस दुनिया में ऐसे अनुभवहीन, संवेदनहीन लोग हैं जो इन बातों को, इस डर को, इस बकवास को सच कर दिखाते हैं।
अगर चाहते हैं कि डॉ सरिता तोषनीवाल जैसी दर्दनाक घटना फिर किसी महिला के साथ न हो जो कि एक दिवास्वप्न है , पर फिर भी उसकी कोशिशें की जा सकती हैं, तो उन्हें स्वस्थ कार्यस्थल, स्वस्थ वातावरण देना होगा। इस तरह के अपराधी मानसिकता वाले लोगों पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता है, उनको परखना, पहचानना आना होगा। व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन एक दिन में नहीं आ सकता है पर कार्यस्थलों पर सतर्कता, साथ और सुरक्षा का समन्वय अत्यावश्यक है। देश की न्याय व्यवस्था को भी पारदर्शी और त्वरित होना होगा अन्यथा देरी से किया गया न्याय किसी अन्याय से कम नहीं होता।