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क्यों मुबई जाकर जरूर देखें उस योद्धा की प्रतिमा

तुकाराम की प्रतिमा गेटवे ऑफ इंडिया परिसर या किसी अन्य बड़े पार्क में लगती तो बेहतर होता। तब कोई भी उन्हें उनकी प्रतिमा के पास जाकर कोई भी श्रद्धांजलि देने की स्थिति में होता।

Roshni Khan
Published on: 7 Jan 2021 8:28 AM GMT
क्यों मुबई जाकर जरूर देखें उस योद्धा की प्रतिमा
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मुंबई एएसआई तुकाराम ओम्बले पर आर.के. सिन्हा का लेख (PC: social media)

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आर.के. सिन्हा

लखनऊ: आप मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया से मरीन ड्राइव होते हुए ब्रांद्रा और जुहू की तरफ बढ़ते हैं। तब शुरू में ही, आप सड़क के बायीं तरफ एक धड़ प्रतिमा को देखते हैं। हालांकि पता नहीं चलता कि यह किस शख्स की है। हां, इतना समझ आ जाता है कि उस प्रतिमा में जिस इंसान को दिखाया गया है वह कोई पुलिसकर्मी ही रहा होगा। प्रतिमा में दिखाया गया शख्स पुलिस की वर्दी में है। आप जरूर जानना चाहेंगें कि वह कौन है? आपको आपका स्थानीय मित्र या ड्राइवर बताता है कि वह प्रतिमा एएसआई तुकाराम ओम्बले की है।

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तब तक आप का वाहन बहुत आगे निकल चुका होता है

तब तक आप का वाहन बहुत आगे निकल चुका होता है। आपका मन अपराध बोध से घिर जाता है कि आप उस प्रतिमा के आगे कुछ देर रूककर श्रद्धांजलि नहीं दे सके। तुकाराम ओम्बले जैसे बहादुर और बेखौफ पुलिसकर्मी पर सारा देश गर्व करता है। उन्होंने 26/11 आतंकी हमले के मुख्य दरिंदे अजमल कसाब को अपनी जानपर खेलकर पकड़ा था।

तुकाराम की प्रतिमा गेटवे ऑफ इंडिया परिसर या किसी अन्य बड़े पार्क में लगती तो बेहतर होता

तुकाराम की प्रतिमा गेटवे ऑफ इंडिया परिसर या किसी अन्य बड़े पार्क में लगती तो बेहतर होता। तब कोई भी उन्हें उनकी प्रतिमा के पास जाकर कोई भी श्रद्धांजलि देने की स्थिति में होता। जिस सड़क पर लगातार तेज और भारी ट्रैफिक रहती है वहां पर रूकना वैसे भी आसान नहीं है। इसमें कतई कोई शक नहीं है कि भारत 2008 में समुद्र के रास्ते पाकिस्तान से आए 10 आतंकवादियों द्वारा मुंबई में खूनी खेल को कभी नहीं भी भूल सकता। इसके साथ ही कोई भी देशभक्त भारतीय उस हमले के लिए जिम्मेदार पाकिस्तान को भी कभी माफ नहीं करेगा। सबको पता है कि उस भयानक हमले में अनेकों निर्दोष मारे गए थे।

आतंकवादियों में सबसे खूंखार आतंकवादी अजमल कसाब था

पाकिस्तान से आए आतंकवादियों में सबसे खूंखार आतंकवादी अजमल कसाब था, जिसने यह जघन्य खूब खूनखराबा किया था जिससे पूरी मानवता शर्मसार और सन्न हो गई थी। कसाब उन आतंकी हमले में अकेला ऐसा पाकिस्तानी आतंकी था जिसे जिंदा पकड़ा था एएसआई तुकाराम ओंबले ने सिर्फ एक लाठी के सहारे।

पुलिस और आतंकियों के बीच भीषण गोलीबारी हो रही थी

दरअसल हुआ यह था कि पुलिस और आतंकियों के बीच भीषण गोलीबारी हो रही थी। जब पुलिस फायरिंग में एक आतंकी मारा गया तब कसाब नाटक करने लगा मानो वह मर गया हो। उस समय तुकाराम ओम्बले के पास सिर्फ एक लाठी थी और कसाब के पास एक गोलियों से भरी एके-47 थी। ओंबले ने लपककर कसाब की बंदूक की बैरल पकड़ ली । उसी समय कसाब ने ट्रिगर दबा दिया और तड़ातड़ गोलियां ओंबले के पेट और आंत में घुस गईं । ओंबले वहीं गिर गए लेकिन उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक बैरल को थामे रखा था ताकि कसाब और गोलियां न चला पाए।

जरा सोचिए कि अगर कसाब भी मारा जाता तो पूरी दुनिया को पाकिस्तान समझा देता कि उसका इन हमलों से कोई लेना-देना ही नहीं था। वह तो सारे साक्ष्यों के होने पर भी लंबे समय तक यही कह रहा था कि मुंबई हमलों में उसकी कोई भूमिका नहीं थी। तुकाराम ओम्बले की बहादुरी को देखते हुए भारत सरकार की ओर से उसे मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था। हालांकि उसे तो भारत रत्न भी मिलता तो भी उचित ही रहता ।

क्या उनकी आदमकद प्रतिमा क्यों नहीं लग सकती थी?

तुकाराम ओम्बले की धड़ प्रतिमा को देखकर एक बात और भी जेहन आती है कि क्या उनकी आदमकद प्रतिमा क्यों नहीं लग सकती थी? आखिर किस आधार पर यह तय होता है कि किसी की आदमकद प्रतिमा लगेगी और किसकी धड़ प्रतिमा ? तुकाराम ओम्बले तथा उनके साथियों ने जिस तरह के शौर्य का परिचय दिया था उसकी दूसरी मिसाल मिलना कठिन है। बहरहाल, अब मुंबई में कामकाज या सैर-सपाटा करने के लिए आने वालों को तुकाराम ओम्बले की प्रतिमा के पास जाकर उनके प्रति श्रद्धांजलि तो अर्पित करनी ही चाहिए।

नई पट्टिका लगाने की जरूरत महसूस की गई

जो लोग मुंबई में सिर्फ कुछ फिल्मी सितारों के घरों को बाहर घंटों खड़े होकर और एक झलक दूर से देखकर अपने को खुशनसीब महसूस करते हैं, उन्हें अपनी सोच बदलनी चाहिए। मात्र ये फ़िल्मी कलाकार ही समाज के नायक नहीं हैं। महाराष्ट्र सरकार और स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि वह तुकाराम ओम्बले की प्रतिमा के पास बाहर से आने वाले पर्यटकों को लेकर जाने की व्यवस्था करे। फिलहाल तो तुकाराम ओम्बले की प्रतिमा के पास कम ही लोग पहुंच पाते हैं। अभी तक तो मुंबई हमलों की बरसी पर आतंकवादियों के हमले का शिकार बने लोगों को मात्र उनके कुछ निकट के रिश्तेदार, नेता, सरकारी अधिकारी, खेल जगत के लोग और कुछ आम लोग ही श्रद्धांजलि दे देते हैं।

इस अवसर पर नेताओं के रस्मी भाषण भी हो जाते हैं। वे कह देते हैं कि,''26/11 हमले के दौरान मुंबई की रक्षा करने के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले पुलिसकर्मियों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। हमें उन पर गर्व है और हम राज्य की सुरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे।''

जिस जगह पर तुकाराम ओम्बले की प्रतिमा लगी है उसे गिरगांव चौपाटी के नाम से जाना जाता है । तुकाराम ओम्बले की प्रतिमा पर भी पुष्प अर्पित कर दिए जाते हैं और मोमबत्तियां जला दी जाती हैं। इसी जगह पर उन्होंने अजमल कसाब को पकडते हुए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान दे दिया था।

नई पट्टिका लगाने की जरूरत महसूस की गई

माफ करें, हमारे यहां पर प्रतिमाएं तो राजनेताओं से लेकर समाज सेवियों, कवियों, विद्वानों आदि की लगती ही रहती है। आगे भी लगती रहेंगी। पर क्या हम इनकी कायदे से कभी देखरेख भी करते हैं। बिलकुल नहीं। कुछ समय पहले पंजाब के शहर लुधियाना के मुख्य चौराहे पर 1971 की जंग के नायक शहीद फलाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेंखो की आदमकद मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को ही कुछ समाज विरोधी तत्वों द्वारा उखाड़ दिया गया था। काफी दिनों के बाद ही नई पट्टिका लगाने की जरूरत महसूस की गई।

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जबकि लुधियाना सेखों का अपना गृहनगर था और अदम्य साहस और शौर्य के लिए उन्हें मरणोप्रांत सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। लंबी जद्दोजहद के बाद लुधियाना प्रशासन ने पट्टिका फिर से लगाने के बारे में सोचा। यह सिलसिला यहीं नहीं थम जाता। मोदीनगर (उत्तर प्रदेश) में 1965 युद्ध के नायक शहीद मेजर आशा राम त्यागी की मूर्ति देखकर तो किसी भी सच्चे भारतीय का कलेजा फटने लगेगा। बेहद बुरी हालत में है आशा राम त्यागी की मूर्ति । बाकी की बात तो छोडिए, राजधानी दिल्ली में ग्यारह मूर्ति से बापू का चश्मा ही बरसों से गायब है। यह सब शर्मनाक है। अगर हम किसी महापुरुष की प्रतिमा लगाएँ तो उसकी उचित देखरेख भी करें। इतना तो किया ही जा सकता है इन राष्ट्रनायकों के लिये।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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