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Hanuman Prasad Poddar: भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार: आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास के महाप्रणेता

प्रेम भक्ति और ज्ञान‚ जो सनातन का तत्व है‚ के आधुनिक चैतन्य वह रससिक्त संत हैं। श्री हरि के विशेष कृपापात्र हैं। ऋषि शिरोमणि नारद जी के मित्र हैं। श्री राधामाधव के अनुरागी हैं।

Sanjay Tiwari
Published on: 1 July 2023 10:22 AM IST
Hanuman Prasad Poddar: भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार: आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास के महाप्रणेता
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Hanuman Prasad Poddar (social media)

Hanuman Prasad Poddar Biography in Hindi: प्रेम भक्ति और ज्ञान‚ जो सनातन का तत्व है‚ के आधुनिक चैतन्य वह रससिक्त संत हैं। श्री हरि के विशेष कृपापात्र हैं। ऋषि शिरोमणि नारद जी के मित्र हैं। श्री राधामाधव के अनुरागी हैं। आधुनिक चैतन्य हैं। भारत की स्वाधीनता संग्राम के योद्धा तो हैं ही , उससे भी बहुत बड़े वह सनातन संस्कृति के संवाहक बनकर ठीक उसी कालखंड में सनातन की स्थापना का युद्ध भी लड़ रहे होते हैं। भाई जी इसमें बहुत हद तक सनातन की रक्षा भी करते हैं। वह तुलसी पद गायक और मानस के प्रचारक हैं। धरती की आलौकिक विभूति हैं। उन्होंने इस धरा धाम पर जो लीलायें की हैं उनका गान शब्द सीमा में संभव नहीं है। भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार के भौतिक जीवन को देखना और उनकी आध्यात्मिक क्षमता का मूल्यांकन करना लगभग उसंभव है। उनकी रस निमग्न दृष्टि और उनके रसार्द्र हृदय को बांचना स्वयं में एक अनाधिकार प्रयत्न्न है। उनकी सृजन शैली और रचना धर्म के आधार को स्वयं उन्हीं के शब्दों में समझा जा सकता है –

''लिखता लिखवाता वही‚ करता करवाता वही।

पता नहीं क्या गलत है‚ पता नहीं क्या है सही।।''

सनातन संस्कृति की स्थापना की साधना

भाईजी के कार्यो का मूल्यांकन करने के लिए जितने ज्ञान और शक्ति की आवश्यकता है वह तो मुझमे बिलकुल भी नहीं है लेकिन साहस बटोर कर एक वाक्य में कह सकता हूँ कि जिन क्षणों में देश ब्रिटिश हुकूमत से स्वाधीन होने का युद्ध लड़ रहा था। ठीक उसी समय भाई जी भारत की महान सनातन संस्कृति को उसके मूल मेंस्थापित करने और इस पर काबिज लगभग एक हजार वर्षों की पराधीनता से भारतीयता को मुक्त कराने का युद्ध लड़ रहे थे। यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इसीलिए भाई जी को लेकर मेरे मन में किसी प्रकार का संशय नहीं है। गोस्वामी तुलसी दासजी महाराज ने श्रीरामचरित मानस में लिखा लेकिन उसको विश्व के कोने कोने तक पहुंचाया श्री भाई जी ने। मानस को प्रामाणिक रूप देने के लिए उनके जो प्रयास है वह अद्भुत है। चित्रकूट, अयोध्या, राजापुर, काशी आदि स्थानों पर खुद जाना ,लोगो के पास रखी पांडुलिपियों का संग्रह करना और फिर सभी को मिला कर शुद्ध संस्करण प्रकाशित करना कोई सामान्य बात नहीं थी। यही कार्य उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमदबाल्मीकीय रामायण सहित सनातन के सभी मूल ग्रंथो को लेकर किया। कल्याण का सम्पादन उनका मूल दायित्व था । लेकिन जिस प्रकार से गीता प्रेस के संचालन में उन्होंने अपनी ऊर्जा लगा कर छह सौ से अधिक की संख्या में सनातन ग्रंथो को सामान्य जन तक पहुंचाया, वह अत्यंत विलक्षण कार्य है। विलक्षण इसलिए भी क्योकि जिस दौर में श्री भाई जी कार्य कर रहे थे, ठीक उसी समय सनातन संस्कृति को विकृत करने वाले अनेकानेक पंथ और सम्प्रदाय भी सक्रिय थे। यह बहुत बड़ी चुनौती थी।

वह केवल एक प्रकाशन संस्थान या पत्रिका का संचालन ही नहीं कर रहे थे ।बल्कि इतना बड़ा युद्ध भी लड़ रहे थे जिसकी कल्पना तक हम नहीं कर सकते। यह आज कोई सोच भी नहीं सकता कि 1926-27 के समय में गोरखपुर जैसे अति पिछड़े नगर में रह कर विश्व संस्कृति की स्थापना का इतना बड़ा आंदोलन चलाया जा सकता है। न सड़क, न बिजली, न पानी, न आवागमन के पर्याप्तसाधन, न धन सम्पदा और नहीं अनुकूल परिवेश। पराधीन भारत के अत्यंत विषम परिवेश में जब वह किसी से सनातन की चर्चा करते होंगे तो क्या प्रतिक्रया होती होगी , इसकी कल्पना की जा सकती है। वही दौर था जब बंगाल में सर्वाधिक सक्रिय पंथ और संगठन भी कार्य कर रहे थे। वही समय था जब देश के सामने केवल स्वाधीन भर होजाने यानी अंग्रेजो के शासन से मुक्त होजाने का लक्ष्य था। वह केवल भाई जी थे जिनको श्री जयदयाल जी गोयन्दका जैसे संत पुरुष का सानिध्य मिला और वह सनातन संस्कृति के पुनर्निर्माण में जुट गए। यह सोच कर ही अचरज होता है कि यदि घर में कल्याण न पहुँचता और गीताप्रेस जैसे संस्थान की अति सक्रियता न होती तो आजादी मिल जाने के बाद भी क्या भारत के लोग अपनी मूल सनातन संस्कृति को उतना भी जान पाते जितना आज जान रहे हैं। क्योकि देश में आजादी के बाद जो भी लिखा , पढ़ा और पढ़ाया गया उसमे सनातन के तत्व तो शून्य ही रहे। वह तो गीता प्रेस ही है जिसके प्रकाशनों के माध्यम से सनातन के सिद्धांत और उसके सांस्कृतिक स्वरुप को लोग समझ पाए और अब इसमें और अधिक रूचि पैदा हो गयी है।

सनातन संस्कृति के भाव प्रणेता

कल्पना जीजिए , श्री भाई जी उस काल खंड में न होते तो ॽ श्रुति , स्मृति, उपनिषद् , पुराण और सनातन के इतिहास की पुअरस्थापना कितनी कठिन हो जाती। उनके अभाव में एक सामान्य हनुमान चालीसा तक अपने हाथ होना कठिन होता। सनातन की चेतना ,सनातन का प्रेम , भक्ति , समर्पण और अनुराग की भाव गंगा कैसे प्रवाहित हो पाती। श्री गतजी के प्रादुर्भाव की कथा ही सुनते । लेकिन श्री के साक्षात् दर्शन से कैसे जुड़ पाते। श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्रामचरित मानस तथा श्रीमद रमायन जी की कथा गंगा की त्रिवेणी कैसे स्थापना पाती। यह कैसे संभव होता कि गोरखपुर की धरती से शंकराचार्य पद के योग्य आचार्यों की लम्बी पंक्ति तैयार हो पाती। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक लगता है कि श्री भाई जी के समय में भी और उनके बाद उनके ज्ञान उत्तराधिकार का वहन करने वाले आचार्य चिम्मन लाल गोस्वामी जी को कई बार स्वामी भारती तीर्थ जी ने शंकराचार्य पद पर आसीन होने का प्रस्ताव रखा था जिसे गोस्वामी जी ने यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वह किसी भी दशा में श्री भाई जी के शरण में परम पद का आनंद प्राप्त कर रहे हैं । यहां से वह कहीं नहीं जाने वाले। यह वही चिमन लाल जी हैं जो भाई जी के समय ही कल्याण के कार्यकारी संपादक रहे और अंग्रेजी कल्याण कल्पतरु के सम्पादक रहे। भाईजी के गोलोकवास के पश्चात् उन्होंने ही श्री भाई जी का सारा दायित्व संभाला। यहां एक और विभूति का स्मरण करना बेहद जरुरी लगता है‚ श्री शांतनु द्विवेदी जी का। यही शांतनु जी कालान्तर में स्वामी अखंडानंद जी रूप में जगत में विख्यात हुए और श्रीमद्भागवत प्रवचन परंपरा के संवाहक बने। स्वामी अखंडानंद जी काशी के रहने वाले थे। श्री भाईजी के साथ अनेक पुराणों,उपनिषदों, और अन्य ग्रंथों के अनुवाद में उनका बड़ा योगदान है।

उनका समय और उनके मित्र

अपने सखा‚ आराध्य और आदर्श भगवान श्री कृष्ण को यह संबोधन समर्पण करते हुए भाई जी स्वयं की यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। आज भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दारा को लेकर जो कुछ भी लिखित समग्री कहीं उपलब्ध है, वह उनके वयक्तित्व का अत्यंत सूक्ष्म स्वरूप है। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसका जन्म एक व्यवसायी परिवार में हो रहा है और जिसका व्यावसायिक जीवन मुम्बई जैसे महानागर की चकाचौंध में बीत रहा है‚ वह अचानक गोरखपुर जैसे अति पिछड़े कस्बे में आकर प्रभु की आराधना में पूरा जीवन समर्पित कर देता है‚ यह स्वयं में विलक्षण है। भाई जी जिस दौर में गारेखपुर आये थे‚ उस समय यह महानगर नहीं था। उनके कार्यस्थल और निवासस्थल के बीच लगभग तीन मील की दूरी थी। आने जाने के लिए कीचड़ और मिट्टी में सनी एक पगडंडी हुआ करती थी। कल्पना कीजिये कि एक मारवाड़ी युवक जिसका जीवन उस समय के अत्यंत महत्वपूर्ण प्रख्यात मित्रों के साथ बीत रहा था‚ जिसके घर मोहन दास करमचंद गांधी प्रायः आकर उनकी दादी के हाथ का प्रसाद ग्रहण किया करते थे‚ प्रख्यात उद्योगपति धनश्याम दास बिड़ला‚ बालगंगाधर तिलक‚जमुनालाल बजाज‚ काका कालेलकर‚ ज्वाला प्रसाद जी कानोडिया‚ श्री अरविन्द‚ श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी‚ श्री विपिनचंद्र पाल‚ श्री चितरंजन दास‚ श्री वीरन्द्र नाथ ठाकुर‚ श्री श्याम सुंदर चक्रवर्ती‚ श्री ब्रह्म माधव उपाध्याय‚ श्री सतयाचरण शास्त्री‚ श्री सखाराम गणेश देउस्कर‚ श्री शारदाचरण मित्र और श्री कृष्ण कुमार मिश्र जैसे लोगों के बीच बीत रहा था, वह प्रभु पथ के लिए गोरखपुर में किस तरह रहा होगा। महात्मा गांधी‚पुरुषोत्तमदास टंडन‚ महामना पं० मदन मोहन मालवीय‚डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और लोकमान्य तिलक‚ डा० राम मनोहर लोहिया जैसे लोग उनके अति निकट के मित्र थे। उनके साहित्यिक संपादकीय जीवन में पं० गोबिन्द नारायण मिश्र‚ पं० दुर्गा प्रसाद मिश्र‚ श्री बालमुकंद जी गुप्त‚ पं० जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी‚ पं० अम्बिका प्रसाद बाजपेयी‚ श्री पांचकड़ी बनर्जी‚ पं० झाबरमल शर्मा‚ पं० लक्ष्मी नारायण गर्दे‚ श्री रजाकुमार गोयनका और श्री बाबू विष्णुराव पडारकर जैसी विभूतियों का अद्भुत समन्वय था।

(भाईजी के इन सभी मित्रों के बारे में श्री गम्भीर चंद जी दुजारीजी ने अपने संग्रह में उल्लेख किया है तथा इन लोगों से भाई जी के सम्बंधों की विस्तार से चर्चा की है। बाद में ''श्री भाईजी – एक अलौकिक विभूति'' नामक पुस्तक में पृष्ठ 26 पर श्री श्याम सुंदर दुजारीजी ने श्रीभाईजी के इन मित्रों के बारे में चर्चा की है। राजनीतिकी क्षेत्र से इतर साहत्यिक क्षेत्र के पं० गोबिन्द नारायणजी मिश्र‚ पं० दुर्गा प्रसादजी मिश्र‚ श्री बालमुकंदजी गुप्त‚ पं० जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी‚ पं० अम्बिका प्रसाद बाजपेयी‚ श्री पांचकड़ी बनर्जी‚ पं० झाबरमल शर्मा‚ पं० लक्ष्मी नारायण गर्दे‚ श्री रजाकुमार गोयनका और श्री बाबू विष्णुराव पडारकर को श्रीभाईजी के साहत्यिक और संपादकीय क्षेत्र के विशिष्ट सहयोगियों के रूप में उद्धृत किया गया है। )

यह लिखना यहां इसलिये आवश्यक है क्योंकि जिस दौर में भाई जी कार्य कर रहे थे उस दौर की कोई ऐसी विभूती नहीं थी जिससे भाई जी के निकट के एवं पारिवारिक रिश्ते न हों। बावजूद इसके सबकुछ किनारे कर गोरखपुर आना और कल्याण के संपादक के रूप में जीवन पर्यन्त लगे रहना कोई सामान्य घटना नहीं है। ऐसे में श्री भाई जी के जीवन पर प्राकश डालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। उनकी जन्म से लेकर ब्रह्मलीन होने तक की यात्रा को अति संक्षेप में देखना उचित होगा।

भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 अथात सन् 1892 ई में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। उनके जन्म की कहानी भी बहुत लम्बी है किन्तु यहाँ इतना ही लिखना उचित होगा कि राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण, वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी। उनकी दादी के ठाठ का भोजन गांधीजी को बहुत प्रिय था। गांधी जी जब भी भाई जी से मिलाने आते थे तो दादी के हाथ का भोजन अवश्य की करते थे। गाँधी जी से उनकी घनिष्ठता की कहानी कलकत्ते से शुरू हुई थी जो बम्बई और गोरखपुर तक चलती रही।

स्वतंत्रता संग्राम और भाई जी के कार्य

जिस दौर में भाई जी का प्रादुर्भाव हुआ वह स्वाधीनता संग्राम के चरमोत्कर्ष का समय था । इनके पिता अपने कारोबार की वजह से कलकत्ता में थे । और हनुमान अपने दादाजी के साथ असम में। कलकत्ता में वह स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए । वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

आंदोलन में गिरफ्तारी और अलीपुर जेल

कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलापाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

बम्बई में व्यवसाय और समाज का संघर्ष

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला । मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयन्का जी का व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद 29 अप्रैल 1923 ई० को गीता प्रेस की स्थापना हुई।

कल्याण का अवतरण

संवत 1893 विक्रमी यानी सं 1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का वार्षिक अधिवेशन दिल्ली में हुआ। इसके सभापति थे सेठ जमनालाल बजाज और स्वागताध्यक्ष थे श्री आत्माराम खेमका। आरम्भ में खेमकाजी ने कुछ कारणों से स्वागताध्यक्ष होना अस्वीकार कर दिया था , बाद में सेठ जयदयाल गोयन्दका के आग्रह से वे तैयार हो गए। अधिवेशन जल्दी प्रारम्भ होनेवाला । था प्रश्न उठा स्वागत भाषण लिखने का। खेमका जी शास्त्रज्ञ तथा विद्वान थे , पर उन्हें हिन्दी लिखने का अभ्यास नहीं था। उन्होंने श्री गोयन्दका जी से भाषण तैयार करवा देने की प्रार्थना की। श्री गोयन्दका जी ने पोद्दार जी को दिल्ली जाकर भाषण तैयार करने का आदेश दिया। पोद्दार जी दिल्ली गए और24 घंटे में ही एक अत्यंत सार गर्भित भाषण लिखकर मुद्रित करा दिया। लोग उसमें व्यक्त विचारों से बहुत प्रभावित हुए। अधिवेशन में भाग लेने के लिए सेठ घनश्याम दास बिरला भी आये थे। उनका यद्यपि पोद्दार जी से पूर्ण मतैक्य नहीं था तथापि वह भाषण उन्हें पसंद आया। दूसरे दिन अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए उन्होंने पोद्दार जी से कहा कि तुमलोगों के क्या विचार हैं कैसे हैं कहांतक ठीक हैं इसकी आलोचना हमें नहीं करनी | पर इनका प्रचार तुमलोगों द्वारा समाज में हो रहा है, जनता इसे दूर तक मानती भी है। यदि तुमलोगों के पास अपने विचारों और सिद्धांतों का एक " पत्र"होता तो तुमलोगों को और भी सफलता मिलती। तुमलोग अपने विचारों का एक पत्र निकालो। पोद्दार जी ने कहा कि आपका विचार तो ठीक है पर मेरा इस सम्बन्ध में कोई अनुभव नहीं है । बिरला जी ने आग्रह करते हुए कहा प्रयास करो। उस समय बात यहीं समाप्त हो गयी। घनश्याम दास जी ने परामर्श के रूप में एक बात कह दी थी। पर यही बात कल्याण मासिक के जन्म का कारण बन गयी। अधिवेशन समाप्त होने के बाद सभी लोग अपने अपने स्थान चले गए। पोद्दार जी बम्बई की ओर चले। उन दिनों दिल्ली से बम्बई जाने के लिए रेवाड़ी होकर अहमदाबाद जाना पड़ता था और वहां से गाडी बदल कर बम्बई। पोद्दार जी दिल्ली से रेवाड़ी गए। रेवाड़ी से भिवानी का आधे घंटे का रास्ता था। पोद्दार जी चूरू से उनदिनों भिवानी आये सेठ जयदयाल गोयन्दकाजी से मिलने भिवानी गए एक दिन वहां रहे। सेठ जी को बाँकुड़ा जाना था और पोद्दार जी को बम्बई। दोनों भिवानी से रिवाड़ी तक साथ आये। रास्ते में उन्होंने घनश्याम दास जी द्वारा दिए गए सुझाव पर चर्चा की तो सेठ जी को यह विचार अच्छा लगा। सेठ जी के साथ उनके अनुगत लच्छीराम मुरोदिया भी थे। उन्होंने भी सहमति जताई। उन्होंने पोद्दार जी से वचन ले लिया कि वे प्रत्येक दिन दो घंटा समय सम्पादन के लिए देंगे। पोद्दार जी ने अपनी अनुभवहीनता के बारे में बात की पर मुरोदियाजी नें उन्हें चुप करा दिया। अब नाम का प्रश्न आया। पोद्दार जी के मुंह से निकल गया " कल्याण ". सेठ जी तथा मुरोदिया जी को यह नाम पसंद आया। यह बात चैत्र शुक्ल 9 संवत 1983 श्री राम नवमी के दिन की है। इसी के साथ तय हो गया कि अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया ) से कल्याण का आरम्भ कर दिया जाय।

कल्याण का प्रथम अंक

एक दिन खेमराज श्री कृष्ण दास प्रेस के मालिक सेठ श्री कृष्ण दास जी पोद्दार जी से मिलने आये। बातचीत के दौरान कल्याण की चर्चा हुई। श्री कृष्ण दास जी ने कहा कि भाई जी पत्र अवश्य निकलना चाहिए। पोद्दार जी ने उनके सामने भी अनुभव की कमी की बात की। श्री कृष्ण दास जी ने सहयोग देनें की बात की। पोद्दार जी आनाकानी कर रहे थे। तब श्री कृष्णदास जी ने पोद्दार जी से कहा कि आपको भगवान् नें आसाम में भूकंप से बचाया। भगवान् आपसे कोई बड़ा काम करवाना चाहते हैं। पोद्दार जी इस तर्क के आगे मौन हो गए। अब "कल्याण " का पंजीकरण हो गया और सामग्री एकत्र कर प्रेस में छपने को दी गयी। श्रावण कृष्ण 11 संवत1983 विक्रमी (अगस्त 1926) को "कल्याण'' का पहला अंक निकला। प्रकाशक था सत्संग भवन नेमानी बाडी बम्बई। इस प्रकार कल्याण का प्रथम अंक निकला अंक सबको बहुत पसंद आया। प्रारम्भ में इसकी 1600 ग्राहक थे।

कल्याण और महात्मा गाँधी

कल्याण के लिए गांधी जी से पोद्दार जी ने आशीर्वाद माँगा। गाँधी जी ने विज्ञापन और पुस्तक समीक्षा न छापने की सलाह दी। गांधी जी कल्याण के प्रथम अंक से ही जुड़े थे। गाँधी जी हमेशा यह कहते थे की पुस्तक समीक्षा और विज्ञापन के प्रकाशन से कल्याण अपने पथ से विमुख हो जायेगा।भाई जी ने इसे शिरोधार्य किया और आजीवन इसका निर्वाह किया। आज भी कल्याण में विज्ञापन और पुस्तक समालोचना का प्रकाशन नहीं किया जाता । कल्याण के 12 साधारण अंक तथा दूसरे वर्ष का पहला अंक ''भगवन्नामांक''विशेषांक बम्बई से निकला। बाद में इसका प्रकाशन सन 1927 से गीताप्रेस गोरखपुर से होने लगा । इस निमित्त पोद्दार जी बम्बई से गोरखपुर आ गए। तब से गोरखपुर ही उनका करमौर साधनास्थल बन गया। भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रूप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रूप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों,रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

गीता और गीताप्रेस

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि गीता प्रेस की स्थापना उस समय के प्रख्यात संत सेठ जय दयाल जी गोयन्दका ने किया था। गीता प्रेस की स्थापना के तीन चरण हैं। पहला चरण सन 1919 है। यह वह समय है जब कलकत्ता की बांसतल्ला गली में बिड़ला परिवार ने अपना एक गोदाम भाड़े पर श्री गोयन्दका जी को सत्संग के लिए उपलब्ध कराया था, जिसका नाम गोविन्द भवन रखा गया। यही से सेठ जय दयाल गोयन्दका जी ने गीता की 5 000 हजार प्रतियां पहली बार प्रकाशित की थीं। ये प्रतियां कम पड़ गयीं तो6000 प्रतियां और प्रकाशित की गयीं। यह गीता जी का प्रथम समन्वित प्रकाशन था।

इसका दूसरा चरण शुरू होता है जब श्री घनश्याम जी जालान और श्री महावीर प्रसाद जी पोद्दार ने श्री सेठ जो को यह प्रस्ताव दिया कि प्रेस की स्थापना गोरखपुर में की जाय। इसके लिए 10 रुपये महीने के किराए पर एक मकान हिंदी बाजार में लिया गया। 23 अप्रैल 1923 को गीताप्रेस के नाम से इस प्रकाशन की स्थापना की गयी।24 सितम्बर 1923 को 600 रुपये में पहली प्रिंटिंग मशीन खरीदी गयी।

इसके तीसरे चरण की शुरुआत हुई जब 12 जुलाई1926 को वर्तमान भवन का पूर्वी हिस्सा खरीदा गया। उसके बाद से इसका लगातार विस्तार होता गया।

गोरखपुर में श्री भाई जी

भाई जी का आगमन 1927 में गोरखपुर में हुआ। भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है।बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी,रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने 25 हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

भाई जी की अपने समय के साथ साथ भविष्य के भारत को लेकर भी व्यापक दृष्टि थी। साहित्य, कला, रंगमंच,अध्यात्म संस्कृति आदि सभी विषय उन्हें चिंतातुर करते रहे। फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाई जी ने अपनी पुस्तक`सिनेमा मनोरंजन या विनाश' में दे दी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने `विवाह में दहेज'जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने `नारी शिक्षा' के नाम से और शिक्षा-पद्धति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाई जी ने भरपूर योगदान दिया। सन 1966 के विराट गोरक्षा आन्दोलन मे महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा किये गये 166 दिन के अनशन का इन्होने पूरा समर्थन किया। भाई जी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय ही नहीं अपितु अतुल्य है। गीता प्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा।

सनातन की स्थापना के अन्वेषक

श्री भाई जी को जानने की जितनी कोशिश की जाती है उससे भी ज्यादा गूढ़ परतें खुलनी शुरू हो जाती हैं। भाई जी को सम्पूर्ण रूप से जान पाना बहुत कठिन है। एक स्वतंत्रता सेनानी, एक सामाजिक संगठक, एक व्याख्याता, एक आंदोलनकारी, एक दार्शनिक, एक चिंतक, एक दूरद्रष्टा महामानव, एक संत, एक साधक,एक लेखक, एक पत्रकार, एक कवि, कथावाचक, एक सम्पादक, एक भाष्यकार, एक समाजसेवी, एक सामान्य मनुष्य याकि मनुष्य स्वरुप में एक देवता। सृष्टि की सनातन भाषा और संस्कृति को डिकोड कर जनसामान्य के लिए पाथेय का निर्माण करने वाले चैतन्य के इस आधुनिक स्वरुप को किन शब्दों में परिभाषित किया जाय। यकीनन संस्कृति पर्व के प्रथम चार विशेषांको के लिए देश भर से प्राप्त आचार्यों और विद्वानों ने श्री भाईजी के उल्लेख के साथ संस्कृति पर्व को अपने आशीर्वचन दिए अब यह प्रतीत हो रहा है कि श्री भाईजी के विराट का समयोचित मूल्यांकन करने का समय आ चुका है। यह कार्य निश्चित तौर पर शोध संस्थानों,विश्वविद्यालयों और अकादमियों का है। सनातन के इस महान्वेषक के लिए जितना भी लिखा जाएगा वह बहुत थोड़ा ही होगा। आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास के इस महाप्रणेता को केंद्र में रख कर एक विशद शोधश्रृंखला की आवश्यकता है तभी भाईजी के सांस्कृतिक आंदोलन का मूल्यांकन भी होगा और भावी भारत का मार्गदर्शन भी।

( लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक एवं अध्यक्ष एवं संस्कृति पर्व के संपादक भी है।)



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Sanjay Tiwari

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