TRENDING TAGS :
दिल हो ! दर्द न हो, तो ?
यह पोस्ट आज (1 अगस्त 2020) बकरीद के उपलक्ष्य पर है| मेरे जीवन की निजी घटना पर आधारित है| करीब तीन दशक पुरानी| विषय मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा है|
के. विक्रम राव
यह पोस्ट आज (1 अगस्त 2020) बकरीद के उपलक्ष्य पर है| मेरे जीवन की निजी घटना पर आधारित है| करीब तीन दशक पुरानी| विषय मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा है| करुणावाली भावना के मुतल्लिक| मेरा कनिष्ठ पुत्र (तीसरी पीढ़ी का श्रमजीवी पत्रकार) बालक के. विश्वदेव राव एक शाम रुआंसा होकर मेरे सामने आया| अपने दुःख का कारण उसने बताया| बंदरियाबाग (लखनऊ) में अपनी माँ के रेलवे बंगले के अहाते में वह स्कूटर चला रहा था | तभी एक गिलहरी उसके अगले पहिये के नीचे दबकर मर गई| वह बोला कि ''मैंने हैंडल घुमाकर उसे बचाने की भरसक कोशिश की| नहीं हो पाया| वह कुचल गई, मैं गिर पड़ा, चोटिल हो गया|''
खैर, उसकी डॉक्टर माँ ने बेटे की मरहम पट्टी कर दी | पर मैंने उसे ढांढ़स बंधाया और कहा, ''तुम्हारा दोष नहीं है| ईश्वर निर्दोष मानकर तुम्हें जरूर माफ़ कर देगा|'' आत्मपरिशीलन करने पर मुझे अपने पुत्र पर नाज हुआ| कान्वेंट में पढने के बावजूद उसके दिल में दया की भावना जीवंत है| दर्द की अनुभूति है| आखिर अल्लाह का भी असली नाम तो रहीम (महादयालु) ही है| श्रीराम चन्द्र के नाम ''हरण भव भय दारुणम'' के प्रारंभ में भी ''कृपालु'' शब्द आता है|
ये भी पढ़ें:डॉ नीरज जैन गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में चयनित होना अभूतपूर्व: आशीष मिश्रा
अब सन्दर्भ यहाँ कुछ लोभी, निर्मम व्यक्तियों द्वारा रची गई मजहबी प्रथाओं का है| मैं गुवाहाटी कई बार कामख्या माँ के दर्शन करने गया| मगर अब उस मन्दिर में नहीं जाता हूँ| वहाँ कबूतर, मुर्गी, बत्तख, बकरी आदि निरीह, गूंगे जीवों की बलि चढ़ाते हैं |
प्रश्न है कि क्या कोई ममतामयी माँ अपनी ही संतानों का भक्षण करेगी ?
यही बात बापू (गाँधीजी) ने कलकत्तेवाली कालीबाड़ी में कही थी|
अतः जब इलाहबाद उच्च न्यायालय (लखनऊ खंडपीठ) के न्यायमूर्ति-द्वय पंकज मित्तल और डॉ. योगेश कुमार श्रीवास्तव ने डॉ. मोहम्मद अयूब की जनहित याचिका (749/2020) को गत बुधवार को निरस्त कर दिया तो बहुत ही अच्छा, मनभावन लगा| पीस पार्टी के इस अध्यक्ष डॉ. मोहम्मद का आरोप था कि बकरीद मनाने पर योगी सरकार द्वारा लगाये गए प्रतिबंधों से उनके इस्लामी मजहबी हकों का हनन हुआ है| मगर हाई कोर्ट ने कहा : “संविधान की धारा 25 के तहत प्रदत्त मूलाधिकार का उपयोग भी पब्लिक ऑर्डर, नैतिकता तथा स्वास्थ्य की आवश्यकताओं से बंधा है|” यूं आम जन की शिकायत भी रहती है कि मुस्लिम रिहायशी इलाकों में बकरीद के बाद नालियां खून और हड्डियों से पटी रहती हैं| जनस्वास्थ्य को खतरा बन जाता है|
लौकिक विधान और पारलौकिक बाध्यताओं से भी ऊपर उठकर चन्द बिन्दुओं पर चर्चा हो|
पशु से मनुष्य ऊँचा क्यों है ?
बेहतर किसलिए है?
इसलिए क्योंकि उसमें सहानुभूति है, उसका ह्रदय संवेदनशील होता है | पर एक गंगाजमुनी हिन्दू ने कहा कि हलाल पर विरोध जायज है, क्योंकि उसमें पशु को यातना दी जाती है| वह जघन्य है|
अर्थात परोक्ष रूप से मान लें कि झटके से मिला गोश्त स्वीकार्य है| तब यहाँ चर्चा को भटकाने वाली बात हो जाएगी| सामिष व निरामिष पर बहस अटकेगी| मगर रिश्ता यहाँ मानवीय भावनाओं की बाबत है| जब कोई बालक, आयु के कारण अपरिपक्व अवयवों वाला होता है, तो वह कटते चौपायों के आर्तनाद से क्रन्दन करता है| मगर क्रमशः आदी होता जायेगा| परिणामतः उसकी संवेदनाएं चट्टानी हो जाती हैं| परपीड़ा का उसे बोध कभी भी नहीं होता| यही बुनियादी सवाल है| सारांश यही कि परपीड़ा से कोई दुखित न हो तो उसके मानव होने पर संशय तो होगा ही|
फिर मुझे मेरे चिरकाल से व्यथित कर रहे प्रश्न का उत्तर मिल गया| इतिहास के पठन के दौर में मैं अक्सर खुद से पूछा करता था कि लगभग नौ सदियों की लम्बी अवधि तक भारतीय लोग मुसलमान और अंग्रेज आक्रमणकारियों से लड़े, भिड़े, मगर उन्हें हरा क्यों नहीं पाए ? इसका कुछ हद तक कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रथम आक्रमणकारी राबर्ट क्लाइव द्वारा लन्दन में कम्पनी मुख्यालय को लिखे परिपत्र में मिलता है| इस साम्राज्यवादी फौजी ने लिखा था कि ''इन हिन्दुओं को लाल रंग देखकर ही सिहरन हो जाती है| अतः हम इस महाद्वीप पर युगों तक राज कर सकते हैं|'' सही भी है| क्योंकि बुद्ध-महावीर के ढाई हजार वर्षों की कालावधि से गाँधी तक अहिंसा ही परम धर्म हो गया था| ''उत्तिष्ठ, युद्धाय'' वाली भावना ही लुप्त हो गयी थी|
ये भी पढ़ें:5 अगस्त केे लिए इस भव्य तरीके से सज रहा अयोध्या, हो रही ये फ़ोटोज़ वायरल
अर्थात केवल हिंसा, अन्यायपूर्ण ही सही, सभ्यता के विकास का पैमाना है, न कि न्यायसंगत अहिंसा|
इसी किस्म की बात पर अभी शास्त्रार्थ चल रहा है कि विकास का तराजू क्या है ?
तुरंत न्यायवाला एनकाउंटर बनाम मंथर गतिवाली अदालती प्रक्रिया ?
अर्थात बकरीद पर कटते, मिमियाते छाग के बहते लहू से और उसे हलाल होते देखकर जिसका कलेजा न पिघले वह कितना इंसानियत से भरा हो सकता है?
पीर परायी वह समझ पायेगा ?
पशुता या मानवता में उसका किससे कितना सामीप्य, तादात्म्य बनेगा ?
अतः सभ्यता के उत्कर्ष पर दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की उक्ति याद आती है कि
''ईसा को सूली पर चढ़ाया, सुकरात को हेमलक (विष) दिया गया| गाँधी को गोली मारी गयी |
क्या वस्तुतः गत ढाई हजार वर्षों में मानवता का कोई विकास हुआ है ?''
देश दुनिया की और खबरों को तेजी से जानने के लिए बनें रहें न्यूजट्रैक के साथ। हमें फेसबुक पर फॉलों करने के लिए @newstrack और ट्विटर पर फॉलो करने के लिए @newstrackmedia पर क्लिक करें।