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भारत के माथे की बिंदी हिंदी, क्या इतिहास की भाषा बनने जा रही है

आज़ादी की लड़ाई में इसी भाषा ने हमारे संदेश पहुँचाने में मदद की। संविधान बनाते समय ही हमने देवनागरी के अंकों को इतिहास का हिस्सा बना दिया था। अब लगता है कि अंग्रेज़ी स्कूलों की बाढ़ , अंग्रेज़ी के स्टेट्स सिंबल होने की प्रवृत्ति हिंदी भाषा को इतिहास बनाने की अपनी अभिलाषा को पूरा करने की दिशा में तेज़ी से बढ़ रही है।

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Published on: 6 July 2020 1:34 PM IST
भारत के माथे की बिंदी हिंदी, क्या इतिहास की भाषा बनने जा रही है
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योगेश मिश्र

हिंदी हैं हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा। उत्तर प्रदेश के हाईस्कूल व इंटरमीडिएट के परीक्षा परिणाम को देखें तो शायर इक़बाल की ये लाइनें बेमानी मालूम पड़ने लगती हैं । उत्तर प्रदेश हिंदी पट्टी का सबसे बड़ा राज्य है।

हिंदी की सबसे बड़ी ताक़त इसी प्रदेश और इससे लगे आसपास के प्रदेशों पर निर्भर रहती है। पर इस प्रदेश के दसवीं और बारहवीं की परीक्षा के हाल में आये नतीजे बताते हैं कि इन परीक्षाओं में 10 लाख 89 हज़ार 519 ऐसे छात्र मिले जिन्होंने या तो हिंदी भाषा की परीक्षा छोड़ दी या फेल हो गये। जबकि इन दोनों परीक्षाओं में 56 लाख 7 हज़ार 118 परीक्षार्थी पंजीकृत थे। इस लिहाज़ से यह संख्या मोटे तौर पर बीस फ़ीसद के आसपास बैठती है।

सवाल बहुत से

यह आँकड़ा किसी हिंदी प्रेमी के लिए परेशान करने वाला हो सकता है क्योंकि पिछले साल इन्हीं परीक्षाओं के केवल हिंदी के प्रश्न पत्र में दस लाख बच्चे फेल हुए।

हिंदी में फेल हुए और हिंदी की परीक्षा छोडने वालों की संख्या से केवल इस विषय के बारे में ही नहीं दूसरे और विषयों तथा समूची माध्यमिक शिक्षा को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। क्योंकि इस हिंदी पट्टी में हिंदी सबसे सरल भाषा मानी जाती है।

सरकार अंग्रेजी हटाओ वालों की

यह उस राज्य की स्थिति है, जहां बीते तीस सालों से या तो अंग्रेज़ी हटाओ के आंदोलन वाली सरकार रही है या फिर दलित मुखिया वाली सरकार अथवा पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में बोल कर हिंदी को अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिलाने वाले नेता के पार्टी की सरकार रही है। इस समय भी इसी दल की सरकार है। तब हिंदी की यह दुर्दशा, हिंदी के प्रति यह अनासक्ति कई तरह की कहानियाँ कहतीं है।

घर में विरोध बाहर सम्मान

हिंदी हार्टलैंड में हिंदी को लेकर बच्चों के फेल होने के नतीजों में ही हिंदी हैं हम, का विरोध छिपा हुआ है। अपने घर में हिंदी की यह हालत तब है जब दुनिया के पैमाने पर हिंदी लगातार प्रतिष्ठित हो रही है। गूगल पर हिंदी 94 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। जबकि अंग्रेज़ी की गति मात्र 19 फ़ीसदी है।

अमेरिका के 45 विश्वविद्यालय और दुनिया के 176 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। विदेश में हिंदी की 25 पत्र- पत्रिकाएँ निरंतर निकल रहीं है। हिंदी में वेब एड्रेस यानी यूआरएलएस बनाने का अवसर गूगल ने मुहैया करा रखा है। यह सुविधा दुनिया की केवल छह अन्य भाषाओं को हासिल है।

गैर हिन्दी भाषी हिन्दी सेवी

राजामोहन राय बंगाली थे, उन्होंने हिन्दी के बारे कहा था कि 'हिन्दी में अखिल भारतीय भाषा बनने की क्षमता है।'

गुजराती भाषी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था कि 'हिन्दी द्वारा सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।' महात्मा गांधी भी गुजराती भाषी थे उन्होंने कहा था कि 'राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं।'

लोकमान्य तिलक का कहना था कि 'राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्त्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।'

सुभाष और बंकिम ने भी कहा

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि 'देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा हिन्दी ही राष्ट्रभाषा पद की अधिकारिणी है।'

सुब्रह्मण्य भारती ने कहा कि 'राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।'

बंकिमचन्द्र चटर्जी ने कहा था, 'अपनी मातृभाषा बांग्ला में लिखकर मैं बंग-बंधु तो हो गया, किंतु भारत-बंधु मैं तभी हो सकूंगा जब भारत की राष्ट्रभाषा में लिखूंगा'।

एक वोट से राजभाषा

भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां सबसे अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ 461 भाषाएँ लोग बोलते थे, अब 14 भाषाएँ विलुप्त हो गयी हैं। 16 जुलाई, 1947 को संविधान के चौथे सत्र की शुरुआत में हिंदी के पक्ष में 63 और हिंदुस्तानी के पक्ष में 32 वोट पड़े। 26 अगस्त,1947 को फिर वोट हुआ।

देवनागरी के पक्ष में 78 व विपक्ष में 77 वोट पड़े। चौथी बार भी यही हुआ। एक वोट से हिंदी हमारी राजभाषा बनीं। हमारे संविधान में राष्ट्रभाषा का ज़िक्र है ही नहीं। हिंदी की पहली कविता अमीर खुसरो ने लिखी।

हिंदी भाषा के इतिहास पर पहले साहित्य की रचना भी ग्रासिए द तैसी नाम के एक फ़्रांसीसी लेखक ने की थी ।1930 में हिंदी का पहला टाइपराइटर आया था। हिंदी भाषा का इतिहास लगभग 1000 वर्ष पुराना माना गया है। भारत के लगभग 70% निवासी हिंदी भाषा के जानने वाले हैं लेकिन अंग्रेजी के बढ़ते प्रयोग से हिंदी भाषा का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

शिक्षा का माध्यम बनाने के स्थान पर उसे केवल एक भाषा के रूप में पढ़ाया जाने लगा है। उत्तर प्रदेश यानी हिंदी के गढ़ में ही सरकार 5 हजार इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने का इरादा रखती है। हिंदी का हाल इससे भी जान सकते हैं कि भारत में कोई तीन लाख इंटरनेशनल इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।

ब्रिटिश शासन

हिंदी पर इंग्लिश के हावी होने का मूल कारण संभवत अंग्रेजों का 200 वर्षों का शासन है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से जनमानस के दिलो-दिमाग पर यह बात घर कर गई की अंग्रेजी भाषा से हम समाज में यथोचित सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।

और लग गए इसी सोच का अंधा अनुकरण करने। हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी की बढ़ती लोकप्रियता के चलते प्राथमिकता मिली और उसे सूत्र के रूप में धीरे-धीरे अपरोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया गया ।विशेष तौर पर दक्षिण भारत में।

प्रेम सागर हिन्दी की पहली किताब

1805 में छपी लल्लू लाल की किताब ‘प्रेम सागर’ हिंदी की पहली किताब है। इसमें कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। यह कम लोग जानते होंगे की नमस्ते शब्द हिंदी का सबसे ज़्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है। गुरू, जंगल, योग, लूट और अवतार हिंदी के ऐसे शब्द हैं जो दूसरी भाषा में धड़ल्ले से प्रयोग किये जाते है।

दूसरी भाषाओं के शब्दों की ग्राह्यता

हिंदी में प्रयोग होने वाला अचार, चाबी, संतरा, आलपीन, बाल्टी पुर्तगाली शब्द हैं। कैंची, चम्मच, तोप, बारूद, ख़ंजर, चेचक, बेगम , उर्दू तर्की भाषा के शब्द हैं। तुरुप, बम, चिड़िया डच शब्द हैं।

काजू, कारतूस, मेयर, कूपन, मीनू, सूप फ़्रेंच शब्द हैं। एकेडमी,एटलस, बाइबिल, टेलीफोन यूनानी हैं। आदमी, तनख़्वाह, चश्मा ,बीमार, ज़मीन , दवा, खून, ग़ुब्बारा फ़ारसी से लिये गये हैं।

औरत, अदालत, क़ानून,कुर्सी, लिफ़ाफ़ा,इज़्ज़त, इलाज, औलाद, हिम्मत, क़ब्ज़ा, दुनिया, बहस, कमाल, तहसील, आज़ाद, तराज़ू , ज़िला, मुस्लमान, बलुआ, वकील अरबी भाषा से आये हैं।

साफ़ है कि हिंदी समय के साथ अपने को सरल व सहज बनाने के साथ ही साथ दूसरी भाषा के तमाम शब्दों को खुद में समाहित करती चली है ताकि उसे जड़ भाषा न कहा जाये।

राष्ट्रभाषा हिन्दी

इतिहास में जाएँ तो महात्मा गांधी ने सन 1918 में एक हिंदी सम्मेलन के दौरान हिंदी को जनमानस की भाषा बताते हुए राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा था।

ब्रिटिश हुकूमत में तो कुछ होना नहीं था सो आज़ादी के बाद 14 सितंबर 1949 को स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने काफी सोच विचार के बाद संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान कर दिया।

यह निर्णय लिया गया कि आंकिक प्रणाली को छोड़कर सभी राजकाज हिंदी भाषा में ही किए जाएं। भारत के संविधान की आठवीं सूची में में स्वीकृत भाषाओं की संख्या 23 हैं।

1965 तक की थी मियाद

संविधान निर्माताओं ने तात्कालिक तौर पर अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के तौर पर स्वीकार करते हुए संघ का कर्तव्य निर्धारित किया था कि वर्ष 1965 तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित कर लिया जाये लेकिन ये काम आज तक नहीं हो पाया।

हिन्दी को राजभाषा के तौर पर स्वीकृति स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों के एक हिस्से के तौर पर था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाषायी गुलामी से भी मुक्ति प्राप्त करनी थी। मानसिक गुलामी से छुटकारा पाना था लेकिन आज जब हम यह बात कर रहे हैं तो गुलामी का अहसास ही समाप्त हो गया है।

गांधी की बात पर मंच से उतर गईं एनी बेसेंट

4 फ़रवरी,1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन हुआ। कार्यक्रम में वायसराय उपस्थित थे। दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह अध्यक्ष थे। महात्मा गांधी जी को पंडित मदन मोहन मालवीय जी के आग्रह पर भाषण देना था। उन्होंने कहा,”इस पवित्र नगरी में विद्यापीठ के प्रांगण में अपने देश वासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना शर्म की बात हैं।

एनी बेसेट को गांधी जी की यह बात इतनी बुरी लगी कि वह मंच से उतर कर चली गयी।” हिंदी के प्रति यह भाव आज़ादी के पहले रहा हो तो कोई बात नहीं। पर आज भी हिंदी से परहेज़ की प्रकृति व प्रवृति दिख रही हो भले ही कारण कोई और हो तो चिंता होना स्वाभाविक है। जबकि हिंदी इकलौती ऐसी भाषा है जो समूचे भारत को एक सूत्र में जोड़ती है।

इतिहास की भाषा बनाने की प्रवृत्ति

आज़ादी की लड़ाई में इसी भाषा ने हमारे संदेश पहुँचाने में मदद की। संविधान बनाते समय ही हमने देवनागरी के अंकों को इतिहास का हिस्सा बना दिया था।

अब लगता है कि अंग्रेज़ी स्कूलों की बाढ़ , अंग्रेज़ी के स्टेट्स सिंबल होने की प्रवृत्ति हिंदी भाषा को इतिहास बनाने की अपनी अभिलाषा को पूरा करने की दिशा में तेज़ी से बढ़ रही है।

विदेशी भाषा का बोलबाला

जिन भी देशों ने हमारे आसपास आज़ादी हासिल की या जो भी देश विकास के प्रतिमान बने हुए हैं, सबने अपनी विकास यात्रा अपनी भाषा में न केवल शुरू की बल्कि जारी भी रखी है। हिंदी की भारतीय भाषाएँ सहोदर है। उसकी लड़ाई केवल अंग्रेज़ी से है।

शायद ही दुनिया में कोई देश ऐसा हो जिसमें आजादी के 73 साल बाद भी राजकाज में किसी विदेशी भाषा का इतना बोलबाला हो कि अपनी भाषा को प्रोत्साहन देने के लिए 'हिन्दी-दिवस', 'हिन्दी-सप्ताह', 'हिन्दी-पखवाड़ा' मनाना पड़े।

ये आलम तब है जब दुनिया के 200 विदेशी विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जा रही है और देश - विदेश में एक अरब 30 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं।

अंग्रेजी पर टिकी नौकरशाही

अंग्रेजी साम्राज्यवाद में पली-बढ़ी नौकरशाही इस बात को मानने को तैयार ही नहीं कि अंग्रेजी बिना देश प्रगति कर सकता है। जबकि हमारे सामने रूस, चीन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली जैसे देशों के उदाहरण हैं जिन्होने विज्ञान और तकनीकी विकास अपनी भाषा में ही किया है। चीन में मेडिकल की पढ़ाई मंदारिन भाषा में होती है लेकिन भारत में अंग्रेजी में।

सीखना बुरी बात नहीं

वैश्वीकरण में विभिन्न भाषाएँ सीखना लाभप्रद और जरूरी हो जाता है। ऐसे में अंग्रेजी सीखना बोलना खराब बात नहीं है अपनी भाषा पर भी गर्व होना चाहिए। मां-बाप बच्चे को हिन्दी अथवा स्थानीय भाषा की बजाए अंग्रेजी भाषा सिखाने पर ज़ोर देते हैं। ये उनकी मजबूरी भी है।

सिफारिशों पर हावी स्वार्थ का वायरस

यह सब अचानक नहीं हुआ, इसके लिए समाज के अभिजात्य वर्ग और नौकरशाही का पूरा दिमाग लगा है। वर्ष 1948 में डा. राधाकृष्ण की अध्यक्षता में बना विश्वविद्यालय आयोग, 1952 में डा. लक्ष्मण स्वामी मुदलियर की अध्यक्षता में बने माध्यमिक शिक्षा आयोग, 1964 में डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में बने शिक्षा आयोग आदि जितने भी शिक्षा से जुड़े आयोग बने सबने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की सिफारिश की।

भारतीय भाषाओं और हिन्दी को विकसित करने के लिए त्रि-भाषा सूत्र जैसे कितने ही उपाय सुझाए। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता और वर्ग स्वार्थों का वायरस सबको खा गया।

अंग्रेजी माध्यन ने हिन्दी को पीछे धकेला

लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी माध्यम बने रहने के कारण मेधावी व महत्त्वाकांक्षी छात्रों को अंग्रेजी की ओर धकेलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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पूरे देश में अंग्रेजी माध्यम और कान्वेट स्कूलों के कारोबार फलने-फूलने के पीछे यही कारण है। इनकी परिकल्पना में ही था कि जो यहां पढ़ेगा वह अफसर बनकर ही निकलेगा।

प्रजा हो गई हिन्दी

सत्ता में भागीदारी का द्वार बनकर उभरे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय और स्थानीय मातृभाषाओं के विद्यालय में रह गई प्रजा।

जब इस दोहरी व्यवस्था की आलोचना होने लगी तो हरियाणा जैसे राज्य जो हिन्दी भाषा के आधार पर ही अस्तित्व में आया, उसमें भी सरकारी विद्यालयों में भी प्रथम कक्षा से ही अंग्रेजी विषय अनिवार्य कर दिया।

लेकिन अंग्रेजी की इतनी अहमियत और इस भाषा में पूरी पढ़ाई होने के बावजूद अंग्रेजी में भी महारथ हासिल नहीं हो सकी है।

अंग्रेजी नहीं आई हिंगलिश आ गई

आज के युवा अंग्रेजी में प्रार्थना पत्र तक सही से लिख नहीं पाते। यही हाल हिन्दी का है। हिन्दी पत्रकारिता में अब हिन्दी की बजाए हिंगलिश छा गई है।

लेखन के स्तर पर भाषा की अशुद्धता तो पूरी तरह शिक्षा-प्रणाली का दोष है। जिसमें शिक्षक, पाठ्यक्रम, परीक्षा-प्रणाली तथा भाषा-नीति भी शामिल हैं।

भाषा के प्रति जो थोड़ी बहुत जागरुकता है भी तो केवल उच्चारण पर। इसीलिए अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले सैंकड़ों प्रतिष्ठान शहरों में मिल जायेंगे, लेकिन शुद्ध अंग्रेजी लिखने पर कोई ध्यान नहीं।

रोजगार और हिंदी

रोजगार कंपनियों और अन्य संस्थानों में भी अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को विशेष प्राथमिकता दी जाती है। यही वजह है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में इंग्लिश सिखाने वाले संस्थानों की भरमार है।

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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी के महत्व को देखते हुए ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले अनपढ़ अभिभावक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में प्रवेश हेतु चक्कर लगाते रहते हैं।

बच्चा भी दुविधा की स्थिति में रहता है की अंग्रेजी अधिक आवश्यक है या विषय का ज्ञान। फल स्वरूप न तो वह भाषा पर अपनी पकड़ बना पाता है और न ही विषय का ज्ञान अर्जित कर पाता है।

अंततः पढ़े-लिखे बेरोजगारों की भीड़ बनती है जिसके पास डिग्री तो है लेकिन तकनीकी ज्ञान नहीं।

क्या हिंदी बेकार है?

हम यह क्यों मानते हैं इंग्लिश के बिना विकास संभव नहीं हो सकता है? यदि ज्ञान के स्थान पर अंग्रेजी भाषा ही उन्नति का आधार होती तो चीन और जापान जैसे देश जहां क्रमशः 70% और 83% लोग चीनी एवं जापानी भाषा का ही प्रयोग करते हैं उन्नति के शीर्ष पर विराजमान न होते।

आज हमें अंग्रेजी न बोलने के कारण उससे शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है। हमें अंग्रेजी को केवल एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकारने की आवश्यकता है जिससे हम विश्व के अन्य देशों के साथ वैचारिक आदान-प्रदान कर सकें न कि उसको प्रतिष्ठा का प्रतीक बनाएं।

हिंदी को दोयम दर्जे की भाषा बनाया जा रहा है। इस साज़िश से बचने की ज़रूरत है क्योंकि कोई देश दूसरे की भाषा में विश्वगुरु नहीं हो सकता।

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व न्यूजट्रैक के संपादक हैं)

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