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कोविड-19 की आर्थिक मंदी के बीच कैसा रहा बजट 2021-22 ?

दो सरकारी बैंक एवं एक इंश्योरेंस कंपनी सहित पोर्ट बिक्री जैसे बड़े एलानो ने बजट को "खुले बाजार वाले" बजट के रूप में स्थापित कर दिया है, लेकिन यह बजट तमाम हेडलाइंस से अलग एक बेहद संवेदनशील समय पर बहुत महत्वपूर्ण बजट है।

Ashiki
Published on: 12 Feb 2021 4:26 AM GMT
कोविड-19 की आर्थिक मंदी के बीच कैसा रहा बजट 2021-22 ?
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बजट 2021 पर रतन लाल कटारिया का लेख (PC: social media)

Vikrant Singh विक्रांत सिंह

बजट 2021-22 अपने कुछ चुनिंदा हेडलाइन की वजह से चर्चा में रहा है। खासकर सरकारी संपत्तियों के सीधे तौर पर बेचे जाने वाली घोषणा ने इसे चर्चा का केंद्र बिंदु बना दिया है। दो सरकारी बैंक एवं एक इंश्योरेंस कंपनी सहित पोर्ट बिक्री जैसे बड़े एलानो ने बजट को "खुले बाजार वाले" बजट के रूप में स्थापित कर दिया है, लेकिन यह बजट तमाम हेडलाइंस से अलग एक बेहद संवेदनशील समय पर बहुत महत्वपूर्ण बजट है।

एक प्रश्न से करनी चाहिए बजट की चर्चा

यह बजट उस दौरान प्रस्तुत किया गया है जब भारत कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी से चौतरफा घिरा हुआ है। इसलिए अबकी बार के बजट की चर्चा एक प्रश्न से करनी चाहिए? क्या यह संकट के समय में समाधान का बजट है? भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2017-18 से ही ढलान की तरफ बढ़ने लगी थी और कोविड-19 से आई आर्थिक तबाही ने इसके ताबूत में आखिरी कील का काम किया। कोविड-19 के पहले भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी की गणना में 45 साल के न्यूनतम स्तर पर थी।

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रियल जीडीपी की गणना में 11 साल के न्यूनतम स्तर पर थी। कृषि वृद्धि दर में 4 वर्ष के न्यूनतम स्तर पर थी। विनिर्माण क्षेत्र 15 साल के न्यूनतम स्तर पर था। निर्यात की वृद्धि दर घटकर 3 फ़ीसदी पहुंच चुकी थी, जो वर्ष 2014 में 18 फ़ीसदी हुआ करती थी। मांग में आई कमी की वजह से आयात 16 फ़ीसदी(2014) से घटकर 4 फ़ीसदी (2019-20) पहुंच चुकी थी। निवेश महज 3 फ़ीसदी की दर से बढ़ रहा था। इसलिए सिर्फ कोविड-19 को भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए।

भयावह स्थिति में पहुंच चुकी है भारतीय अर्थव्यवस्था

वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सबसे भयावह स्थिति में पहुंच चुकी है। अप्रैल-जून की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर -23.9 फ़ीसदी थी। यह 1980 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है। आरबीआई ने वर्ष 2020-21 के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर का अनुमान -7.5 फ़ीसदी किया है। यदि यह अनुमान सही साबित होता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था आजादी के बाद सबसे बुरी स्थिति में होगी। सन 1981 में वृद्धि दर -7.3 फ़ीसदी रही थी। आज बेरोजगारी दर 9.1 फीसदी पहुंच चुकी है, जो लगभग पिछले 50 वर्षों का सबसे उच्चतम स्तर है। इसलिए इस बजट से बहुत उम्मीदें जुड़ गई थी क्योंकि इसका समय और इसकी जरूरत विशेष है।

बजट के विश्लेषण पर पता चलता है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बजट के जरिए खर्च बढ़ाने के रास्ते को चुना है। अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए सरकारी खर्च में बढ़ोतरी की बात की गई है। 5.54 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्च के जरिए इस बार अर्थव्यवस्था को नई उम्मीद देने की बात की गई है. पिछले वर्ष खर्च 4.1 लाख करोड़ रुपये का था. वर्ष 2021-22 के लिए कुल 34,83,236 करोड रुपए का बजट प्रस्तावित है। वही 2020-21 में यह 30,42,230 करोड रुपए का था।

फिलहाल अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन नहीं आने वाले

वर्ष 2020-21 का संशोधित अनुमान 34,50,305 करोड़ रुपए का हो गया है। यानी कि बजट में कुल जीडीपी की तुलना में महज 0.32 फ़ीसदी की ही बढ़ोतरी हुई है। अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र होते हैं: खपत, निवेश और निर्यात। बजट के आंकड़ों के हिसाब से खपत -9.5 फ़ीसदी की दर से, निवेश -14.4 फ़ीसदी की दर से और निर्यात -12.7 फ़ीसदी की दर से बढ़ेगा। यानी कि फिलहाल अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं।

2021-22 में राजकोषीय घाटा 6.8 फ़ीसदी रहेगा। सरकार ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि आने वाले 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को 4.5 फ़ीसदी के दायरे में लाया जाएगा। वर्ष 2020-21 में राजकोषीय घाटा 9.5 फ़ीसदी रहेगा. इसका आशय यह है कि जीडीपी की तुलना में तकरीबन 18 लाख करोड़ रुपए का राजकोषीय घाटा होने जा रहा है। सरकार ने इसी राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए विनिवेश और सरकारी संपत्तियों की बिक्री का ऐलान किया है। सरकार बाजार से 12 लाख करोड़ रुपए का कर्ज भी लेगी. विनिवेश के जरिए 1.75 लख करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा गया है. जारी वित्त वर्ष में यह लक्ष्य 2.1 जीरो लाख करोड़ रुपए का था, जिसका महज 10 फ़ीसदी हिस्सा ही हासिल हो सका है।

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कृषि क्षेत्र को इस बजट में निराशा हासिल हुई

कोविड-19 में जब जीडीपी के सारे पैमाने धराशाई हो गए थे तब कृषि क्षेत्र एक उम्मीद के रूप में दिखाई पड़ा था। इसलिए इस बजट में उम्मीद थी कि सरकार कृषि क्षेत्र के लिए कुछ बड़ा जरूर करने जा रही है। जारी किसान आंदोलन के बीच यह उम्मीद और मजबूत हो गई थी। लेकिन कृषि क्षेत्र को इस बजट में निराशा हासिल हुई है। किसान सम्मान निधि जो कि किसानों को सीधे मदद करने वाली एक जरूरी योजना है, इसके बजट में 10,000 करोड़ की कटौती की गई है।

एमएसपी पर जारी बहस के बीच में दो प्रमुख योजनाओं का जिक्र करना जरूरी है। पीएम आशा (प्रधानमंत्री अन्नदाता संरक्षण अभियान और एमआईएस- पीएसएस ( मार्केट इंटरवेंशन स्कीम एंड प्राइस सपोर्ट स्कीम), यह दोनों ही योजनाएं एमएसपी को सुनिश्चित करने के लिए लाई गई थी। पीएम आशा के बजट में 100 करोड़ रुपए की कटौती की गई है। वही तिलहन और दलहन फसलों को समर्थन मूल्य देने वाली योजना एमआईएस- पीएसएस के बजट में 500 करोड़ों रुपए की कटौती की गई है।

सरकार में मनरेगा जैसी योजना को नजरअंदाज किया

कोविड-19 के दौरान आई आर्थिक संकट में मनरेगा ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बचा लिया था। वर्ष 2020-21 में इस योजना के लिए 61,500 करोड़ रुपए प्रस्तावित थे। कोविड-19 के दौरान इस योजना पर सरकार ने एक बड़ा खर्च किया है, इसलिए इसका संशोधित अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपए का है. सरकार ने इस बार बजट में 73,000 करोड़ रुपये प्रस्तावित किए हैं। जब इस देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सबसे अधिक फंड की जरूरत है, तब सरकार में मनरेगा जैसी योजना को नजरअंदाज किया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास के लिए रोड एंड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनाया गया था, जिसका कुल भार एक लाख करोड़ रुपए का है. लेकिन वर्ष 2020-21 में महज 9,020 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए।

इसलिए यह बजट लॉकडाउन में परेशान ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पलायन किए मजदूरों को चिन्हित नहीं करता है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था की उम्मीद उसके कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से हैं। लेकिन देश के किसान सड़कों पर है और नए कृषि कानूनों के खिलाफ बड़ा आंदोलन कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था में सामाजिक उथल-पुथल और आर्थिक वृद्धि के बीच नकारात्मक संबंध होता है। अगर सामाजिक उथल-पुथल बढ़ता है तो आर्थिक वृद्धि दर नीचे आती है। जरूरत है कि जल्द से जल्द किसानों की मांगों को स्वीकार कर हमें एक मजबूत आर्थिक वृद्धि की तरफ अग्रसर होना चाहिए। किसी अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि ही विकास का एक मात्र पैमाना तो नहीं होती लेकिन एक बेहद जरूरी बुनियादी पैमाना जरूर होती है।

लेखक - विक्रांत सिंह

(संस्थापक एवं अध्यक्ष

फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल

काशी हिंदू विश्वविद्यालय)

(नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं )

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