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राष्ट्र और नेशन में फर्क-हृदयनारायण दीक्षित

कुछ विवेचक आर्थिक गतिविधियों व्यापार प्रसार आदि को राष्ट्रभाव के उदय का कारण मानते हैं। आर्थिक सम्बंधों के प्रभाव निस्संदेह सामूहिक जीवन पर भी पड़ते हैं लेकिन एक समान जीवन शैली, रीति प्रीति और संस्कृति के प्रभाव ज्यादा गहन होते हैं। ऋग्वेद के समाज में परस्पर प्रीति से गणों का विकास हुआ। जन और गण मिलकर ‘जनगणमन’ की एकता प्रकट हुई। यहां राष्ट्र का गठन और विकास जन गण के सामूहिक मन ने किया है। ऋग्वेद में ‘विश’ सामान्यजन हैं। वे अच्छे शासक की इच्छा करते हैं।

Hriday Narayan Dixit
Published on: 3 April 2023 12:33 AM IST
राष्ट्र और नेशन में फर्क-हृदयनारायण दीक्षित
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Hriday narayan Dixit (Photo-Social Media)

हिन्दू राष्ट्र सम्प्रति चर्चा में है। भारत विश्व का पहला राष्ट्र है। यूरोप के देशों में ‘नेशन’ और नेशनैलिटी का जन्म 9वी-10वीं सदी में हुआ। भारत में राष्ट्रभाव का उदय ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन हो सकता है। ऋग्वेद में ‘राष्ट्र’ शबद का कई बार उल्लेख हुआ है। राष्ट्र के लिए अंग्रेजी में कोई समानार्थी शब्द नहीं है। राष्ट्र की अवधारणा भिन्न है और नेशन की बिल्कुल भिन्न। राष्ट्र और नेशन एक नहीं हैं। इतिहास के मध्यकाल तक पश्चिम में नेशलिज्म या राष्ट्रवाद जैसा कोई विचार नहीं था।
ऋग्वेद (8.24.27) में मंत्र है कि “इन्द्र ने सप्तसिन्धुषु में जल प्रवाहित किया।” सप्त सिंधु 7 नदियों के प्रवाह वाला विशेष भूखण्ड है। इसकी पहचान 7 नदियों से होती है। वैदिक साहित्य के विवेचक मैक्डनल और कीथ ने लिखा है कि “यहां एक सुनिश्चित देश का नाम लिया गया है।” पुसाल्कर ने नदी नामों के आधार पर इस देश की रूपरेखा पर विचार किया है। इसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, राजस्थान, पश्चिमोत्तर सीमांत, कश्मीर और सरयू तक का पूर्वी भारत सम्मिलित हैं। ऋग्वेद के ऋषियों के मन मस्तिष्क में तमाम नदियों वाले इस भूखण्ड के प्रति अतिरिक्त प्रीति थी। वे इसे बार-बार याद करते हैं। नदियों में जल प्रवाह हैं जल के बिना जीवन नहीं। वे एक अन्य मंत्र (1.32.12) में सात नदियों के जल प्रवाह का श्रेय इन्द्र को देते हैं। इन्द्र इन नदियों में जल प्रवाहित करते हैं तो सविता देव कैसे पीछे रह सकते हैं। ऋषि कहते हैं “सविता ने 7 नदियों को प्रकाश से भर दिया है।” (1.35.8)
सात नदियों की आराधना करने वाले इस भूखण्ड के निवासी सभी राष्ट्र है। मार्क्सवादी चिंतक डाॅ0 रामविलास शर्मा ने सही लिखा है “जिस देश में ऋग्वेद की सात नदियां बहती हैं, वह लगभग वही देश है जिस में जल-प्रलय के बाद, भरत जन के विस्थापित होने के बाद, हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ। यह देश प्राचीन काल का, ऋग्वेद और हड़प्पा के पश्चात काल का भी, बहुत दिनों तक संसार का सबसे बड़ा राष्ट्र था। सरस्वती इसके जनपदों के पारस्परिक संपर्क का साधन थी। हड़प्पा नगरों की राष्ट्रीय एकता उनकी सामान्य वास्तुकला, मुद्राओं आदि की समानता से जानी जाती है। इस राष्ट्रीय एकता की नींव ऋग्वेद के कवियों ने डाली थी। इन कवियों के लिए राष्ट्र केवल भूमि नहीं है, उस पर बसने वाले जन राष्ट्र हैं।” (भारतीय नवजागरण और यूरोप पृष्ठ 87-88) भारत दुनिया का पहला राष्ट्र है। यह अनुभूति ऋग्वेद में है। दुनिया की अर्थशास्त्र की पहली पुस्तक कौटिल्य ने लिखी थी। इसकी तुलना मैक्यावलि की ‘प्रिंस‘ से की जाती है। दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनि ने यहीं लिखा। गणित का अविष्कार भारत में हुआ। यह बात एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में है। संगीत के 7 सुरों की पहचान भारत में हुई। नाट्यशास्त्र पर पहली पुस्तक यहीं भरत मुनि ने लिखी। योग सूत्रों की खोज भी भरत में हुई। चिकित्सा विज्ञान का जन्म और विकास भारत में हुआ। ऋग्वेद में इसके साक्ष्य हैं। ऐसे सभी विषय हम सब को राष्ट्रीय गौरवबोध से भरते हैं।

कुछ विवेचक आर्थिक गतिविधियों व्यापार प्रसार आदि को राष्ट्रभाव के उदय का कारण मानते हैं। आर्थिक सम्बंधों के प्रभाव निस्संदेह सामूहिक जीवन पर भी पड़ते हैं लेकिन एक समान जीवन शैली, रीति प्रीति और संस्कृति के प्रभाव ज्यादा गहन होते हैं। ऋग्वेद के समाज में परस्पर प्रीति से गणों का विकास हुआ। जन और गण मिलकर ‘जनगणमन’ की एकता प्रकट हुई। यहां राष्ट्र का गठन और विकास जन गण के सामूहिक मन ने किया है। ऋग्वेद में ‘विश’ सामान्यजन हैं। वे अच्छे शासक की इच्छा करते हैं। शासक से कहते हैं, “सर्वाः विशः त्वा वांछनु - संपूर्ण समाज आपको चाहता है। (10.173.1) शासक का दायित्व है कि राष्ट्र को हर तरह से अविचल बनाए। इन्द्र, वरूण, अग्नि, वृहस्पति से स्तुति है कि वे राष्ट्र को स्थिर रूप में धारण करें। (10.173.5) हिन्दू भूमि के प्रति ऋग्वैदिक पूर्वजों की आत्मीयता है। इसी भूमि पर गण रहते हैं, गण से बड़े समूह जन रहते हैं। जन अनेक हैं लेकिन 5 जनों की प्रतिष्ठा है। नदियां इन्हें समृद्धि देती हैं। ऋग्वेद में स्तुति है कि ”सबके मन समान हों। समिति समान रहे। सबके मंत्र जीवन सूत्र भी समान हों।” यह अभिलाषा ऋग्वेद के अंतिम मंत्रों में प्रकट हुई है। भारतीय राष्ट्र प्राचीन संस्था है। यह भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी का एकात्म रूप है।
राष्ट्र असाधारण संस्था है। राष्ट्र गठन का मूल आधार दीर्घकालिक सांस्कृतिक निरंतरता है। ऋग्वेद में साथ साथ चलने, साथ साथ वार्तालाप करते हुए आनंदित रहने के संदेश हैं। संस्कृति में सामूहिकता है। साथ-साथ गति है। प्रीति रीति है। संस्कृति से मानव समूह की एकता सुदृढ़ होती है। सामूहिक प्रीति वाले समाज सृजन में भी रस लेते हैं। कृषि आवास आदि कारणों से मन में भूमि के प्रति लगाव पैदा होता है। भूमिजन और उदात्त संस्कृति के सुंदर मिलन से राष्ट्रभाव का जन्म और विकास होता है। हिन्दू राष्ट्रभाव का जन्म इसी दीर्घकालिक प्रक्रिया में हुआ। अथर्ववेद में बताते हैं कि वह विराट शक्ति थी। उसने ऊपर की ओर सोदक्रामत - अतिक्रमण या विकास किया। गृहस्थ बनीं।” (8.10) परिवार पहली संस्था है। आगे कहते हैं कि वह ‘आहवनीय’ हुई। परस्पर आवाहन से सामूहिकता का विकास हुआ। उसने इस स्थिति का भी अतिक्रमण -सोदक्रामत किया, वह सभा हो गई।” (वही)
सभा विचार विमर्श की प्राथमिक संस्था है। परिवार इसके पहले है। सभा के विचार विमर्श वैदिक कालीन समाज गठन के मुख्य आधार हैं। ऋषि इस बात का ज्ञान जरूरी बताते हैं “जो यह बात जानते हैं, वे सभा के योग्य है - यन्तस्य सभां सभ्यों भवति। वे सभ्य हैं। सभा नाम की इस सामाजिक संस्था ने भी विकास किया। समिति का विकास हुआ। कहते हैं कि जो यह तथ्य तत्व जानते हैं, वे समित्य - सम्मानीय हैं। (वही 10 व 11) भारत में सामाजिक विकास यात्रा का आधार विचार विमर्श है। ऋग्वेद में इस विमर्श का प्राचीन इतिहास है। अथर्ववेद में विकास की अगली स्थिति के साथ सामाजिक विकास की निरंतरता है। सामाजिक विकास में विश्व अखण्ड इकाई नहीं है। यूरोप में सामाजिक विकास की एक मंजिल में घोर अंधकार था। मानवीय मूल्य नहीं थे। यूरोप में पुनर्जागरण हुआ। तब समाज और नेशन जैसी संस्थाओं के विकास की नींव पड़ी। भारत में इसके सहस्त्रों वर्ष पहले सभा, समिति, जन, गण, गण व्यवस्था व राष्ट्र जैसी संस्थाएं हैं।
ऋग्वेद में राष्ट्र है। यजुर्वेद में राष्ट्र की प्रतिष्ठा है। वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र के साथ प्रजा द्वारा निर्वाचित, स्वीकृत राजा भी हैं। राजा प्रजा के प्रति उत्तरदायी शपथ से बंधा हुआ है। अथर्ववेद में राष्ट्र के जन्म का इतिहास है। अथर्ववेद (19.41) में कहते हैं कि ऋषियों ने लोककल्याण की कामना की थी - भद्रमिच्छन्तु ऋषयः।” ये ऋषि अथर्ववेद के रचनाकाल से प्राचीन है। ये ऋषि ऋग्वेद काल के हो सकते हैं। ऋषियों के चित्त में लोक कल्याण की भावना है। उन्होंने आत्मज्ञान का बोध पाया था। उन्होंने कठोर तप किया। दीक्षा का पालन किया।” दीक्षा ऋत, सत्य आदि आचार सूत्रों का ज्ञान है। (वही) बताते हैं कि ऋषियों के तप, दीक्षा और आत्मज्ञान से ‘राष्ट्र’ का जन्म हुआ - ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं अजायत।

Hriday Narayan Dixit

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