जाटलैंड में घिरी BJP: टिकैत के आंसुओं ने बढ़ाई मुसीबत, बदलेंगे राजनीतिक समीकरण

किसान आंदोलन ने यूपी में बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। राकेश टिकैत के आंसुओं ने जाटलैंड में बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया है।

Raj Kumar Singh
Written By Raj Kumar Singh
Published on: 1 Feb 2021 3:31 AM GMT (Updated on: 25 May 2021 10:08 AM GMT)
जाटलैंड में घिरी BJP: टिकैत के आंसुओं ने बढ़ाई मुसीबत, बदलेंगे राजनीतिक समीकरण
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राकेश टिकैत‍ के आंसुओं का कमाल, रुठे दिलों को मिलाया, किसान आंदोलन किया बुलंद

किसान आंदोलन ने यूपी में बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। राकेश टिकैत के आंसुओं ने जाटलैंड में बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया है। इसके साथ ही इस आंदोलन ने पश्चिमी यूपी में विपक्ष को एकजुट कर दिया है। 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी के सामने अब बड़ी चुनौती है कि वो लोकसभा चुनाव 2014, विधानसभा चुनाव 2017 और लोकसभा चनाव 2019 में इस क्षेत्र में मिली भारी सफलता को कैसे बरकरार रख पाए। जल्द ही प्रदेश में होने वाले पंचायत चुनावों में इसका लिटमस टेस्ट होगा।

2014 के बाद बदली बीजेपी की किस्मत

पश्चिमी यूपी के जाट बाहुल्य क्षेत्र में बीजेपी के लिए साल 2014 से पहले राह आसान नहीं थी। साल 2013 में अखिलेश यादव की सरकार में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद पूरे पश्चिमी यूपी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ। मुजफ्फरनगर के अलावा भी अखिलेश की सरकार के दौरान 2013-14 में पश्चिमी यूपी में कई छोटे बड़े सांप्रदायिक तनाव हुए थे। इसका खामियाजा अखिलेश यादव को भुगतना भी पड़ा और इसके बाद से लगातार यहां बीजेपी का ग्राफ बढ़ता गया।

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जाट वोट पर राजनीति करने वाले राष्ट्रीय लोक दल तक को हाशिए पर जाना पड़ा। अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी को भी हार का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर बीजेपी में संजीव बालियान और मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्य पाल सिंह जैसे जाट नेता खड़े हुए. इन्हें मोदी कैबिनेट में जगह भी दी गई थी।

जिसके जाट उसके ठाठ

पश्चिमी यूपी में कहावत है कि जिसके जाट उसके ठाठ. राजनीति में तो ये कहावत खासी महत्वपूर्ण है. लोकसभा की करीब 18 सीटों पर जाट वोट असर डालता है. इनमें से दस पर तो निर्णायक होता है। इसी तरह विधान सभा की करीब 115 सीटों पर जाट वोट असर रखते हैं इनमें से करीब 70 सीटों पर वे निर्णायक होते हैं।

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पश्चिमी यूपी के करीब 18 जिले जाट बहुल हैं. इनमें मेरठ, शामली, बागपत, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, अलीगढ़, बुलंदशहर, हापुड़, गाजियाबाद, नोएडा, आगरा, मथुरा, फिरोजाबाद, संभल, अमरोहा, मुरादाबाद प्रमुख हैं. पश्चिमी यूपी में करीब 15 फीसदी तक जाट हैं. इनमें से कुछ विधानसभा सीटों पर ये 20 से 40 फीसदी तक हैं।

क्यों असरदार हैं राकेश टिकैत के आंसू

राकेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत यूपी के ही नहीं देश के सबसे बड़े किसान नेता थे। बालियान खाप के प्रमुख रहे महेंद्र सिंह टिकैत भारतीय किसान यूनियन के नेता रहे, लेकिन उन्होंने राजनीतिक दलों से समान दूरी रखी। यही वजह है कि हर किसानों के हर वर्ग में उनका अलग सम्मान है।

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सीनियर टिकैत की हैसियत का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि कुछेक प्रधानमंत्री, कुछ मुख्यमंत्री और कई मंत्रियों समेत बड़े नेता उनसे मिलने उनके गांव जाते थे। महेंद्र सिंह टिकैत के किसान आंदोलन आज भी नजीर माने जाते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बाद पूरे पश्चिमी यूपी में महेंद्र सिंह टिकैत सर्वमान्य (गैर राजनीतिक) नेता रहे हैं। ऐसे में उनके बेटे के आंसुओं को जाट समुदाय ने दिल पर ले लिया है।

नए मोर्चे की आहट

महेंद्र सिंह टिकैत चौधरी चरण सिंह का बहुत सम्मान करते थे. हाल ही में महेंद्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे और बालियान खाप के चौधरी भाकियू नेता नरेश टिकैत ने जिस तरह से अजित सिंह को हराने की अपनी गलती मान ली है उससे भी राजनीत काफी बदलेगी. ऊपर से अजित सिंह, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी भी टिकैत के साथ खड़े हो गए हैं। विधानसभा चुनाव से पहले ये प्रदेश में नए मोर्चे की आहट है।

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कैसे निपटेगी बीजेपी

28 जनवरी को दिल्ली बार्डर पर गाजीपुर में जो हुआ उसे राजनीतिक रूप से सत्तारूढ़ दल के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। अफसरशाही के इस कदम ने बीजेपी और आरएसएस के विचारकों की नींद उड़ा दी है। बड़ी मेहनत के बाद बीजेपी और आरएसएस ने जाट, गुर्जर, बाकी सवर्णों और दलितों को एक साथ लाने में सफलता पाई थी। अब इनको इस वोट बैंक को बरकरार रखने की चनौती है। किसान आंदोलन के बाद इस क्षेत्र के जाट और मुसलमान फिर से राजनीतिक रूप से करीब आ रहे हैं।

बीजेपी इस राजनीतिक घटनाक्रम को समझ रही है। यही वजह है कि राकेश टिकैत के रोने के बाद पुलिस को वापस बुला लिया गया और किसानों को हटाने की कार्रवाई रोक दी गई। फिलहाल देखना ये है कि बीजेपी और संघ के नेता इस चुनौती से चुनावी साल में कैसे निपटते हैं।

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Shivani Awasthi

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