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अदालतों के गले में अंग्रेजी का फंदा

दुनिया के कई देशों में राजनीति शास्त्र पढ़ने और पढ़ाते वक्त हम कहते रहे हैं कि लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं— विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका

raghvendra
Published on: 19 Feb 2021 6:55 AM GMT
अदालतों के गले में अंग्रेजी का फंदा
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फोटो— सोशल मीडिया

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डॉ. वेद प्रताप वैदिक

दुनिया के कई देशों में राजनीति शास्त्र पढ़ने और पढ़ाते वक्त हम कहते रहे हैं कि लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं— विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका यानी संसद, सरकार और अदालत। मैंने इसमें चौथा स्तंभ भी जोड़ दिया है। वह है— खबरपालिका यानी अखबार, टीवी और इंटरनेट। इन सारे स्तंभों में कुछ न कुछ सुधार हमेशा होता रहता है या इन पर लगाम भी लगाई जाती है लेकिन न्यायपालिका ऐसा खंभा है, हमारे लोकतंत्र का, जो शुरू से खोखला है। अंग्रेजों ने ये अदालतें भारतीयों को न्याय देने के लिए कम, अपना राज बनाए रखने के लिए ज्यादा बनाई हुई थीं। इनमें सुधार के कई सुझाव समय-समय पर कुछ विधि आयोगों और विधि-विशेषज्ञों ने दिए हैं। वे अच्छे हैं। मैं उन्हें रद्द नहीं कर रहा हूं लेकिन हमारी न्याय-व्यवस्था की जड़ों में जो मट्ठा 200 साल से पड़ा हुआ है, उसे साफ करने की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। कानून ही न्याय-व्यवस्था का आधार है।

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भारत का कानून अंग्रेजी में, अंग्रेजों का, अंग्रेजों द्वारा, अंग्रेजी राज के लिए बनाया गया था। वह आज भी ज्यों का त्यों चल रहा है। हमारी संसद और विधानसभाएं उसमें थोड़ी-बहुत घट-बढ़ कर देती हैं। उनके आधार पर अदालतों में जो बहस होती हैं, वे वादी और प्रतिवादी के सिर के ऊपर से निकल जाती हैं, क्योंकि वे अंग्रेजी में होती हैं। वकील लोग जो ठगी करते हैं, उसका तो कहना ही क्या? और फिर सबसे बुरी बात यह कि लाखों मुकदमे 50-50 साल तक अदालत के दालान में पड़े-पड़े सड़ते रहते हैं। इस वक्त हमारी अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लटके पड़े हैं। क्या हमें अंग्रेज विचारक जाॅन स्टुअर्ट मिल का वह प्रसिद्ध कथन याद है कि ‘‘देर से दिया गया न्याय तो अन्याय ही है।’’

इस अन्याय को खत्म करने के लिए सबसे पहला कदम तो यह है कि कानून की शिक्षा हिंदी में हो। अंग्रेजी माध्यम पर प्रतिबंध लगे। दूसरा, संसद और विधानसभाएं अपने कानून स्वभाषा में बनाएं। तीसरा, अदालत की बहसें और फैसले स्वभाषाओं में हो। चौथा, स्वभाषा में कानून की पढ़ाई लाखों वकीलों और हजारों जजों की कमी को शीघ्र पूरा करेगी। पांचवां, आम जनता के लिए अदालती बहस और फैसले जादू-टोना बनने से बचेंगे। छठा, आम आदमियों की ठगी भी कम होगी। स्वभाषाओं में उच्चतम अदालती काम-काज होते हुए मैंने यूरोप, पश्चिम एशिया, चीन और जापान जैसे देशों में तो देखा ही है, अपने पड़ौसी भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान में भी देखा है। ये देश भारत की तरह अंग्रेजों के गुलाम कभी नहीं रहे। हमारी मानसिक गुलामी अभी भी जारी है। हमारी अदालतों के गलों में से अंग्रेजी का फंदा कब हटेगा ?

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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