×

Mountains: चाहा है तुमको, लेकिन

Mountains: लद्दाख वनस्पति विहीन क्षेत्र है , यही कारण है कि वहां भूकंप और भू-स्खलन का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। बार-बार, लगातार होते भू-स्खलन के कारण चट्टानें कमजोर हो जातीं हैं और सड़कें प्रभावित होती हैं, जिससे ट्रैफिक पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 28 Aug 2023 3:26 PM GMT
Mountains: चाहा है तुमको, लेकिन
X
Mountains (photo: social media )

Mountains: "मैं प्रेम के भ्रम के कोष्ठक में बंद समीकरण सुलझाना चाहती थी। मैंने उसकी आंखों में झांका, वहां शांत समुद्र था, कोई लहरें नहीं थी कि कोई अता-पता देती , किसी नए- पुराने प्रेम का।"

ये पंक्तियां चर्चित कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने उपन्यास 'शालभंजिका' में लिखी हैं। यह प्रेमिका का अपने प्रेमी के प्रति अनुभूत अनुभव है। हम भी पहाड़ों को देखकर कुछ ऐसा ही सोचते हैं क्योंकि ये पहाड़ हमें इतना आकर्षित जो करते हैं। ऊंचे-ऊंचे पहाड़, उन पर लंबे-लंबे पेड़, शांत सी बहती हवा और ठंडक का अनुभव। वे पहाड़ इतने शांत दिखाई देते हैं कि अगर हम उन्हें दूर से देखें तो वहां कोई हलचल नहीं दिखाई देती। वे पता ही नहीं लगने देते हैं कि इन पहाड़ों के नीचे कितनी सारी भू-गर्भीय हलचल मची हुई है। लेकिन जब ये पहाड़ दरकते हैं, टूटते हैं, बिखरते हैं, इनमें भू-स्खलन होता है, तब हमें इसके अंदर की हलचल का पता चलता है

इस बार जो सावन बीता तो ऐसा लगा कि वह मानो खुलता तो है पर झट से सिमट भी जाता है। बरसने को तो होता है लेकिन पता नहीं क्या सोचकर इस धरा को बारिश की बूंदे दिखा, खुद को समेट आगे चला जाता है। ऐसा कई बार होता है कि हम बरसात वाले बादलों के नीचे से भी सूखे निकल आते हैं क्योंकि हमारे और उसके दोनों के समय के समीकरण एक साथ मैच नहीं होते हैं। यहीं सब गड़बड़ा जाता है। बादलों को बरसने के लिए हरित क्षेत्र की, पहाड़ों की आवश्यकता होती है। बिना हरीतिमा के चुंबक के वे कैसे खिचेंगे धरती को तृप्त करने। एक मन कहता है कि गाएं , 'सखी रे मुझे लागे रे सावन प्यारा।' पर अगले ही पल यह भीषण गर्मी सावन को सूखा कर जाती है। भले ही सावन के झूले पड़ रहे हों लेकिन यह सिर्फ एक परंपरा का निर्वहन मात्र है । अन्यथा सावन में मौसम का यह परिवर्तन हम सब देख रहे हैं। हम सभी जलवायु-परिवर्तन को देख भी रहे हैं और महसूस भी कर रहे हैं। जगह-जगह बादल फटना, भूस्खलन होना, भूकंप आना जैसी घटनाएं न केवल उन क्षेत्रों की भौगोलिक और प्राकृतिक संरचना को कमजोर करती हैं बल्कि मानवीय जीवन को भी अस्त -व्यस्त कर देती हैं। अभी इन दिनों में हम लगातार देख रहे हैं कि मैदानी इलाकों के लिए जहां सावन सूखा- सूखा खत्म होने जा रहा है तब तीनों पहाड़ी राज्यों जम्मू -कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भारी तबाही मच रही है। ये तीनों ही प्रदेश देश के महत्वपूर्ण और अति व्यस्त पर्यटक स्थलों वालें हैं, जहां पर इस तरह की घटनाएं होने से हजारों- हजार पर्यटक अलग-अलग क्षेत्रों में और सड़कों पर फंस जाते हैं। इन पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार होता पुलों, सड़कों, सुरंगों, बांधों, विद्युत परियोजनाओं का निर्माण और विकास इन क्षेत्रों में विनाश भी ला रहा है। इन दिनों में अनेक ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें रिहायशी मकानों को ताश के पत्तों की मानिंद ढहते देखा जा सकता है।

भूकंप और भू-स्खलन का खतरा हमेशा मंडराता है

जब हम लेह -लद्दाख की बात करते हैं तो लेह- लद्दाख वह क्षेत्र है जिसका एक बड़ा हिस्सा या तो स्थाई बर्फ से या ग्लेशियर से ढका हुआ है। लद्दाख वनस्पति विहीन क्षेत्र है , यही कारण है कि वहां भूकंप और भू-स्खलन का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। बार-बार, लगातार होते भू-स्खलन के कारण चट्टानें कमजोर हो जातीं हैं और सड़कें प्रभावित होती हैं, जिससे ट्रैफिक पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है। लद्दाख जैसे क्षेत्रों में दरअसल पहाड़ काटकर सड़कें बनाने के लिए विस्फोटकों का प्रयोग किया जाता है, जिससे चट्टानों में दरारें आ जाती हैं। जम्मू-कश्मीर में हर साल संपन्न होने वाली अमरनाथ यात्रा तो निष्कंटक कभी भी संपन्न नहीं होती है। हर वर्ष इस यात्रा पर कभी आतंकवादियों की काली छाया पड़ती है तो कभी प्राकृतिक आपदा की मार। इस वर्ष भी जब बाबा बर्फानी की यात्रा शुरू हुई तो ठीक पवित्र गुफा के पास बादल फटने से आए सैलाब में कई टेंट बह गए और 16 से भी अधिक लोगों की मौत हो गई तथा 40 से भी अधिक लोग लापता हो गए। मैं खुद जब आज से 15 वर्ष पूर्व बाबा अमरनाथ के दर्शन पर गई थी, तब चारों तरफ बर्फ ही बर्फ और उस पर लगे वे टेंट मुझे आज भी अच्छे से याद हैं। बाबा बर्फानी की गुफा के ठीक नीचे उतर कर पहले ही टेंट में बर्फ पर नीचे- ऊपर 8-8 कंबलों को लेकर विश्राम की वह एक रात कोई कैसे भूल सकता है। हम सपरिवार भाग्यशाली थे अन्यथा वहां बादल फटने की घटनाओं के कारण बहता सैलाब अनेक जानें लेकर छोड़ता है। तेज बारिश वहां कभी भी यात्रा की बाधा बन खड़ी होती है।

उत्तराखंड में बद्रीनाथ और केदारनाथ की त्रासदी तो अभी तक भी भूली ही नहीं गई है। पिछले दो महीने में ही उत्तराखंड में 75 से अधिक लोगों की मौत प्राकृतिक आपदाओं के कारण हो चुकी है। जिनमें से अधिकांशतः मौत भू-स्खलन के कारण हुई हैं। भारतीय भूस्खलन एटलस के मुताबिक साल 1988 और 2023 के बीच उत्तराखंड में सबसे अधिक भू-स्खलन इस वर्ष हुए हैं, जहां 2022 में 245 भू-स्खलन की घटनाएं हुई थीं ,वहीं इस साल 1,123 भू-स्खलन की घटनाएं हो चुकी हैं। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक पीयूष रौतेला का कहना है कि उत्तराखंड भू-स्खलन समेत प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। बारिश के साथ यह समस्या बढ़ जाती है क्योंकि लगातार वर्षा, ढलान की प्राकृतिक स्थिरता को बिगाड़ देती है। वहीं पौड़ी गढ़वाल के एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर यशपाल सुंदरियाल का कहना है कि इस तरह की घटनाओं के पीछे प्राकृतिक और मानवीय दोनों ही कारण हैं। बारिश के पैटर्न में बदलाव, बादल फटने, अचानक बाढ़ और मूसलाधार बारिश जैसे चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि और पहाड़ों में सड़क और सुरंग निर्माण तथा बुनियादी ढांचे के विकास के कारण यह स्थिति पैदा हुई है। जो भारत आज मात्र 615 करोड़ रूपये के लागत वाले चंद्रयान-3 और मात्र 215 करोड़ रुपये की लागत वाले लैंडर, रोवर और प्रोपल्शन मॉड्यूल को सफलतापूर्वक चंद्रमा के दक्षिण छोर पर उतार चुका है , उसी भारत को हर वर्ष हिमालय पर्वत के अलग-अलग क्षेत्रों में भूस्खलन के कारण 820 करोड रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। इस नुकसान की भरपाई किसी भी हाल में संभव नहीं हो सकती। हां, कम की जा सकती है अगर इसके लिए देश के भूगर्भ और प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक मिलकर प्रयास करें तो। और उससे भी अधिक बढ़कर है कि उन प्रयासों को हमारी सरकारें और लालफीताशाही अफसरों के साथ-साथ देश की जनता भी ईमानदारी से मानें।

तबाही प्राकृतिक से अधिक मानव निर्मित

इन पहाड़ी प्रदेशों में आ रही तबाही प्राकृतिक से अधिक मानव निर्मित है, यह हम सभी जानते हैं। क्या हम सोच भी सकते हैं कि कुल्लू जैसे पहाड़ी क्षेत्र में 8-8 मंजिला इमारतों का निर्माण किया गया है, जिनके ढहने से कितनी ही जानों और माल का नुकसान हुआ होगा और हो सकता है। विभिन्न रिपोर्ट और सर्वे बताते हैं कि शिमला जैसे सभी बड़े पर्यटक स्थल पर्यटकों की बेहिसाब आवाजाही के बोझ तले दब गए हैं। पर्यटकों की अधिक आवाजाही के कारण अधिक रिहायशी और बहुमंजिला इमारतों का निर्माण किया जा रहा है, जिसके लिए भूमि कटाव ज्यादा हो रहा है। अत्यधिक भूमि कटाव को और पर्यटकों के अधिक बोझ को ये पहाड़ सहन नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण हम इन दिनों में इतनी अधिक हादसों की खबरें सुन रहे हैं। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग का एक सर्वेक्षण बताता है कि जिस शिमला शहर में सन् 2005 में मात्र 20,000 वाहन थे, वहां अब बढ़कर 1,30,000 हो गए हैं। जिस शहर की आबादी सन् 1864 में ब्रिटिश शासन के दौरान मात्र 25,000 थी, वह भी बढ़कर 3 लाख तक पहुंच गई है। तीनों प्रदेशों के सभी पर्यटक स्थलों की यही स्थिति है कि वे ओवरक्राउडिंग के संकट से जूझ रहे हैं। इन्हीं सब खबरों के बीच एक और दुखद खबर यह भी आई थी कि कांगड़ा के जल शक्ति विभाग के जूनियर इंजीनियर राजेश चौधरी भी बारिश के इस तेज बहाव में बह गए।

विशेषज्ञों का कहना है कि रिस्क मैप्स, भूस्खलन संवेदनशीलता और भूस्खलन भेद्यता मानचित्र बनाकर, भू-तकनीकी अध्ययन से पहाड़ो में रहवास को सुरक्षित बनाने की जरूरत है। पहाड़ों पर सावधानीपूर्वक योजना बनाना जरूरी है क्योंकि बेतरतीब विकास आपदा को न्योता देते हैं। हिमालयी राज्य चाहे वह उत्तराखंड हो या हिमाचल प्रदेश ढलान पर बने हैं। प्रत्येक क्षेत्र में ढलान, वक्रता, रॉक लिथोलॉजी, रॉक स्ट्रेंथ आदि के अलग-अलग परिमाण होते हैं, इसलिए भू-तकनीकी अध्ययन हिमालय क्षेत्र में भारी वर्षा और भूस्खलन की घटनाओं में सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। दरअसल, पर्यटन को बढ़ावा देने की चाहत में, हमने पर्याप्त भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिकी की परवाह किए बिना तेजी से हाईवेज का निर्माण किया, जिसके परिणामस्वरूप इन पहाड़ों की ढलानें कमजोर होती जा रही हैं। जैसे-जैसे जलवायु -परिवर्तन के साथ बारिश की तीव्रता बढ़ती है, इस प्रकार की आपदाएं दिखना शुरू हो जाती हैं।

'चाहा है तुमको, लेकिन। संवारें कैसे, अभी तक आया ही नहीं।'

पहाड़ों से किन्हें प्यार नहीं होता है। तो पहाड़ों से प्यार करने का तरीका सिर्फ उन पर घूम कर आना ही नहीं बल्कि उनको खत्म होने से बचाना भी है। पहाड़ों के अतिरिक्त अन्य पर्यटक स्थलों पर भी पर्यटकों की आवाजाही होनी चाहिए ,जिससे पहाड़ों पर पर्यटकों का दबाव कम बने। बारिश और जलवायु परिवर्तन की असमानताओं के कारण देवदार के वृक्षों की लंबाई भी पहले के मुकाबले कम होती जा रही है। हम पहाड़ों को पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित करने में इतना न खो जाए कि हम पहाड़ों को ही खों दे।

सावन का दो महीने का लंबा समय खत्म होने आ रहा है। ऐसे में दुष्यंत कुमार की इन दो पंक्तियों के साथ इस लेख का अंत करती हूं क्योंकि सावन प्रेम, पहाड़, बारिश और हरियाली यह सब एक दूसरे के पूरक हैं और यही हमारे सावन के महीने के प्यार में डूब जाने के, फिसल जाने के कारण भी हैं।

'फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए,

हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है।'

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

Anshu Sarda Anvi

Anshu Sarda Anvi

Next Story