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लाख कोशिश करके देख लें, गांधी को मार नहीं पायेंगे जनाब!

धर्म की ताक़त का इस्तेमाल कर महात्मा गांधी भारत को जगाना चाहते थे। लेकिन अधर्म करने वालों को रोके कौन? रोके कैसे? ऐसे लोग जो भाषा समझते है, वह गांधी की नहीं हो सकती। लेकिन जो भाषा बोलते हैं वह भी गांधी के लिए नहीं हो सकती। आसमान पर थूकने की कहावत का फल भुगतना पड़ता है।

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Published on: 23 Aug 2020 7:26 PM IST
लाख कोशिश करके देख लें, गांधी को मार नहीं पायेंगे जनाब!
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योगेश मिश्र

मैं जब भी सोशल मीडिया पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में कुछ भी सकारात्मक लिखता हूँ। तो बड़ी संख्या में सोशल मीडिया पर बैठे अन पढ़ लोगों की टीम हमें ट्रोल कर लेती है। कई तो लक्ष्मण रेखा लांघ जाते हैं। कई शिशुपाल की तरह सौंवी गलती करने की गलती कर बैठते हैं। पर हमें ऐसे लोगों के लिए हमेशा गांधी के बताये रास्ते पर ही चलना चाहिए। हमें रास्ता बदलना नहीं चाहिए।

चर्चा में गांधी का चश्मा

इन दिनों जब यह खबर दुनिया भर में सुर्ख़ियों में है कि बापू के चश्मे कि ब्रिलियंस में नीलामी हुई। जिसे अमेरिका के कलेक्टर ने 2.55 करोड़ रूपये में ख़रीदा। नीलामी एजेंसी ईस्ट ब्रिस्टल ऑक्शन कंपनी ने बापू के चश्मों की नीलामी का अनुमान 14 लाख रूपये से कुछ अधिक लगाया था।

इस कंपनी के इतिहास में यह सबसे अहम नीलामी है। यह चश्मा गांधी जी के चाचा जी ने दक्षिण अफ़्रीका में काम करने के दौरान उन्हें दिया था। यह काल 1910 से 1930 के बीच का बैठता है।

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इस नीलामी एजेंसी को यह चश्मा बीते 3 अगस्त को एक सादे लिफ़ाफ़े में मिला था। जहां किसी ने उसे लावारिस छोड़ दिया था। यह पहला चश्मा था, जिसे गांधी जी ने पहना था।

74 साल बाद भी जिंदा

इस खबर के बाद हमें लगता है कि जो लोग बापू के बारे में कुछ भी कहते हैं, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि गांधी मरने के तक़रीबन 74 साल बाद तब ज़िंदा हैं, जब कि उन्हें मारने की लगातार कोशिश जारी है।

जो लोग गांधी का विरोध कर रहे हैं वह ज़रा ठहर कर सोचें कि मरने के 70 घंटे बाद भी ज़िंदा रह पायेंगे कि नहीं। गांधी को लेकर टुच्ची आलोचना करने वालों के तर्क सही होते तो क्या गांधी पर दुनिया में सबसे अधिक किताब लिखी जाने का रिकार्ड होता?

दुनिया के किसी एक आदमी पर इतनी किताबें नहीं लिखी गयी हैं। किसी एक आदमी पर इतनी फ़िल्में नहीं बनी हैं, जितनी अकेले गांधी पर बनी हैं।

गांधी की स्वीकार्यता

दुनिया के जितने देशों में गांधी किसी न किसी रूप में स्वीकार्य हैं, उतने देशों में दुनिया का कोई दूसरा शख़्स स्वीकार्य नहीं है। गांधी समाधि पर जितने लोग आते हैं, उतने लोग दुनिया के किसी देश के किसी शख़्सियत की समाधि पर नहीं पहुँचते।

इसके पहले भी महात्मा गांधी की कई चीजें नीलाम हो चुकी हैं। सब विदेश में ही नीलाम की गयी हैं। अमेरिका में 2012 में गाँधी जी के हस्ताक्षर किए हुए नोट्स, पत्र और एक खादी का कपड़ा 50 हजार डालर में नीलाम हुए। इन चीजों के खरीदार भारत, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका और यूरोप के लोग रहे जिनकी पहचान नहीं बताई गयी।

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गांधी जी का हस्ताक्षर किया हुए एक पत्र जिस पर 3 अक्टूबर , 1933 की तारीख पड़ी है। पत्र में गांधीजी कैथोलिक ईसाइयों और दुनिया भर के धर्मों पर चर्चा की है। यह पत्र 15,860 डॉलर में नीलाम हुआ।

इस पत्र में गांधीजी लिखते हैं, “रोमन कैथोलिकों में मेरे कई बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैंने रोमन कैथोलिक धर्म के बारे में काफी पढ़ा भी है। फिर भी मोटे तौर पर मैं यह मानता हूं कि व्यक्ति जिस धर्म और विश्वास का पालन करता है, उसमें उसके विकास की भरपूर संभावनाएं होती हैं।”

ब्लड रिपोर्ट दस हजार से अधिक डॉलर में

गांधीजी की ब्लड रिपोर्ट को 10,370 डॉलर में नीलाम हुई। इस पर दिल्ली के इरविन अस्पताल के पैथोलाजी विभाग के निदेशक बीएल तनेजा के हस्ताक्षर हैं। गांधीजी का एक खादी का कपड़ा 4,270 डॉलर में नीलाम हुआ।

गांधीजी की 60 तस्वीरें भी नीलाम हुईं जिनके लिए 4,880 डॉलर मिले। इनमें गांधीजी को लंदन में कांग्रेस के नेताओं के साथ दिखाया गया है। कई और विश्व नेता भी उनके साथ हैं।

चीन की क्रांति के नेता माओ का एक पत्र 7 लाख 37 हजार डॉलर यानी करीब सवा पांच करोड़ रुपये में नीलाम हुआ था। यह पत्र माओ ने 1937 में ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेता क्लीमेंट एटली को लिखा था।

वैज्ञानिक एल्बर्ट आईन्सटाइन द्वारा 1939 में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को लिखा पत्र 21 लाख डॉलर में नीलाम हुआ है। हॉलीवुड स्टार मर्लिन मुनरो की ड्रेस 12,67,500 डॉलर, आज के दाम में 9 करोड़ 74 लाख रुपये में 1999 में अमेरिका में नीलाम हुई। इस ड्रेस को मुनरो ने प्रेसिडेंट जॉन एफ केनेडी के जन्मदिन के अवसर पर पहना था। 2016 में इसे करीब 49 लाख डॉलर में नीलाम किया गया था।

दस बायोपिक

गाँधी पर अब तक बड़ी और नामचीन दस बायोपिक फ़िल्में बन चुकी है। गांधी जी के जीवन पर आधारित पहली फ़िल्म “महात्मा गाँधी : ट्वेंटीयथ सेंचुरी प्रोफेट “ है। यह 1953 में अमेरिकन डाक्यूमेंट्री फिल्म थी। जिसे स्टैनले नील ने निर्देशित किया था।

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दूसरी ब्रिटिश फ़िल्म 1963 में बनी “ नाइन आवर्स टू रामा “ है। जिसे मार्क रोब्सन ने निर्देशित किया है। इस फिल्म में गाँधी की हत्या के पहले नाथूराम गोडसे के जीवन के 9 घंटों का वर्णन है। इस फ़िल्म में सिर्फ ब्रिटिश, जर्मन और अमेरिकन कलाकार थे। इसने 10 लाख डॉलर की कमाई की थी।

तीसरी फ़िल्म 1968 में बनी “महात्मा : लाइफ ऑफ़ गाँधी” थी। यह भी एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म थी। इसे विठल भाई झवेरी ने निर्देशित किया था। इस फिल्म का अंग्रेज़ी वर्जन 5 घंटे और हिंदी वर्जन 2 घंटे 20 मिनट का था।

चौथी 1982 में बनी रिचर्ड एटनबरो निर्देशित फ़िल्म “गांधी” थी। इसके लीड एक्टर बेन किंग्सले थे। 22 मिलियन डॉलर में बनी इस फ़िल्म ने 127.80 मिलियन डॉलर की रिकार्डतोड़ कमाई की थी।

पता चला जिंदगी पर गहरा प्रभाव

बेन किंग्सले ने कहा था कि इस फ़िल्म के लिए रिसर्च करने पर उनको गाँधी जी और उनके विचारों का पता चला जिसने उनकी जिन्दगी पर गहरा प्रभाव डाला है।

पाँचवीं 1996 में बनी “ द मेकिंग ऑफ महात्मा “थी। यह भारत और साउथ अफ्रीका के सहयोग से बनी थी । जिसका निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया था। इस फिल्म में गांधी जी के साउथ अफ्रीका में बिताये गए 21 वर्षों का वर्णन किया गया है। इसमें रजित कपूर ने गाँधी का किरदार निभाया है।

छठवीं 2000 में कमल हसन निर्देशित “ हे राम” फ़िल्म है। यह भारत के बंटवारे और गाँधी जी कि हत्या पर आधारित है। 6 करोड़ रूपये में बनी इस फिल्म ने करीब 11.5 करोड़ रूपये की कमाई की थी।

कुछ अन्य फिल्में

सातवीं फ़िल्म 2007 में बनी। “गांधी माय फादर” नाम की इस फ़िल्म को फ़िरोज़ अब्बास खान ने डायरेक्ट की थी। इसमें गाँधी और उनके पुत्र हीरालाल के रिश्तों को बताया गया है। हीरालाल की भूमिका अक्षय खन्ना ने निभाई है।

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ठीक चार साल बाद 2011 में अगली फ़िल्म बन गयी। “ गांधी टू हिटलर” नाम की इस फ़िल्म को राकेश रंजन कुमार ने निर्देशित किया हैं। यह फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गाँधी जी द्वारा हिटलर को लिखे पत्रों पर आधारित है। इसमें अविजित दास ने गाँधी की भूमिका निभाई है।

वर्ष 2012 में “ वेलकम बैक गांधी” फ़िल्म आ गयी। जिसे ए. बालाकृष्णन ने निर्देशित किया है। ए. कनागराज ने गाँधी की भूमिका निभाई है। यह एक फंतासी फिल्म है, जिसमें दिखाया गया है कि मृत्यु के 60 साल बाद गांधी फिर आ गये।

तीन हजार छोटी बड़ी किताबें

गांधी पर छोटी बड़ी तक़रीबन 3000 किताबें हैं। कुछ मुख्य किताबों में देश विदेश में अलग अलग भाषाओँ में 300 से प्रकाशित पुस्तकें हैं। इनमें रामचंद्र गुहा की”गाँधी : द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड” एवं “गाँधी बिफोर इंडिया “है।

जूडिथ एम ब्राउन की किताब “गाँधी : प्रिजनर ऑफ़ होप”, आर के नारायण की किताब “वेटिंग फॉर द महात्मा”, लुइस फ़िशर की किताब “गाँधी : हिज लाइफ एंड मेसेज फॉर द वर्ल्ड“ शामिल है। इसी किताब पर ‘गाँधी’ फिल्म बनी थी।

चार्ल्स एफ एंड्रू व अरुण गाँधी की “महात्मा गाँधी : हिज लाइफ एंड आइडियाज”, मार्टिन बर्गेस ग्रीन की “गाँधी : वोइस ऑफ़ नई एज रेवोलुशन”, परे एंथनी की “गाँधी : हिन्द स्वराज “, आर बक्षी की “बापू कुटी : जर्नी इन रि डिस्कवरी ऑफ़ गाँधी”, पी. ब्रोक की “महात्मा गाँधी एज अ लिंगविस्टिक नेशनलिस्ट“, एस. चन्द्र की “गाँधी एक असंभव सम्भावना”, एन. देसाई की “माय लाइफ इज माय मेसेज”, एफ. देवजी की “द इम्पॉसिबल इंडियन : गाँधी एंड द टेम्पटेशन ऑफ़ वायलेंस” शामिल हैं।

सौ से ज्यादा देश जारी कर चुके डाक टिकट

गांधी जी के सम्मान में सौ से ज्यादा देश डाक टिकट जारी कर चुके हैं। सबसे पहला टिकट 2 अक्तूबर , 1949 को गांधी जी की 80 वीं वर्षगांठ पर भारत में जारी किया जाना था। लेकिन गांधी जी की हत्या हो जाने के कारण टिकट रिलीज न हो सका। अंततः इसे 15 अगस्त 1948 को जारी किया गया। यह टिकट स्विट्ज़रलैंड में मुद्रित हुआ था।

भारत के बाद अमेरिका ने 26 जनवरी, 1961 को डाक टिकट जारी किया। 1967 में अफ्रीकी देश कोंगों ने गांधी पर टिकट जारी किया। 1969 में गांधी जी की सौंवीं जयंती पर 40 से अधिक देशों ने डाक टिकट जारी किए। पोलैंड पहला देश था, जिसने गांधी जी पर पोस्ट कार्ड जारी किया।

यूनाइटेड नेशंस ने 2 अक्तूबर, 2009 को गांधी पर डाक टिकट जारी किया था। गांधी जी की 150 वीं जयंती पर 2019 में फ्रांस, उज्बेकिस्तान, टर्की, फिलिस्तीन और मोनाको समेत 69 देशों ने डाक टिकट जारी किए थे।

महात्मा गांधी की प्रतिमाएँ भारत ही नहीं बल्कि 70 से ज्यादा देशों-स्पेन, साउथ अफ्रीका, यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, साइप्रस, स्विट्ज़रलैंड, डेन्मार्क, तजाकिस्तान, चीन, मारीशस, सूरीनाम, साउथ कोरिया, पोलैंड आदि में हैं।

भारत आने से पहले गांधी जी ने साउथ अफ़्रीका में काफ़ी नाम कमाया था। वह 1893 भारतीय फर्म के लिये केस लड़ने दक्षिण अफ्रीका रवाना हुए।

1894 रंगभेद का सामना करना पड़ा। इसके बाद उन्होंने वहीं रहकर समाज कार्य तथा वकालत करने का फैसला कर - नेटाल इण्डियन कांग्रेस की स्थापना की।

भारतीय एम्बुलेंस सेवा

1899 में ब्रिटिश सेना के लिये बोअर युद्ध में भारतीय एम्बुलेन्स सेवा तैयार की।

1906 जुलु विद्रोह के दौरान भारतीय एम्बुलेन्स सेवा तैयार की। एशियाटिक आर्डिनेन्स के विरुद्ध जोहान्सबर्ग में प्रथम सत्याग्रह अभियान आरम्भ किया। 1907 ब्लैक एक्ट - भारतीयों तथा अन्य एशियाई लोगों के ज़बरदस्ती पंजीकरण के विरुद्ध सत्याग्रह किया।

मई 1910 में जोहान्सबर्ग के निकट टाल्स्टाय फार्म की स्थापना की। 1913 रंगभेद तथा दमनकारी नीतियों के विरूद्ध द ग्रेट मार्च का नेतृत्व किया। अप्रैल 1893 में वो नाटाल, साउथ अफ्रीका में एक फर्म में बतौर वकील नौकरी करने चले गये। उसके बाद वो 21 साल तक साउथ अफ्रीका में रहे।

सत्याग्रह, गांधी जी के दर्शन का मूल है। इस शब्द का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की सरकार के काले कानून का अहिंसक आधार पर दृढ़ता से विरोध करने का निश्चय किया था।

इसी आन्दोलन को बाद में नेल्सन मंडेला ने अपना हथियार बनाया। गांधी के सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह के जरिये साउथ अफ्रीका से नस्ल भेद – रंगभेद को समाप्त किया।

घर में थीं दो ही फोटो

दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों में से एक माने जाने वाले अल्बर्ट आइंस्टीन के घर में महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटज़र और महात्मा गांधी की ही फोटो टंगी रहती थी। आइंस्टीन ने उस समय कहा था- ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।”

आइंस्टीन महात्मा गांधी से उम्र में केवल 10 साल छोटे थे। दोनों कभी एक-दूसरे से मिले नहीं । लेकिन आइंस्टीन ने 27 सितंबर, 1931 को वेल्लालोर अन्नास्वामी सुंदरम् के हाथों गांधीजी को एक चिट्ठी भेजी थी।

आइंस्टीन ने लिखा –

‘अपने कारनामों से आपने बता दिया है कि हम अपने आदर्शों को हिंसा का सहारा लिए बिना भी हासिल कर सकते हैं। हम हिंसावाद के समर्थकों को भी अहिंसक उपायों से जीत सकते हैं। आपकी मिसाल से मानव समाज को प्रेरणा मिलेगी।

अंतर्राष्ट्रीय सहकार और सहायता से हिंसा पर आधारित झगड़ों का अंत करने और विश्वशांति को बनाए रखने में सहायता मिलेगी। भक्ति और आदर के इस उल्लेख के साथ मैं आशा करता हूं कि मैं एक दिन आपसे आमने-सामने मिल सकूंगा।’’

महानता आचरण व सत्यवादिता में

गांधी की महानता उनके आचरण में हैं। उनके सिद्धांतों की सत्यवादिता में है। उन्होंने कभी किसी ऐसी चीज का प्रचार नहीं किया जिसका अभ्यास और आचरण उन्होंने अपने जीवन में न किया हो।

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इसी वजह से उनके परिवार को काफी कुछ झेलना पड़ा। उनकी पत्नी कस्तूरबा ने बहुत भुगता, बहुत सहा। दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के समय एक बार सत्याग्रह के दौरान वे गिरफ्तार हुए। कस्तूरबा बीमार पड़ गयीं।

पैरोल लेकर पत्नी के साथ रहने की सलाह गांधी जी को दी गई । लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। उन्होंने पत्नी कस्तूरबा को लिखा,”अगर वह साहस बनाए रखें। पौष्टिक भोजन लें तो वह जल्द ही ठीक हो जाएंगी।

उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि जुदाई में जान देना उनकी उपस्थिति में जान देने से अलग होगा।’’

भाड़े के लोगों को महानता से नहीं मतलब

इन सबकी गांधी के ख़िलाफ़ मुँह खोलने वालों को ज़रूरत नहीं है। वे भाड़े पर हैं। इन्हें गांधी जी की महानता से क्या लेना देना। गांधी जीवन पर्यन्त सच के साथ जिये।

जिन लोगों को यह लगता है कि गांधी जी के नाते पाकिस्तान को पैसा देना पड़ा, उन्हें भारत की आज़ादी के दस्तावेज उठाकर पढ़ना चाहिए। उसी दस्तावेज में पैसा देने की बात कही गयी है। जो धनराशि लिखी गयी है, उसका एक हिस्सा दिया भी जा चुका था।

गांधी जी ने कोई नई शर्त हिंदू या मुसलमान के पक्ष में नहीं रखी थी। इन दिनों खुद को हिंदू साबित करने का चलन फ़ैशन में है। इस जमात के लोग गांधी जी पर ज़्यादा आक्रामक होते हैं।

इन्हें यह जानना ज़रूरी है कि गांधी जी कभी यह बताने में गुरेज़ नहीं करते थे कि उनकी आस्था हिंदू धर्म में है। वह खुद को अच्छा हिंदू स्वीकारते थे। वह धर्म परायण शक्ति में विश्वास रखते थे। धर्म के प्रतीकों व तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे।

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धर्म की ताक़त का इस्तेमाल कर वह भारत को जगाना चाहते थे। लेकिन अधर्म करने वालों को रोके कौन? रोके कैसे? ऐसे लोग जो भाषा समझते है, वह गांधी की नहीं हो सकती। लेकिन जो भाषा बोलते हैं वह भी गांधी के लिए नहीं हो सकती। आसमान पर थूकने की कहावत का फल भुगतना पड़ता है।

( लेखक योगेश मिश्र, न्यूज़ ट्रैक/ अपना भारत के संपादक है।)

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