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संस्मरण-एक सुबह महान गायक रफ़ी साहब के साथ
देश दुनिया के करोड़ो लोगों के दिल में बसे रफ़ी साहब हम लोगों को आज ही के दिन 31 जुलाई 1980 को रोता तन्हा छोड़ कर बहुत दूर चले गए थे।
आज उनकी 40वी पुण्य तिथि है। आज ही के दिन इस सदी के जिनको कुछ लोग साक्षात ईश्वर की प्रतिमूर्ती मानते है ऐसे ज़हीन, सबके दिल अज़ीज़ महान गायक मोहम्मद रफ़ी साहब इस दुनिया से रुखसत कर गए थे। देश दुनिया के करोड़ो लोगों के दिल में बसे रफ़ी साहब हम लोगों को 31 जुलाई 1980 को रोता तन्हा छोड़ कर बहुत दूर चले गए थे।
ऐसे मिला काम
उस दिन पूरी मुंबई उनके जाने के गम में बरसात रूपी आंसूओं से तरबतर हो गयी थी। ऐसे थे हमारे प्यारे रफ़ी साहब। दिल इतना कोमल की क्या कहने। एक बार कार से कहीं जा रहे थे एक फ़क़ीर को गंदे कपड़ो में उन्ही के गाये किसी गाने को गाते हुए सुना तुरंत गाड़ी रोक कर उसे गाड़ी में बिठाकर घर ले आये नहलाया नए कपड़े दिए। खाना खिलाया ,बख़्शीश दी फिर रुख़सत किया। रफी साहब की वजह से कई गरीबो के घरों में चूल्हा जलता था। न जाने कितने ऐसे प्रकरण हैं जो इंसानियत के उस मुकाम पर उनको ले जाता है जो उनको भगवान के समकक्ष खड़ा करता है।
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उनके लिए कोई भी काम छोटा नही था। नौशाद साहब महान संगीतकार जिनका वास्ता लखनऊ से था. एक इंटरव्यू में बताते हैं कि रफ़ी साहब जब मेरे पास काम मांगने आये तो पहले तो मैंने कह दिया कोई काम नही है। रफ़ी साहब ने कहा कोई भी काम गायकी का चलेगा। तब मैंने कहा कुंदन लाल सहगल का एक गाना है फ़िल्म शाहजहां का "मेरे सपनों की रानी रूही रूही रूही" जिसमें कोरस में चांस है। उसके 10रु मिलेंगे। रफी साहब सहर्ष तैयार हो गए।
रफी साहब का वो आखिरी गीत
रफ़ी साहब को एक कविता फ़िरोज निज़ामी ने गवाया था। जब वो केवल 13 साल के थे लाहौर रेडियो स्टेशन से। इसके बाद रफ़ी साहब की गिनती लाहौर स्टेशन के सम्मानित गायकों में होने लगी थी। उस ज़माने में लाहौर भी फिल्म इंडस्ट्री का मरकज़ हुआ करता था। उसी इंडस्ट्री की एक फिल्म थी "गुलबालोच" जिसमें रफ़ी साहब को गाने का मौका मिला। फिल्म "गुलबालोच" एक पंजाबी फिल्म थी और रफ़ी साहब के लिए पहला गाना था - "सोणी हीरीए तेरी याद ने बहुत सताया" था। ज़ीनत बेगम के साथ संगीतकार श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में यह उनका पहला दोगाना था। नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में मोहम्मद रफ़ी का आखिरी गाना अली सरदार जाफरी द्वारा लिखित फिल्म "हब्बा खातून" के लिए था।
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गाने के बोल थे -'जिस रात के ख्वाब आए वह रात आई'। इस गाने के बाद मोहम्मद रफ़ी साहब नौशाद साहब के गले लिपटकर रो पड़े थे, उन्होंने उनसे कहा था- "नौशाद साहब एक मुद्दत बाद एक अच्छा गीत गाया। आज बहुत सूकून मिला, अब जी चाहता है कि इस भरी पूरी दुनिया को छोड़कर चला जाऊं''। इस गाने का मुआवजा रफ़ी साहब ने नौशाद साहब के लाख इसरार पर भी नहीं लिया और उसी के अगले दिन नौशाद साहब को ख़बर मिली कि मोहम्मद रफ़ी का इंतेकाल हो गया। ऐसी शख्सियत जिसकी कोई मिसाल नहीं, सारी दुनिया उनकी कायल वो फ़क़ीर के मानिंद थे।
रफी साहब से वो पहली मुलाकात
उनसे हमारी बरबस न भुलाने वाली मुलाकात आज भी मनोस्मृति में ऐसे रच-बस गई है जैसे वो कल की ही बात हो। यह मुलाकात हमारी 1977 की है। जब लखनऊ में रफ़ी साहब की पहली और आखिरी म्यूजिकल नाईट थी। मैं उस समय काफी छोटा था। लेकिन रफ़ी साहब के गीतों के प्रति अव्वल दर्ज़े की दीवानगी थी। जब उनके लखनऊ में आने की जानकारी मिली तो मिलने की ख्वाइश ,कैसे मिला जाए। भगवान ने मेरी रफ़ी साहब के प्रति श्रद्धा और मिलने की प्रबल इच्छा को अंजाम तक पहुँचाया। हुआ यह कि इस म्यूजिकल नाईट के जो म्यूजिक अरेंजर थे वो हमारे परिचित निकले। उनसे जब हमने इच्छा जाहिर की तो उन्होंने मुझे सुबह 7 बजे होटल क्लार्क अवध में बुलाया जहां रफ़ी साहिब रुके थे।
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उन्होंने रिसेप्शन पर इंतज़ार करने को कहा। ठीक 7.30बजे रफ़ी साहिब हमारे सामने थे। मुझे तो बस यह एक सपना लग रहा था। जब मेरा उनसे परिचय कराया गया तो मैं उनको अपने सामने पाकर, विश्वास ही नही हो रहा था कि रफ़ी साहब जिनके गानों को सुनकर बेइंतहा सुकून मिलता जो हमारे लिए भगवान तुल्य थे वो मुझसे रूबरू थे। मैं कुछ बोल नही पा रहा था। मैं उनके कदमों में झुककर प्रणाम किया तो उन्होंने पिता तुल्य प्यार देते हुए कहा बेटा तुम क्या करते हो? मैंने कहा सर ,पढ़ता हूँ। आगे उन्होंने कहा खूब पढ़ाई करो,खूब तरक्की करों। वह बहुत धीरे धीरे बोलते थे। बहुत ही मधुर अवाज़ थी। लेकिन अंदाज़ उनका बोलने का पंजाबी था।
हमेशा याद रहेंगे रफी साहब और उनके नग़मे
आज बेशक रफी साहब हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। लेकिन उनकी खूबसूरत नग्में आज भी हमारी यादों में ताजा हैं। नौशाद और हुस्नलाल भगतराम ने रफी की प्रतिभा को पहचाना और खय्याम ने फिल्म 'बीवी' में उनसे गीत गवाए। बीबीसी के एक लेख के मुताबिक, खय्याम याद करते हैं, "1949 में मेरी उनके साथ पहली गजल रिकॉर्ड हुई जिसे वली साहब ने लिखा था। अकेले में वह घबराते तो होंगे, मिटाके वह मुझको पछताते तो होंगे। रफी साहब की आवाज के क्या कहने। जिस तरह मैंने चाहा उन्होंने उसे गाया। जब ये फिल्म रिलीज हुई तो ये गाना रेज ऑफ द नेशन हो गया।" बैजू-बावरा में प्लेबैक सिंगिंग करने के बाद रफी ने पीछे मुड़ कर नही देखा।
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संगीतकार नौशाद मोहम्मद रफी के बारे में एक दिलचस्प किस्सा सुनाते थे। एक बार एक अपराधी को फांसी दी जी रही थी। उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि वो मरने से पहले रफी का बैजू बावरा फिल्म का गाना 'ऐ दुनिया के रखवाले' सुनना चाहता है। अपराधी की ख्वाहिश पूरी करने के लिए टेप रिकॉर्डर लाया गया और उसको वो गाना सुनाया गया। रफी साहब जैसा इंसान शायद कभी पैदा नही होगा। उनको मैं श्रद्धा पूर्वक सादर नमन करता हूं।