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शिक्षा में क्रांति का तरीका

राज्यपालों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े पते की बात कह दी। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति सरकार की नीति नहीं है, देश की नीति है।

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Published on: 9 Sept 2020 1:02 PM IST
शिक्षा में क्रांति का तरीका
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शिक्षा में क्रांति का तरीका (social media)

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

नई दिल्ली: राज्यपालों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े पते की बात कह दी। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति सरकार की नीति नहीं है, देश की नीति है। बिल्कुल वैसे ही जैसी कि विदेश नीति या रक्षा नीति होती है। उन्होंने शिक्षा नीति पर सर्वसम्मति की मांग की है लेकिन कुछ विपक्षी दल इस नई शिक्षा नीति में सुधार के लिए रचनात्मक सुझाव देने की बजाय उसकी भर्त्सना करने में जुटे हुए हैं। प. बंगाल के एक तृणमूल-नेता ने कह दिया कि उनकी सरकार इस नीति को इसलिए लागू नहीं करेगी कि बांग्ला-भाषा को प्राचीन या शास्त्रीय भाषा का दर्जा क्यों नहीं दिया गया ? उनसे कोई पूछे कि बांग्ला को यह दर्जा दिया जाए तो देश की अन्य दर्जन भर भाषाओं को भी क्यों नहीं दिया जाए ? अब संसद के सत्र में इस नई शिक्षा नीति पर जमकर बहस होगी।

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नई शिक्षा नीति की प्रशंसा में अगणित लेख लिखे गए हैं

इस नई शिक्षा नीति की प्रशंसा में अगणित लेख लिखे गए हैं और विशेषज्ञों ने अपनी शंकाएं और आपत्तियां भी दर्ज करवाई हैं। प्रधानमंत्री का आश्वासन है कि सरकार उन पर पूरा-पूरा ध्यान देगी। इस नई शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। यह अत्यंत सराहनीय कदम है लेकिन असली सवाल यह है कि संसद, सरकार और अदालतों के सभी महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेजी में होंगे तो मातृभाषा के माध्यम से अपने बच्चों को कौन पढ़ाएंगे ? ये लोग वही होंगे, जो ग्रामीण हैं, गरीब हैं, किसान हैं, पिछड़े हैं, आदिवासी हैं, मजदूर हैं। जो मध्यम वर्ग के हैं, ऊंची जात के हैं, शहरी हैं, पहले से सुशिक्षित हैं, वे तो अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाएंगे। नतीजा क्या होगा ?

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भारत के दो मानसिक टुकड़े हो जाएंगे

भारत के दो मानसिक टुकड़े हो जाएंगे। एक भारत और दूसरा इंडिया। यदि इस विभीषिका से बचना है तो बच्चों की पढ़ाई में से अंग्रेजी माध्यम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा, जैसा कि मादक द्रव्यों पर है। अंग्रेजी माध्यम पर यदि प्रतिबंध नहीं लगा तो तथाकथित पब्लिक स्कूलों की बाढ़ आ जाएगी। इसी तरह विदेशी विश्वविद्यालयों की भी भारत में भरमार हो जाएगी और वे वर्गभेद बढ़ाएंगे। जहां तक 'पढ़ते की विद्या' के साथ-साथ 'करते की विद्या' सिखाने की बात है, इससे बढ़िया पहल क्या हो सकती है लेकिन जब तक देश में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का भेद कम नहीं होगा, कामधंधों का प्रशिक्षण लेनेवाले छात्र व्यावसायिक क्षेत्र में 'शूद्र' ही बने रहेंगे। दूसरे शब्दों में शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन तभी होगा, जबकि समाज के मूल ढांचे में हम आधारभूत बदलाव लाएंगे।

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