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नए साल पर चुनौतियों से ट्वेंटी-ट्वेंटी जरूरी
रतिभान त्रिपाठी
नए साल पर देश भर में उल्लास है लेकिन समस्याओं का अंबार भी सामने है। जैसा नाम है 2020, लगता है नया साल ऐसे ही हालात से गुजरेगा। आगाज जब देश भर में फैले भ्रम के कुहासे के बीच हो रहा है तो अंजाम कैसा होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए इस कुहासे को छांटना होगा। बीता साल चुनौतियों से जूझते हुए ऐसे समाधान दे गया जो राजनीतिक और सामाजिक रूप से अपेक्षित थे। लेकिन समाधान के बीच राजनीति से पैदा हुई चुनौतियां भी देश को विरासत में मिली हैं, जिनसे दो-चार होना पड़ेगा। देश समझदार हुआ है। राजनीतिक वितंडावाद के बावजूद बीते लोकसभा चुनाव में देश ने जिस तरह की समझदारी दिखाई है, उसकी उम्मीद वितंडा फैलाने वालों को बिल्कुल नहीं थी। बावजूद इसके वह अपना काम करने से चूक नहीं रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून, नेशनल पापुलेशन रजिस्टर और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स जैसे अहम मुद्दों पर देश की समझदार जनता को भडक़ाने की कोशिश में हैं। साल शुरू होते ही देश कमोबेश इन्हीं चुनौतियों से जूझ रहा है।
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देश के वैज्ञानिक जब नए गगनयान की तैयारी में जुटे हैं तब देश बनाने में अहम भूमिका निभाने का दावा करने वाले कुछ दल और उनके नेता किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, यह समझा जा सकता है। लेकिन ऐसा करने से पहले वह भूल जाते हैं कि देश दस-बीस साल पुराने दौर वाला नहीं रहा, जब सूचनाओं, जानकारियों और ज्ञान के अभाव में किसी को बहकाया जा सकता था। जब एक क्लिक पर जानकारी सामने होती है तो लोगों को गुमराह करने की कोशिश कामयाब नहीं होने पाती। अगर ऐसा होता तो लोकसभा के बीते चुनाव का परिणाम कुछ और हो सकता था। फिर भी कोशिश करने वालों के स्वार्थ हैं और ऐसे लोग स्वार्थपूर्ति के लिए कुछ भी करने से बाज नहीं आ रहे। यह बात हमारे देश के नेता भले न समझें, दुनिया के दूसरे देशों के नेता समझ रहे हैं, तभी तो कश्मीर मुद्दे पर दुनिया के देशों द्वारा पाकिस्तान को समर्थन नहीं दिया गया। यह विदेश नीति का ही परिणाम है कि भारत के निर्णयों के खिलाफ कोई देश मुखर आवाज नहीं उठा पाया है। इसमें दो राय नहीं कि विदेशों में भारत की पैठ बनी है लेकिन आर्थिक मामलों में देश के सामने गंभीर चुनौतियां है।
देश के विकास की दर निचले स्तर पर आ गई है। कोशिश के बावजूद देश में अभी आर्थिक हालात के सुधार के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। कारखानों में उत्पादन में कमी आई है तो रोजगार के अवसर कम होते जाने से युवाओं में निराशा का भाव है। कुछ मोर्चों पर सरकार की अपर्याप्त नीतियों से कारोबारी परेशान हैं। तकरीबन हर सेक्टर किल्लत में है। बाजार में पैसे के फ्लो में कमी साफ दिख रही है। हालांकि इसे विश्वव्यापी मंदी की बात कहकर सरकार पल्ला झाडऩे की कोशिश में है लेकिन यह कहकर काम नहीं चलाया जा सकता है। समस्या का त्वरित समाधान जरूरी है। आर्थिक मोर्चो पर सुधारवादी रवैया अपनाकर सरकार को कारोबारियों के बीच उम्मीद जगानी ही होगी। ताकि आर्थिक हालात सुधरें और देश तेजी से आगे बढ़ सके।
केंद्र सरकार में बैठे लोगों को यह भी तय करना होगा कि वह अपनी प्रांतीय सरकारों को राज्यस्तरीय नेताओं के हवाले न छोड़ दें। उनकी नीतियों पर खुद निगरानी रखें या अपने-पराये का हठ छोड़ राज्यों को उन सक्षम नेताओं के जिम्मे करें जो वाकई समर्थ हों। वरना आगे के चुनाव परिणाम राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे आएं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत और राज्यों में हार का संदेश सीधा है कि राज्यों की सरकारें और उनके नेता स्थानीय जरूरतों के हिसाब से नीतियां बनाने में समर्थ नहीं थे। राज्य का होने के बावजूद वह वहां की नब्ज या तो पकड़ नहीं पाए या फिर स्वार्थपूर्ति में ऐसे लिप्त हो गए सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर छोड़ दी। यह एकतरफा जिम्मेदारी न तो देश के हित में है और न ही किसी पार्टी और राजनीति के हित में। यह बहुत बड़ी चुनौती कही जा सकती है, जिस पर देश के शीर्ष नेतृत्व को गंभीरता से सोचना होगा।
केन्द्र व राज्यों की बीच सामंजस्य की समस्या विकराल और पुरानी है। एक ही पार्टी की सरकार रहने पर यह समस्या भले नहीं दिखती लेकिन दूसरी पार्टी की सरकार राज्य या केंद्र में बन जाने पर इसका असर साफ दिखता है। यह असर जनता पर सीधे तौर पर पड़ता है। कई स्थानों पर संवैधानिक संस्थाओं को गंभीरता से नहीं लेने और संवैधानिक पदों के प्रति गंभीरता का अभाव होने से समस्या भयावह होती जाती है। दल-बदल का कानून जरूर है लेकिन रातों रात पाला बदलकर उस पार्टी के साथ सरकार बना लेना कौन सी नैतिकता है जिसकी नीतियों के खिलाफ पूरा चुनाव लड़ा गया हो। यह तो सीधे पर उस जनता के साथ छल है, जिसने वोट देकर जिताया है। ईमानदारी और नैतिकता का उपदेश देने वाले राजनीतिक दल इसके खिलाफ कानून कब बनाएंगे, देश यह जानना चाहता है। क्या केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसे गंभीर मुद्दे पर भी कानून लाए ताकि भविष्य में इस तरह की राजनीतिक जालसाजी से बचा जा सके? एक और अहम समस्या है चुनावों में राजनीतिक वादे और मुफ्त में सुविधाएं देने की घोषणाएं करना। इस पर कानून बहुत जरूरी है। जनता के पैसे पर कोई पार्टी कैसे तय कर देती है कि हम पावर में आएंगे तो यह कर देंगे। पार्टियां खुद के जुटाए चंदे से अगर कोई दानखाता चलाएं तो चलाएं लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई से जुटाए गए राजस्व पर व्यापक जनहित की नीतियां बनाना ही नैतिक और समुचित है। कुछ सरकारें शादी में दहेज का सामान देकर तो स्वयं दहेज निरोधक कानून तोड़ती है। यह तो लोकतंत्र का मजाक उड़ाना ही कहा जा सकता है। कोई सरकार यह कानून क्यों नहीं बनाती कि जो चुनाव के दौरान मतदान में भाग नहीं लेगा यह अमुक-अमुक सुविधाओं से वंचित कर दिया जाएगा। महज स्लोगन देकर और गाने गाकर मतदात प्रतिशत नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए कुछ कठोर कदम उठाकर ही देश और राज्यों के चुनाव में पूरी जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।
राजनीतिक मर्यादा की कमजोरी भी एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकना और दहेज जैसी कुप्रथा से मुक्ति दिलाना आखिर किसकी जिम्मेदारी है। चुनाव जीतने के लिए मीठे बोल बोलने और वैसे ही काम करते रहने से देश की समस्याएं खत्म नहीं होने वाली हैं। दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए नि:स्वार्थ भाव से सकारात्मक नीतियां बनानी होंगी। इसी में देश और समाज का भला होगा।
हमारा देश विराट सांस्कृतिक परंपरा वाला है। यहां का युवा वर्ग प्रतिभासंपन्न है। दुनिया के अनेक देश हमारे युवाओं के ज्ञान कौशल का लोहा मानते हैं। इसीलिए वह कई बार हमारे देश के युवाओं के लिए अपने यहां अवसर सीमित करने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं के लिए देश का शीर्ष नेतृत्व न केवल विदेशों में अवसर उपलब्ध कराने का प्रयत्न करे वरन अपने देश में भी ऐसे अवसर पैदा करे कि उनको यहीं रोककर देश को आगे बढ़ाया जा सके। नए साल के साथ हम सोचने को मजबूर होते हैं कि बीते साल की कमजोरियों को दूर किया जाए, देश और समाज को अच्छा बनाया जाए। जो कुछ खोया है, उससे बेहतर कुछ पाया जाए। देश और समाज में सकारात्मक माहौल पैदा किया जाए। नया साल कुछ कर दिखाने की प्रेरणा लेकर आया है। देश को समझने और समझाने की जरूरत है कि हम जो भी कर रहे हैं, अच्छा कर रहे हैं। अच्छा करने से ही देश आगे बढ़ेगा और दुनिया में और बड़ी ताकत के रूप में उभरकर सामने आएगा। बस, उम्मीदों का उजाला पैदा करिए। विश्वास का सूरज निकलेगा और भारत पूरी दुनिया को नए भारत के रूप में दिखेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)